भविष्यदृष्टा और प्रखर हिन्दू
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भविष्यदृष्टा और प्रखर हिन्दू

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Nov 12, 2011, 12:00 am IST
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भविष्यदृष्टा और प्रखर हिन्दू

दिंनाक: 12 Nov 2011 15:46:10

17 नवम्बर को बलिदान दिवस पर पुण्य स्मरण

पंजाब केसरी लाला लाजपतराय

  शिवकुमार गोयल

 

पंजाब केसरी लाला लाजपतराय एक ऐसे दूरदर्शी नेता थे जिन्हें भारत विभाजन से कई दशक पहले ही यह आभास हो गया था कि आगे चलकर कांग्रेस की गलत नीतियों के कारण पंजाब व अन्य मुस्लिमबहुल क्षेत्रों के हिन्दुओं का जीना दूभर हो जाएगा, उन्हें अपना घर-परिवार छोड़ने को बाध्य होना पड़ेगा।

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लालाजी की चेतावनी

सन् 1925 में कलकत्ता (अब कोलकाता) तथा देश के अन्य भागों में मजहबी जुनूनियों ने साम्प्रदायिक दंगे भड़काकर बहुत से निर्दोष हिन्दुओं की हत्या कर दी थी। कलकत्ता में तो मुस्लिम लीगियों ने सभी सीमाएं पार कर असंख्य हिन्दुओं के मकानों-दुकानों को जला डाला था। तब 1925 में ही कलकत्ता में हिन्दू महासभा का अधिवेशन आयोजित किया गया। लाला लाजपतराय ने इसकी अध्यक्षता की थी तथा महामना पं.मदन मोहन मालवीय ने उद्घाटन। इसके कुछ दिनों पहले ही आर्य समाज के एक जुलूस के मस्जिद के सामने से गुजरने पर मुस्लिमों ने “अल्लाह हो अकबर” के नारे के साथ अचानक हमला बोल दिया था तथा अनेक हिन्दुओं की हत्या कर दी थी। आर्य समाज तथा हिन्दू महासभा ने हिन्दुओं का मनोबल बनाए रखने के उद्देश्य से इस अधिवेशन का आयोजन किया था। अधिवेशन में डा.श्यामा प्रसाद मुखर्जी, श्रीमती सरलादेवी चौधुरानी तथा आर्य समाजी नेता गोविन्द गुप्त भी उपस्थित थे। सेठ जुगल किशोर बिरला ने विशेष रूप से इसे सफल बनाने में योगदान किया था। लाला जी तथा मालवीय जी ने इस अधिवेशन में हिन्दू संगठन पर बल देते हुए चेतावनी दी थी कि यदि हिन्दू समाज जाग्रत व संगठित नहीं हुआ तथा हिन्दू-मुस्लिम एकता की मृग मरीचिका में भटककर सोता रहा तो उसके अस्तित्व के लिए भीषण खतरा पैदा हो सकता है। लालाजी ने भविष्यवाणी की थी कि मुस्लिमबहुल क्षेत्रों में हिन्दू महिलाओं का सम्मान सुरक्षित नहीं रहेगा।

स्वाधीनता सेनानी तथा पंजाब की अग्रणी आर्य समाजी विदुषी कु.लज्जावती लाला लाजपतराय के प्रति अनन्य श्रद्धा भाव रखती थीं। लाला लाजपतराय भी उन्हें पुत्री की तरह स्नेह देते थे। कु.लज्जावती का लालाजी संबंधी संस्मरणात्मक लेख हाल ही में श्री विष्णु शरण द्वारा संपादित ग्रंथ “लाल लाजपतराय और नजदीक से” में प्रकाशित हुआ है। इसमें लज्जावती लिखती हैं- “लालाजी के व्यक्तित्व को यदि बहुत कम शब्दों में व्यक्त करने का प्रयास करूं तो उपयुक्त शब्द होंगे कि वे देशभक्ति की सजीव प्रतिमा थे। उनके लिए धर्म, मोक्ष, स्वर्ग और ईश्वर पूजा- सभी का अर्थ था देश सेवा, देशभक्ति और देश से प्यार।

विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के सिलसिले में अमृतसर की एक विराट सभा में व्यापारियों की इस बात का कि उनके पास करोड़ों रुपये का विदेशी कपड़ा गोदामों में भरा पड़ा है, अत: उनके लिए विदेशी कपड़ों के बहिष्कार कार्यक्रम का समर्थन करना संभव नहीं है, उत्तर देते हुए उन्होंने कहा था, “आप करोड़ों रुपये के कपड़े की बात कर रहे हैं। मेरे सामने यदि तराजू के एक पलड़े में दुनियाभर की दौलत रख दी जाए और दूसरे में हिन्दुस्थान की आजादी, तो मेरे लिए तराजू का वही पलड़ा भारी होगा जिसमें मेरे देश की स्वतंत्रता रखी हो।”

यथार्थवादी दृष्टिकोण

“उनकी यथार्थवादिता व महत्व मुझे तब समझ में आया जब उन्होंने 1925 के अंत में विदेश यात्रा से लौटने पर हिन्दू-मुस्लिम समस्या पर अपने विचार हमारे सामने रखे। ये विचार क्रांति के अन्य नेताओं के विचारों से भिन्न थे, उन्हें समझने में लोगों को कठिनाई भी हुई। उस समय दिए गए उनके भाषण के कुछ वाक्य अब भी कभी-कभी मेरे कानों में गूंज उठते हैं। उन्होंने कहा था, “जब तक इस देश में विदेशी राज्य कायम है, मैं न स्वयं चैन से रहूंगा और न ही किसी को बैठने दूंगा। अपना घर फूंक चुका हूं, आप सबका फूंक दूंगा, पर स्वतंत्रता प्राप्ति के प्रश्न की गति धीमी नहीं होने दूंगा।”

