बढ़ती जनसंख्या को कुशल बनाएंजग पर छा जाएं
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डा. विशेष गुप्ता
संयुक्त राष्ट्र संघ की गणना के अनुसार 31 अक्टूबर, 2011 को विश्व की जनसंख्या सात अरब हो गयी। फिलीपींस के मनीला स्थित एक सरकारी अस्पताल में जन्मी डेनिका नाम की एक बच्ची को प्रतीक रूप में दुनिया का सात अरबवां बच्चा माना जा रहा है। जबकि लन्दन स्थित “प्लान इन्टरनेशनल” की भारतीय इकाई “प्लान इंडिया” ने लखनऊ से 35 किलोमीटर दूर माल कस्बे में जन्मी नरगिस नामक बच्ची को प्रतीक रूप में दुनिया का सात अरबवां शिशु माना है। संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से पूर्व में कराए गए सर्वेक्षण में भारत में प्रत्येक मिनट जन्म लेने वाले 51 बच्चों में से 11 बच्चों के उत्तर प्रदेश में जन्म लेने के कारण सात अरबवें बच्चे के उत्तर प्रदेश में ही जन्म लेने की संभावना जतायी गयी थी।
तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या
उल्लेखनीय है कि दुनिया की जनसंख्या के सात अरब के आंकड़े के पार होने के बाद इस बढ़ती जनसंख्या को लेकर विश्व स्तर पर चिन्ता और गहरी हो गयी है। विश्व जनसंख्या से जुड़े आंकड़ों का अवलोकन बताता है कि 7 अरब की जनसंख्या तक पहुंचने में लगभग 207 वर्ष का समय लगा। 1804 में विश्व की जनसंख्या ने 1 अरब के आंकड़े को स्पर्श किया था। सन् 1927 में दुनिया की आबादी बढ़कर 2 अरब के पार हो गयी। लगभग तीन दशक पश्चात अर्थात 1959 में विश्व की आबादी 3 अरब हो गयी। सन् 1974 में यह 4 अरब के पार पहुंच गयी। 13 वर्षों के पश्चात् 1987 में यह 5 अरब और 1999 में विश्व की यह जनसंख्या बढ़कर 6 अरब को पार कर गयी। विशेषज्ञों का अनुमान है कि 2025 तक दुनिया की जनसंख्या 8 अरब तथा 2080 के आसपास विश्व की जनसंख्या के 10 अरब के आंकड़े को स्पर्श करने की संभावनाएं हैं। निश्चित ही विश्व स्तर पर बढ़ती जनसंख्या केवल विकासशील देशों के लिए ही नहीं बल्कि विकसित देशों के लिए भी बड़ी चिन्ता का विषय है। कड़वी सच्चाई यह है कि विश्व की एक तिहाई आबादी को आज भी न तो दो वक्त का ठीक भोजन मिल पा रहा है और न ही उनके स्वच्छ पानी पीने की कोई व्यवस्था है। साथ ही रोजगार की भी कोई स्थायी व्यवस्था नहीं है।
इसमें कोई सन्देह नहीं है कि विश्व स्तर पर अनेक ऐसे देश हैं जो अपनी सामाजिक व आर्थिक कामयाबी का परचम फहरा रहे हैं। परन्तु वहीं दूसरी ओर बढ़ती जनसंख्या और उनके मानव संसाधन के रूप में रूपान्तरित न होने के कारण दुनिया के अनेक देश निरन्तर बिगड़ते पर्यावरण, खाद्य आपूर्ति, पानी की समस्या, भुखमरी, बेरोजगारी, आत्महत्या तथा अपराधों में वृद्धि जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं। दुनिया में पंूजीवाद का मजबूत स्तम्भ माना जाने वाला अमरीका आज खुद गरीबी और बेरोजगारी का दंश झेल रहा है। वहां बढ़ता आर्थिक असंतुलन युवाओं में असन्तोष और आक्रोश को बढ़ा रही है। अमरीका में आर्थिक असंतुलन की स्थिति यह है कि अमरीका के केवल एक प्रतिशत लोगों का देश की 42 प्रतिशत वित्तीय सम्पत्ति पर कब्जा है। देश की आधी आबादी के पास अमरीका की कुल सम्पत्ति का मात्र ढाई प्रतिशत ही है। पिछले एक दशक में अमरीका की आय में जो बढ़ोतरी हुई उसका 66 प्रतिशत भाग केवल एक प्रतिशत लोगों को मिला है। यही कारण है कि आज अमरीका में आर्थिक विषमता की खाई चौड़ी होने के कारण ही वहां युवाओं में “हम 99 प्रतिशत हैं” का नारा लोकप्रिय हो रहा है।
