इतिहास दृष्टि
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प्रतीक और कांग्रेस संस्कृति
भारतीय जीवन दर्शन में संस्कृत, संस्कृति और संस्कारों का बड़ा महत्व है। गो, गायत्री, गीता तथा गंगा को भारतीय संस्कृति का प्रतीक माना गया है। वैदिक काल से वर्तमान समय तक, राजा से रंक तक-सभी ने इन प्रतीकों के प्रति गहरी आस्था तथा श्रद्धा व्यक्त की है। दुर्भाग्य से भारत की स्वतंत्रता के पश्चात कांग्रेस सरकार ने भारत की सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय भावनाओं एवं उनके प्रतीकों के प्रति राजनीतिक स्वार्थ तथा मुस्लिम तुष्टीकरण के कारण जितनी उदासीनता, उपेक्षा तथा अवहेलना की, वह न कभी मुस्लिम शासन काल में देखी गयी और न ही ईसाई प्रेरित ब्रिटिश शासनकाल में दिखी। और यह तब जबकि सबको ज्ञात है कि पाकिस्तान के निर्माण में भारत के 96 प्रतिशत से भी अधिक मुसलमानों ने मजहब के आधार पर विभाजन का समर्थन किया था। साथ ही यह भी सत्य है कि भारत में मुसलमानों को जितना सम्मान तथा अधिकार प्राप्त है, वह विश्व में किसी भी दूसरे गैरमुस्लिम देश में नहीं है। यह भारतीय इतिहास की विडम्बना ही है कि राजनीतिक अवसरवादिता ने कांग्रेस को इतना अंधा और लाचार बना दिया है कि वह अपनी सांस्कृतिक तथा राष्ट्रीय धरोहर को भूल गई है तथा बहुसंख्यक हिन्दू समाज को धता बताकर, क्षुद्र स्वार्थ तथा वोट बैंक की राजनीति में यहां तक आगे बढ़ गई कि उसने जहां भारत की स्वतंत्रता व अखण्डता के लिए ही खतरा पैदा कर दिया, वहीं अपनी सांस्कृतिक जड़ों को ही कुरेदना शुरू कर दिया है।
गोहत्या का प्रश्न
भारत की स्वतंत्रता के पश्चात पहला सांस्कृतिक मुद्दा आया गोहत्या पर प्रतिबंध का। भारतीय संविधान सभा के अध्यक्ष डा. राजेन्द्र प्रसाद सहित हजारों-लाखों देशभक्तों ने चाहा कि स्वतंत्र भारत की पहली सरकार की शुरूआत गोहत्या बन्दी कानून से हो। परन्तु पंडित जवाहर लाल नेहरू ने डा. राजेन्द्र प्रसाद को लिखे एक लम्बे पत्र में गांधी जी की झूठी आड़ लेकर इसे नकार किया (देखें नेहरू वाङमय, दूसरी श्रंृखला, भाग तीन में पं. नेहरू का 6 अगस्त, 1947 का पत्र)। वस्तुत: नेहरू जी का उत्तर गांधी जी के संदर्भ में बेबुनियाद था। वास्तव में गांधी जी ने गाय को जन्मदायिनी मां से भी श्रेष्ठ बताया था तथा गाय की पूजा के समर्थन में दुनिया का मुकाबला करने की बात कही थी (यंग इंडिया, 1 जनवरी, 1925) तथा यह आस्था प्रकट की थी कि हिन्दू धर्म तब तक जीवित रहेगा, जब तक एक भी गोरक्षक हिन्दू जीवित है (यंग इंडिया, 6 अक्तूबर, 1921)। जबकि पं. नेहरू को इस कानून के बनने से भारत की “मिश्रित संस्कृति को खतरा” लगा। परिणाम यह हुआ कि भारत में सरकारी तथा गैरसरकारी सर्वाधिक बूचड़खाने हैं तथा गोहत्या ने देश की कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था को लड़खड़ा दिया है।
सरस्वती वंदना का विरोध
इसी भांति भारत में विद्या की देवी सरस्वती की वन्दना को सदैव उच्चतम स्थान दिया गया है। मां सरस्वती का ज्ञान, विद्या व बुद्धि का प्रतीक माना गया है। वेदों में इसको विश्व की कल्याणकारी माना गया तथा सभी ग्रन्थों में इसकी पूजा, उपासना तथा वन्दना की गई है। ऋग्वेद के सातवें मंडल के 95वें तथा 96वें सूक्तों में इसे अज्ञाननाशक, लौह कवच के समान रक्षक, पर्यावरण को शुद्ध करने वाली, आनन्द, ऐश्वर्य, विनम्रता, सौम्यता और मित्र भाव पैदा करने वाली, विद्या प्राप्ति के लिए अभ्युदय तथा निश्रेयस के द्वार खोलने वाली बताया गया है। सरस्वती वन्दना के यही सन्दर्भ आदिकाल से वर्तमान तक उपलब्ध हैं। भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के अनेक प्रसंगों का प्रारम्भ सरस्वती वन्दना से किया जाता रहा। स्वामी विवेकानन्द ने 2 नवम्बर, 1897 को मद्रास में अपने एक शिष्य को लिखा कि शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में उन्होंने अपना भाषण सरस्वती को प्रणाम कर प्रारम्भ किया। