आवरण कथा
|
आवरण कथा
कमलेश सिंह
विकास योजनाओं के लिए दी जाने वाली सांसद विकास निधि के प्रति लापरवाही
धन मिला 4 करोड़, खर्च किए 2 करोड़- बाकी गए बट्टे में!
सांसद विकास निधि के प्रति उदासीनता में प्रधानमंत्री भी शामिल
अपनी शुरुआत से ही संदेहास्पद और विवादास्पद रही सांसद विकास निधि योजना विश्व के इस सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए धन के दुरुपयोग और लूट की छूट का एक निरंकुश जरिया बनती जा रही है। वर्ष 1993 में प्रति सांसद एक करोड़ रुपए से शुरू हुई यह विकास निधि हमारे माननीय सांसदों की भारी मांग पर इसी साल पांच करोड़ रुपए कर दी गयी है। लेकिन सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती जा रही इस निधि से निर्वाचन क्षेत्रों में विकास की स्थिति “ढूंढते रह जाओगे” वाली ही है।
खाते तक नहीं खुले
संसद के विशेषाधिकार के नाम पर अपने आपको सवाल-जवाब और टीका-टिप्पणी से ऊपर समझने वाले हमारे माननीयों को यह टिप्पणी तल्ख लग सकती है, पर जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सहित डेढ़ सौ से भी अधिक सांसदों ने अपनी विकास निधि के आवंटन व स्थानांतरण के लिए जरूरी बैंक खाते भी खोलने की जहमत न उठायी हो, तब विकास के प्रति उनकी प्रतिबद्धता के बारे में किसी खुशफहमी की गुंजाइश भी कहां रह जाती है?
सांसद स्थानीय क्षेत्र विकास निधि योजना के नियमों के अनुसार, इस निधि के तहत राशि के आवंटन के लिए संबंधित जनपद में जिलाधिकारी के माध्यम से बैंक खाता खोलना जरूरी है, जिसमें यह राशि स्थानांतरित की जा सके। जाहिर है, निधि से जुड़े अन्य नियमों की तरह यह नियम भी पुराना ही है। लेकिन हाल ही में यह खुलासा हैरान और शर्मसार करने वाला रहा कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सहित संसद के दोनों सदनों के 151 सदस्यों ने विकास निधि के स्थानांतरण के लिए बैंक खाते तक नहीं खुलवाये! इनमें 34 राज्यसभा और 117 लोकसभा के सदस्य हैं।
नतीजतन सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय ने नियमों में ही ढील दे कर प्रधानमंत्री, उनके कुछ मंत्रिमंडलीय सहयोगियों और कई सांसदों को विकास निधि चेक के द्वारा दी। शायद मंत्रालय को ऐसा इसलिए भी करना पड़ा होगा कि खुद सरकार का मुखिया ही नियम पालना की कसौटी पर खरा नहीं उतर पाया। पर अब उसे भी अंतत: नियम के पालन के प्रति सख्त होना पड़ रहा है। दरअसल इस बैंक खाते को राष्ट्रीय स्तर पर इस योजना पर निगरानी के लिए बनाये गये “ऑन लाइन सिस्टम” में पंजीकृत भी करना पड़ता है, ताकि विकास निधि के इस्तेमाल और इससे होने वाले कामकाज की प्रगति पर दैनिक आधार पर नजर रखी जा सके।
बैंक खाता खोलने की प्राथमिक अनिवार्यता का पालन न करने वाले संसद सदस्यों में शामिल नामों पर गौर करने से यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि राजनीति किस हद तक जनता से विमुख हो गयी है, जिसका परिणाम जनाक्रोश और हताशा के रूप में सामने आ रहा है। इन महानुभावों की सूची में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अलावा देश के कानून मंत्री सलमान खुर्शीद, जगदंबिका पाल, मोहम्मद अजहरुद्दीन, अजित सिंह, रामगोपाल यादव, मोहन सिंह, शरद यादव, एन.के. सिंह, कीर्ति आजाद, शाहनवाज हुसैन, शिवानंद तिवारी और रघुवंश प्रसाद सिंह सरीखे बड़े नेता शामिल हैं।
विकास निधि को तरह-तरह के दबाव बना कर पहले एक करोड़ से दो करोड़ और अब पांच करोड़ रुपए करवाने वाले सांसदों की लापरवाही की हद तक उदासीनता का यह अकेला उदाहरण नहीं है। संसद के पिछले सत्र में ही सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्री श्रीकांत जेना ने एक लिखित उत्तर में राज्यसभा को यह चौंकाने वाली जानकारी दी थी कि 30 जून, 2011 को देशभर में जिला प्रशासनों के पास सांसद विकास निधि की 2600 करोड़ रुपए की राशि बिना इस्तेमाल के पड़ी थी। सरकार द्वारा संसद में दिये गये इस आंकड़े पर संदेह तो किया ही नहीं जा सकता, तब क्या इसे माननीय सांसदों की विकास के प्रति प्रतिबद्धता का प्रमाण माना जाये?