भारत का चित्र
विश्व के जनसंख्यात्मक ढांचे के विश्लेषण की प्रासंगिकता भारत की जनसंख्या की चर्चा के बिना अधूरी है। यह संयोग ही है कि गत फरवरी-मार्च 2011 में भारत की जनसंख्या के अद्यतन आंकड़े भी प्रस्तुत किए गए। आंकड़े बताते हैं कि भारत की जनसंख्या सवा अरब के आस-पास पहुंच गयी है जबकि 2001 में भारत की यह जनसंख्या 102.8 करोड़ थी। भारत की यह जनसंख्या विश्व की जनसंख्या की 17.5 फीसदी है। भारत की यह जनसंख्या अमरीका, जापान, रूस, इण्डोनेशिया और ब्राजील की कुल जनसंख्या के बराबर है। अनुमान है कि भारत की सत्रहवीं जनगणना अर्थात 2031 तक भारत दुनिया का सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश बनकर चीन को पीछे छोड़ देगा। हालांकि आंकड़े बताते हैं कि 2001-2011 के दशक में जनसंख्या के बढ़ने की दर में कमी आयी है। परन्तु लिंगानुपात के मामले में भारत विश्व के कई विकासशील देशों से पिछड़ा हुआ है। 0 से 6 वर्ष के मध्य बाल लिंगानुपात विश्व के 940 (1 हजार लड़कों पर 940 लड़कियां) के मुकाबले 915 ही रह गया है। यह बाल लिंगानुपात यह संकेत देता है कि यहां कन्या भ्रूणों का गर्भपात करा दिया जाता है। गर्भधारण के बाद अथवा जन्म के बाद उनकी हत्या कर दी जाती है। हरियाणा व पंजाब जैसे अग्रणी राज्य तक कन्या भ्रूण हत्या जैसी सामाजिक बुराई से आज भी पीड़ित हैं। साक्षरता के आंकड़े पूर्व की तुलना में थोड़े बेहतर आए हैं। अर्थात भारत में जहां पहले दो तिहाई से कम आबादी साक्षर थी वहीं 2011 के आंकड़ों के अनुसार आज लगभग तीन चौथाई आबादी साक्षर है। पिछले एक दशक में पुरुष साक्षरता में जहां मात्र सात प्रतिशत की वृद्धि हुई, वहीं स्त्री साक्षरता में इस बीच 23 प्रतिशत की वृद्धि निश्चित ही उल्लेखनीय कही जा सकती है। परन्तु दूसरी ओर अनुसूचित जाति और जनजाति के बीच साक्षरता दर का कम होना अनेक सवाल खड़े करता है। इस सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि जहां साक्षरता दर कमजोर है वहीं सकल प्रजनन दर में वृद्धि हुई है।
लाभ या हानि
भारत की वर्तमान जनसंख्या का प्रमुख बिन्दु किशोरों एवं युवाओं की जनसंख्या में तीव्र बढ़ोतरी है। उल्लेखनीय है कि भारत में लगभग एक तिहाई जनसंख्या 15 साल से कम उम्र की है, जबकि दूसरी ओर युवाओं की जनसंख्या 50 प्रतिशत से अधिक है। हालांकि जनसंख्याविदों और समाज वैज्ञानिकों के बीच इन किशोरों और युवाओं की जनसंख्या को लेकर कुछ मतभेद हैं। कुछ विशेषज्ञों ने युवाओं की बढ़ती इस जनसंख्या को जनसांख्यिकीय लाभांश तथा कुछ ने इसे जनसांख्यिकीय घाटा माना है। इस जनसंख्या को लाभांश के रूप में स्वीकार करने वालों का तर्क यह है कि आज का अल्पायु किशोर कल का वयस्क नागरिक बनेगा जिससे कार्यशील युवाओं की संख्या बढ़ेगी। दूसरी ओर पश्चिम के देश जैसे जापान, फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन में जहां जनसंख्या के बढ़ने का स्तर शून्य हो चुका है, वहां भविष्य में वृद्धजनों की संख्या बढ़ेगी और कार्यशील जनसंख्या कम होती जाएगी, जिससे उत्पादन स्वत: ही घटेगा। परन्तु