चर्चा सत्र
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इस्लामी देशों में बढ़ते जन-विद्रोह
* डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री
अफ्रीका और एशिया के इस्लामी देशों में पिछले कुछ समय से विद्रोह भड़कते दिखाई दिए हैं। विद्रोह को अनेक स्थानों पर “जन-विद्रोह” का नाम भी दिया गया है। वास्तव में इस्लामी देशों में तानाशाही अथवा एकाधिकारवाद परम्परा से मान्य रहा है। जिन इस्लामी देशों ने लोकतंत्र की ओर पहल करने की हिम्मत दिखायी, वहां भी धीरे -धीरे कट्टरता का घना कोहरा छाने लगा है। मलेशिया और इण्डोनेशिया इसके दो ताजा उदाहरण हैं। कुछ समय से मलेशिया में इस्लाम के नाम पर स्वतंत्र चिंतन को अवरुद्ध किया जाने लगा है और ऐसा आग्रह किया जाने लगा है कि वहां के लोग अपने आप को इस्लामी परंपराओं और इस्लामी मान्यताओं के अनुसार ढाल लें। इण्डोनेशिया में भी यह प्रवृत्ति काफी खतरनाक रूप धारण कर चुकी है। अरब भूमि, जहां लगभग 14 सौ साल पहले इस्लाम शुरू हुआ था, राजशाही की जकड़न से ग्रस्त है। इस्लाम ने अपने उदय के बाद जिन अरब देशों और अफ्रीकी देशों को मतांतरित करके वहां इस्लामी राज्य स्थापित किए, वहां से भी उन्होंने कबीलाई संस्कृति के आंतरिक लोकतांत्रिक गुणों को अपना लिया और एक नए प्रकार के अधिनायकवाद की स्थापना की।
अमरीका की रुचि
कालांतर में जब मध्य-पूर्व के देशों की धरती के नीचे तेल के अथाह भंडारों का पता चला, तो स्वाभाविक ही दुनिया की ताकतों की दृष्टि में इन इस्लामी देशों की महत्ता रातोंरात बढ़ गयी। ऐसी स्थिति में अमरीका और कुछ दूसरे यूरोपीय देशों की रुचि इस क्षेत्र में बढ़ने लगी। जाहिर है कि अमरीका को भी इन इस्लामिक देशों में लोकतांत्रिक सरकारें अच्छी नहीं लग सकती थीं, क्योंकि ऐसी स्थिति में शासक बदलते रहते हैं और बदलते शासक अमरीका के हितों का ध्यान रखेंगे ही, इस बात की कोई गारंटी नहीं हो सकती। अपने इन्हीं हितों को ध्यान में रखकर अमरीका ने सभी इस्लामिक देशों में अधिनायकवाद और तानाशाही को प्रश्रय दिया। इसके लिए उसको इस्लाम की ढाल का भी प्रयोग करना पड़ा। यह आश्चर्य का विषय ही है कि अपने आप को लोकतंत्र का सबसे बड़ा समर्थक कहने वाला अमरीका, अपने हितों के लिए अफ्रीका और एशिया के इस्लामी देशों में तानाशाही का समर्थन करने के लिए चट्टान बनकर खड़ा हो गया। लेकिन अमरीका यह भी जानता है कि कोई भी तानाशाह एक समय सीमा से ज्यादा किसी भी देश पर राज्य नहीं कर सकता। तानाशाहों के खिलाफ धीरे धीरे विद्रोह पनपना शुरू हो जाता है और तानाशाहों का भी अंत होता है। अमरीका को लगा होगा कि यदि अफ्रीका और एशिया के इस्लामी देशों में ऐसा विद्रोह सचमुच ही पनपने लगे तो जाहिर है कि विद्रोह के बाद जो सरकारें बनेंगी, वे अमरीका की विरोधी हो जाएंगी, क्योंकि अमरीका इन तानाशाहों के मित्र के रूप में पहचाना जाता है। स्वाभाविक ही ऐसे समय में अमरीका की रणनीति यही हो सकती है कि अब जब इन तानाशाहों की उपयोगिता उसकी दृष्टि में समाप्त हो चुकी हो, तो इनके