यह और भी दुखद है कि सांसद विकास निधि की राशि का पूरी तरह और सही तरह इस्तेमाल न करने में देश का सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश ही सबसे आगे है, जबकि विकास की दौड़ में लगातार पिछड़ते जाने के मद्देनजर उसे तो विकास की किसी भी संभावना-अवसर का पूरा लाभ उठाना चाहिए। श्रीकांत जेना द्वारा राज्यसभा में दिये गये उत्तर के आंकड़ों के अनुसार, सबसे ज्यादा विकास निधि (408.88 करोड़ रुपए) उत्तर प्रदेश में बिना इस्तेमाल के पड़ी थी। इसी सूची में 261.52 करोड़ रुपए के साथ बिहार दूसरे, 217.34 करोड़ रुपए के साथ महाराष्ट्र तीसरे और 185.36 करोड़ रुपए के साथ कर्नाटक छठे स्थान पर हैं।
अगर मौजूदा पंद्रहवीं लोकसभा की ही बात करें तो पहले दो साल में कुल सांसद विकास निधि का महज 38 प्रतिशत ही इस्तेमाल किया जा सका। और भी चिंताजनक बात यह है कि आधे से भी अधिक सांसदों ने इस राशि का सही उपयोग नहीं किया। कटु सत्य तो यह है कि बहुत कम सांसद ही इस विकास निधि का सही उपयोग कर पाये।
दरअसल एक गैर सरकारी संगठन “मास फॉर अवेयरनेस” के अभियान “वोट फॉर इंडिया” की पड़ताल बताती है कि पंद्रहवीं लोकसभा के 14 सांसद तो ऐसे रहे जिन्होंने 30 जून, 2011 तक अपनी विकास निधि से एक कौड़ी भी खर्च नहीं की। इन महानुभावों में केन्द्रीय भूतल परिवहन मंत्री सी.पी. जोशी, प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री वी. नारायणसामी और राष्ट्रीय जनता दल अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव भी शामिल हैं।
यही पड़ताल बताती है कि कुछ सांसद तो ऐसे भी हैं, जिन्होंने जारी किए गए छह करोड़ रुपए की विकास निधि में से दस लाख से भी कम रुपए खर्च किये। बेशक कुछ सांसद ऐसे भी हैं, जिन्होंने विकास निधि व्यय करने में तत्परता दिखायी है, लेकिन इनकी संख्या बहुत कम है। आंकड़ों के अनुसार, सांसद निधि खर्च करने के मामले में हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा से सांसद राजन सुशांत अव्वल हैं। केन्द्रीय रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी, केन्द्रीय पर्यटन मंत्री सुबोधकांत सहाय और सांसद सी.एल. रूपाला को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। लोकसभा में विपक्ष की नेता श्रीमती सुषमा स्वराज ने भी विकास निधि के इस्तेमाल में तत्परता दिखायी है। 30 जून को उनकी विकास निधि में चार लाख रुपए ही शेष थे। गजेन्द्र सिंह राजूखेड़ी, राजेश नंदिनी सिंह, देवराज सिंह, भूपेन्द्र सिंह और यशोधरा राजे सिंधिया को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है, जिन्होंने चार करोड़ रुपए की विकास निधि में से साढ़े तीन करोड़ या उससे अधिक खर्च कर दिये।
तीन से साढ़े तीन करोड़ रुपए के बीच खर्च करने वाले सांसदों में प्रेमचंद गुड्डू, परनीत कौर, नवजोत सिंह सिद्धू, प्रफुल्ल पटेल, अनुराग ठाकुर, वरुण गांधी, नारायण सिंह, मीनाक्षी नटराजन, सज्जन सिंह वर्मा, गणेश सिंह और वीरभद्र सिंह शामिल हैं। वैसे विकास निधि का इस्तेमाल करने में केन्द्रीय मंत्रियों का प्रदर्शन भी महज संतोषजनक ही कहा जा सकता है। चार करोड़ रुपए की विकास निधि में से एक से दो करोड़ के बीच ही खर्च करने वालों में शरद पवार ने 1.21 करोड़, सुशील कुमार शिंदे ने 1.22 करोड़, सौगत रे ने 1.23 करोड़, पवन कुमार बंसल ने 1.25 करोड़, कमलनाथ ने 1.38 करोड़, ज्योतिरादित्य सिंधिया ने 1.42 करोड़, मल्लिकार्जुन खडगे ने 1.46 करोड़, मुकुल वासनिक ने 1.52 करोड़, सचिन पायलट ने 1.58 करोड़, ए.के. एंटनी ने 1.63 करोड़, ई. अहमद ने 1.89 करोड़ और बेनीप्रसाद वर्मा ने 1.92 करोड़ रुपए ही खर्च किये।
दरअसल सांसदों द्वारा विकास निधि के इस्तेमाल की गति और तरीकों पर नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी “कैग” भी उंगली उठा चुका है। पिछली लोकसभा के कार्यकाल के दौरान तो विकास निधि से कराये जाने वाले कार्यों में सांसदों द्वारा दलाली मांगने का मामला भी एक “Ïस्टग ऑपरेशन” के जरिये उजागर हुआ था। कहना नहीं होगा कि 1993 में पी.वी. नरसिंह राव के नेतृत्व वाली अल्पमत सरकार द्वारा एक करोड़ रुपए प्रति वर्ष प्रति सांसद के रूप में शुरू की गयी और अब मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार द्वारा बढ़ा कर पांच करोड़ रुपए प्रति वर्ष प्रति सांसद कर दी गयी इस विकास निधि को लेकर उठने वाले संदेह और सवाल इसके औचित्य पर ही प्रश्नचिन्ह लगा देते हैं।
अपने वेतन-भत्ते बढ़ाने के लिए दलगत सीमाएं लांघकर एकजुट हो जाने वाले माननीय हर वर्ष मिलने वाले पांच करोड़ रुपए से हाथ धोना चाहेंगे, इसकी तो कल्पना भी मुश्किल है। लेकिन जिम्मेदारी और जवाबदेही लोकतांत्रिक व्यवस्था के दो अहम तत्व हैं। इसलिए इस योजना की समीक्षा करते हुए निगरानी तंत्र को और भी दुरुस्त अवश्य किया जाना चाहिए, ताकि लोकतंत्र को लूटतंत्र में बदले जाने की जनधारणा मजबूत होने के बजाय टूटे। द
टिप्पणियाँ