भारत में ऐसा नहीं है। बढ़ती जनसंख्या को घाटा कहने वालों का तर्क यह है कि इन बच्चों के युवा होने में कई वर्ष लग जाएंगे तथा उन्हें कार्यशील और कौशलयुक्त बनाने के लिए शिक्षा जैसी कई संस्थाओं की व्यवस्था करनी पड़ेगी। उनके बेहतर स्वास्थ्य की देखभाल करते हुए पोषाहार के साथ में पहनने के लिए कपड़े और आवागमन के लिए यातायात साधन उपलब्ध कराने होंगे। स्पष्ट है कि ऐसे बच्चों के युवा होने तक उनके भरण-पोषण में काफी धन व्यय होगा जिसका प्रबंधन आसान नहीं होगा। ऐसे में धन की कमी के कारण आम जनता पर करों का बोझ बढ़ेगा। सीधा सा अर्थ यह है कि बढ़ती जनसंख्या को यदि रहने के लिए उचित आवास, जीने के लिए न्यूनतम भोजन और पोषण, शिक्षा, स्वास्थ्य व कौशल से जुड़े उपयुक्त साधनों का प्रबन्ध नहीं किया जाता है तो इन लोगों में बेहतर कौशल क्षमता का विकास न होने से वे अकुशल मजदूर बनकर ही रह जाएंगे।
दुष्परिणाम
नि:संदेह वर्तमान में भारत चीन के पश्चात दुनिया की सबसे अधिक जनसंख्या वाला दूसरा देश है। यह भी सत्य है कि आज धरती पर प्रत्येक छ: लोगों में एक भारतीय है। किसी भी राष्ट्र की दशा और दिशा इस बात पर निर्भर करती है कि हमने अपनी बढ़ती हुई जनसंख्या को राष्ट्र की आवश्यकताओं के अनुरूप किस सीमा तक मानव संसाधन में रूपान्तरित किया है। ऐसा न होने पर जनसंख्या के विभिन्न घटक फिर मनमाने तरीके से अपना विकास करने को मजबूर होते हैं। “ट्रान्सपेरेन्सी इण्टरनेशनल” की रपट ने भारत को भ्रष्टाचार के मामले में 7.5 अंक देकर 19वें स्थान पर रखा है। इसके साथ-साथ संयुक्त राष्ट्र के मानव विकास सूचकांक-2011 में 187 देशों के बीच भारत को 134वें स्थान पर रखा है। इसका सीधा-सा अर्थ यह हुआ कि बेहतर रहन-सहन, शिक्षा और स्वास्थ्य के मामले में भारत की हालत अभी भी निराशाजनक है। हाल ही में जारी राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड्स ब्यूरो की सालाना रपट से जुड़े आंकड़े रेखांकित करते हैं कि लोग संयम और विवेक खो रहे हैं। साथ ही उनमें कानून के प्रति अवहेलना का भाव और कानून हाथ में लेने की प्रवृत्ति विकसित होती जा रही है। “शार्टकट” से धन कमाकर अमीर बनने की उनकी लालसा उनका परिचय अपराध की दुनिया से करा रही है। इसी रपट के अनुसार देश में अपराधों की गति 5 फीसदी की दर से बढ़ी है। यह जनसंख्या वृद्धि का ही दुष्परिणाम है कि वाहनों की बाढ़, खराब सड़कें व अनियन्त्रित यातायात संचालन, लापरवाह “ड्राइविंग” और सख्त कानूनों के अभाव में सड़क दुर्घटनाएं 5.5 फीसदी बढ़ गयी हैं। परन्तु नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो की रपट बताती है कि माध्यमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षण संस्थानों में युवाओं व उनके अभिभावकों की महत्वाकांक्षाओं में वृद्धि के कारण छात्रों में आत्महत्या की दर 26 फीसदी बढ़ी है। हालांकि देश में अनेक आत्महत्याएं परिवारों में बढ़ते तनाव और सामाजिक व आर्थिक दवाब के कारण भी होती हैं। परन्तु यह भी सच्चाई है कि व्यक्ति में आत्महत्या करने की लालसा भी कहीं न कहीं देश में विस्तारित बाहरी दबाव व माहौल के कारण ही पैदा होती है। देश में 1991 के बाद नवउदारवादी नीतियों के क्रियान्वयन के पश्चात यह दावा किया गया था कि आर्थिक समृृद्धि