स्थान पर जो नई सरकारें आएं वह उसकी समर्थक हों, न कि विरोधी। इसलिए कुछ जगह ऐसा भी कहा जा रहा है कि इस विद्रोह के पीछे दरअसल अमरीका का ही हाथ है। ट्यूनीशिया से लेकर बरास्ता मिस्र – लीबिया और अब सीरिया तक में जो कुछ हो रहा है उसमें अमरीका का सैन्य बल, हथियार बल स्पष्ट ही दिखायी दे रहा है। लीबिया में तो “नाटो” की सेनाएं खुले रूप में कर्नल गद्दाफी का पीछा कर रही थीं। एक बात और ध्यान में रखनी चाहिए कि जिन देशों में सत्तापलट हुआ है वहां यह कार्य केवल जनविद्रोह से नहीं हुआ बल्कि वहां की सेना ने अप्रत्यक्ष रूप से तानाशाह शासकों का साथ देने से इनकार कर दिया था। इन जनविद्रोहों के माध्यम से कट्टर इस्लामी ताकतें या राजनीतिक दल सत्ता में पहुंच रहे हैं। ट्यूनीशिया और मिस्र में हुए चुनाव इसके ताजा उदाहरण हैं। अमरीका इन सभी नए शासकों का प्रबल समर्थक बन रहा है, क्योंकि उसे इन देशों के तेल पर कब्जा करने के लिए वहां अपनी समर्थक सरकारें बनाये रखनी हैं।
इस्लामी प्रवृत्ति है तानाशाही?
एक बात उल्लेखनीय है कि इन इस्लामिक देशों में विद्रोह तानाशाही से तानाशाही की ओर ही ले जाता है। इस तानाशाही की स्थापना में इस्लाम भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है और अमरीका भी। पूर्व में जिन इस्लामी देशों में तानाशाहों के खिलाफ विद्रोह हुए हैं उनकी शुरुआत भी आर्थिक और भौतिक कारणों से हुई थी, परन्तु उनका अंत एक नए प्रकार की इस्लामी तानाशाही में हुआ। ईरान में शाह रजा के खिलाफ जब आंदोलन शुरू हुआ था तो वह लोकतंत्र, महंगाई और आर्थिक कारणों से ही हुआ था। परन्तु उसकी परिणति, तमाम लोकतांत्रिक दावों के बावजूद, एक नए प्रकार की इस्लामी तानाशाही में हुई और कट्टर इस्लामी नेता इमाम खुमैनी नए नायक के तौर पर उभरे। बहुत से राजनीतिक पंडितों का आकलन है कि अमरीका ने इन देशों में स्वनियंत्रित जन-विद्रोहों के माध्यम से नई अमरीका-समर्थक सरकारों की ताजपोशी की व्यवस्था कर ली है। और अब अमरीका चर्च बहुल क्षेत्रों के नए ईसाई देश बनाने की प्रक्रिया में धीरे-धीरे जुटा हुआ है। इण्डोनेशिया में पूर्वी तिमोर और अब अब दक्षिणी सूडान में इसी प्रकार के ईसाई देशों के निर्माण की लम्बी रणनीति जाहिर हो रही है। इसे इन विद्रोहों का “बाईप्रोडक्ट” मानना चाहिए।
मुख्य प्रश्न यह है कि इस्लामी देशों में तमाम विद्रोहों के बावजूद सारी यात्रा एक तानाशाही से दूसरी तानाशाही तक जाकर ही समाप्त क्यों हो जाती है? भारतीय क्षेत्र में ही देखना हो तो पाकिस्तान और बंगलादेश इसके ताजातरीन उदाहरण हैं। इसका कारण इस्लाम की प्रकृति और स्वभाव में ही खोजना होगा। जब तक उसके सामाजिक चिंतन में परिवर्तन नहीं होता तब तक इस्लामी देशों से तानाशाही की विदाई कठिन ही दिखाई देता है। अमरीका अपने राष्ट्रीय हितों के लिए इस्लाम की इस प्रकृति का लाभ उठाता है और कहीं-कहीं उसकी इस कट्टरता को और तीखी धार प्रदान करता ह,ै जैसा कि उसने अफगानिस्तान में किया है।
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