हिन्दू नारी की रक्षा

“एक दिन उन्होंने मुझे छोटी-सी एक कृपाण दी, जो आज भी मेरे पास सुरक्षित है। इस आशय के शब्द भी याद हैं कि, “मैं तो तब नहीं रहूंगा, पर एक अवसर ऐसा आएगा जब पंजाब के जिन-जिन जिलों में हिन्दू अल्पसंख्या में हैं वहां प्रत्येक हिन्दू स्त्री की इज्जत खतरे में होगी। मैं चाहता हूं कि तुम अपने बचाव के लिए इसे अथवा और कोई चीज हर समय अपने पास रखो और अपने बचाव में इसका प्रयोग करना। पंजाब में हिन्दू स्त्री को मेरा दृष्टिकोण समझाओ और उन्हें अपनी रक्षा के लिए तैयार करो।”

दूरदृष्टा

“पाकिस्तान शब्द का प्रयोग उन्होंने नहीं किया था, किंतु कहा था कि भारत के उन सब जिलों से जहां मुसलमानों की बहुसंख्या है, हिन्दुओं को निकलना पड़ेगा। जहां तक मुझे याद है उस समय केवल सेवक मंडल के एक-दो सदस्य ही उपस्थित थे। मैंने उस वक्त यह नहीं सोचा था कि योगी लोग जैसे दिव्य दृष्टि से भविष्य देख लेते हैं, वैसे ही लालाजी भी अपनी अत्यन्त पैनी व यथार्थदर्शी बुद्धि से वर्षों बाद भारत पर आने वाली विभाजन की घटना को देख रहे थे और हमें चेतावनी दे रहे थे, उसका सामना करने के लिए तैयार कर रहे थे।

उस समय कुछ लोगों ने यह भी कहा था कि लालाजी का दृष्टिकोण राष्ट्रीय न रहकर हिन्दूसभाई व साम्प्रदायिक हो गया है। परंतु लालाजी ने लोगों के मत की परवाह न करके अपना मत प्रकट किया था। उस समय के राष्ट्रवादी नेताओं में केवल लालाजी ही ऐसे व्यक्ति थे जो देश पर भविष्य में पृथकतावाद के रूप में आने वाली विपत्ति की कल्पना से तथा अपनी अत्यंत प्रिय मातृभूमि की अखंडता नष्ट होने की संभावना से अधीर और व्याकुल हो उठे थे।

सन् 1947 में देश के स्वतंत्र होने के समय पंजाब और बंगाल में इस देश ने मजहबी उन्माद का घृणित तथा वीभत्स चित्र संसार को दिखाया तथा इस देश की मातृशक्ति ने पुरुष की नग्न और पशुवृत्ति को देखा और उसका फल भी भोगा। परंतु मुझे उन दिनों बहुत देर तक इस बात के लिए पश्चाताप होता रहा कि लाला जी द्वारा चेतावनी देने के बाद भी उस संबंध में निष्क्रिय रहकर मैंने अपने कर्तव्य की भारी अवहेलना की थी।”

हिन्दू संगठन की आवश्यकता

“1925 के दिसंबर में कानपुर में पहली बार औपचारिक रूप से कांग्रेस का झण्डा लहराया गया था। यह शुरुआत उस वर्ष लाला जी के हाथों सम्पन्न हुई थी। झंडा अभिवादन करते हुए वंदेमातरम गीत गाया गया। उस रात लाला जी ने मुझे अपने पास बुलाकर देश की राजनीतिक समस्या पर अपने विचार समझाते हुए पूछा था कि क्या तुम समझती हो कि आज जो गाना झंडा अभिवादन के समय गाया गया था उसे समूचा राष्ट्र कल अपना राष्ट्रगान स्वीकार कर लेगा? जब मैंने इसके स्वीकार न किए जाने की संभावना के कारण पूछे तो उन्होंने कहा कि कारण जो भी हों, पर इस गीत की भाषा के एक-एक शब्द पर झगड़ा होगा, उनकी सम्मति में भारत की भिन्न-भिन्न संस्कृतियों का परस्पर समन्वय करने का काम तभी आसान होगा जब इस देश का एक ऐसा मजबूत संगठन हो जिसका मुख्य उद्देश्य भारत की एकता और अखण्डता की रक्षा करना हो। यह हिन्दू राष्ट्र की कल्पना नहीं थी, परंतु एक ऐसे संगठन की कल्पना थी जिसके एक-एक सदस्य के लिए भारत की मिट्टी का एक-एक कण पवित्र हो, जो इसकी एक एक इंच भूमि के लिए प्राण उत्सर्ग करने के लिए कटिबद्ध हो और ऐसे व्यक्ति जो किसी अन्य देश के साथ किसी भावनात्मक बंधन से बंधे हुए न हों।”

कु.लज्जावती आगे चलकर कन्या महाविद्यालय जालंधर की प्रधानाचार्या रहीं। उनके संस्मरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि लाला लाजपतराय अंदर-अंदर ही मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति के घातक परिणामों का चिंतन करके शक्तिशाली हिन्दू संगठन को अत्यंत आवश्यक मानने लगे थे।द

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