की गति तेज होने पर रोजगार के अवसर बढ़ेंगे और लोग खुशहाल होंगे। परन्तु देश में उदारीकरण की नीति के बाद संगठित क्षेत्र में रोजगारों में भारी कमी आयी है। यही कारण है कि आज का युवा वर्ग सम्पूर्ण राज व्यवस्था के खिलाफ उठ खड़ा हुआ है। लोगों के पास नौकरी नहीं होगी, लोगों के पास काम नहीं होगा तो निश्चित ही देश में बेरोजगारी बढ़ेगी, अपराध व उन्मादी गतिविधियों का आंकड़ा बढ़ेगा। लोग एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर तेजी से पलायन करेंगे। शहरों में लगातार बढ़ती भीड़ में लोगों के पलायन करने के स्पष्ट उदाहरण आसानी से अवलोकित किये जा सकते हैं।
संख्या बल को ताकत बनाएं
हमारा तात्पर्य देश की बढ़ती जनसंख्या की कोई नकारात्मक तस्वीर प्रस्तुत करना नहीं है। बल्कि राष्ट्र की आवश्यकताओं के अनुरूप जनसंख्या के अनेक घटकों के लिए उन मार्गों की तलाश करना है जिन पर चलकर उस राष्ट्र को शक्तिशाली बनाया जा सकता है। राष्ट्र में विकास का तात्पर्य उस देश के लोगों को सशक्त एवं कौशलयुक्त बनाकर राष्ट्र का विधिवत संचालन है। यही वे आयाम हैं जिनके क्रियान्वयन से राष्ट्र के लोग खुशहाल बनते हैं। देश की आजादी के बाद विगत 64 वर्षो शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि उद्योग, पर्यावरण, युवा, महिला व वृद्धजनों से जुड़ी योजनाएं इस देश की मूल आवश्यकताओं को नकार कर वातानुकूलित कक्षों में बैठकर बनायी गयी हैं। यही कारण है कि वे सभी कल्याणकारी योजनाएं धरातल पर आकर अपेक्षित परिणाम नहीं दे सकीं। ऐसा भी नहीं है कि राष्ट्र की राजनीतिक सत्ताओं ने देश के लिए कोई कार्य न किया हो। परन्तु राष्ट्र की प्रगति को उत्साहजनक नहीं कहा जा सकता।
इस समय भारत की जनसंख्या युवाओं के पक्ष में है। सम्पूर्ण विश्व भारत में युवाओं के उभरते ज्ञानात्मक समाज की ओर दृष्टि लगाए हुए है। आने वाले दो दशकों में भारत में लगभग 4 करोड़ युवा कार्यशील होंगे, जबकि ब्राजील में मात्र डेढ़ करोड़ और चीन में एक करोड़ कार्यशील युवा ही जुड़ेंगे। भविष्य में केवल भारत देश ही ऐसा होगा जहां कि कार्यशील और ज्ञानाश्रित युवा जनसंख्या सम्पूर्ण विश्व में अपना परचम लहराएगी। भारत को इस समय अपनी इस युवा जनसंख्या को बहुत संभालकर रखना है। हमारी चिन्ता यह नहीं होनी चाहिए कि हमारी जनसंख्या भविष्य में चीन से बढ़ जाएगी। हमारी चिन्ता का विषय यह होना चाहिए कि हमारी आबादी कैसे कुशल मानव संसाधन के रूप में विकसित हो सकती है। आज आवश्यकता इस बात की है कि बढ़ती जनसंख्या का कौशल राष्ट्र की ज्वलंत समस्याओं के साथ जोड़ते हुए उसे तराशा जाए। इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ युवा जनसंख्या को साथ लेकर सामंजस्य और समन्वयात्मक प्रयासों के साथ कार्य करना होगा। हो सकता है बढ़ती हुई जनंसख्या को मानव संसाधन में रूपान्तरित करने के सद्प्रयासों से ही भारत राष्ट्र के विश्व गुरु बनने की संकल्पनाओं के स्रोत पुन: आकार ग्रहण करने लगें। राष्ट्र में ऐसे लक्षण आने प्रारम्भ हो चुके हैं। द
(लेखक महाराजा हरिश्चन्द्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय, मुरादाबाद के समाजशास्त्र विभाग में एसोसियेट प्रोफेसर हैं)
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