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने कलकत्ता के एक कालेज में सरस्वती पूजा करने के लिए धरना दिया था। उन्होंने इसे छात्रों का अधिकार बताया था। आज भी बंगाल तथा बिहार सहित कई राज्यों में सर्वत्र सरस्वती वन्दना प्रचलित है।
यद्यपि यह सत्य है कि स्वतंत्रता के प्रारम्भिक तीन-चार दशकों तक सरस्वती वन्दना की लोक स्वीकृत परम्परा बनी रही। वस्तुत: 1960 के दशक में विश्वविख्यात दार्शनिक तथा प्रसिद्ध शिक्षाविद् डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने शिक्षा के क्षेत्र में इस परम्परा की शुरुआत की तथा इसे बनाए रखा। 20वीं शताब्दी के अंतिम दशक में प्रधानमंत्री इन्द्र कुमार गुजराल, अटल बिहारी वाजपेयी तथा राष्ट्रपति के.आर.नारायणन ने भी इसे अपनाया। पर यह आश्चर्यचकित करने वाला प्रसंग है कि जब 22 अक्तूबर, 1998 को नई दिल्ली के विज्ञान भवन में शिक्षा मंत्रियों का सम्मेलन हुआ तो कांग्रेसी तथा कम्युनिस्ट शासित राज्य सरकार के मंत्रियों ने सरस्वती वंदना पर पहली बार हल्ला मचाया, उसका विरोध किया। उन्होंने सरस्वती वन्दना को साम्प्रदायिक बताया। मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने इसे देश के उदारवादी चरित्र के लिए खतरा बताया। वस्तुत: सरस्वती वन्दना के प्रसंग पर यह विरोध केवल मूर्खतापूर्ण ही नहीं था बल्कि राष्ट्रद्रोही तथा भारतीय संस्कृति का विरोधी भी था। इतना ही नहीं, कांग्रेस सरकार के कुछ नेता तो सेकुलर दिखने की होड़ में इतने आगे बढ़ गए कि उत्सवों पर दीपक जलाने, नारियल फोड़ने में भी उन्हें साम्प्रदायिकता की गंध आने लगी। उपरोक्त घृणित व्यवहार से जहां कांग्रेस की विकृत मानसिकता का पता चलता है, वहीं यह भी ज्ञात होता है कि कांग्रेसी राजनीतिक अवसरवाद की किस सीमा तक जा सकते हैं।
गीता ज्ञान पर अज्ञान
नि:सन्देह वैदिक साहित्य की विश्व के सभी महानतम विद्वानों ने मुक्त कंठ से प्रशंसा की। इसका वैशिष्ट्य इसमें है कि यह साहित्य किसी विशिष्ट स्थान या भू-भाग या संस्कृति के लिए न होकर मानव मात्र के कल्याण के लिए है। इस प्रकार के श्रेष्ठतम ग्रन्थों में श्रीमद्भगवत गीता का स्थान आता है। परन्तु मैकाले, माक्र्स के पुत्रों ने गीता ज्ञान की भी आलोचना की। स्वामी दयानन्द की इसलिए आलोचना हुई कि उन्होंने वेदों की ओर लौटने का आह्वान किया। कांग्रेस के जन्मदाता ए.ओ. ह्यूम ने न केवल आर्य समाज का उपहास उड़ाया बल्कि हवन करने को धन की फिजूलखर्ची बतलाया। स्वामी विवेकानंद की भी इसलिए आलोचना की गई क्योंकि उन्होंने वेदांत को महत्व दिया तथा प्राचीन गौरव की बात कही। महर्षि अरविन्द भी कांग्रेस तथा कम्युनिस्टों की आलोचना का पात्र बने। परन्तु वर्तमान कांग्रेस के लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के महानतम नेता लोकमान्य तिलक की मुख्य प्रेरणा गीता का ज्ञान ही थी। महात्मा गांधी गीता को सर्वोच्च स्थान देते थे। गांधी जी ने स्वयं लिखा कि “यदि मैंने गीता न पढ़ी होती तो अब तक आत्महत्या कर ली होती।” पर अभी हाल ही में मध्य प्रदेश सरकार ने स्कूलों में गीता पढ़ाने का निर्णय लिया तो कांग्रेसियों और ईसाइयों को परेशानी होने लगी। एक पादरी ने मांग की कि यदि स्कूलों में गीता पढ़ाई जाए तो अन्य धार्मिक पुस्तकें भी पढ़ाई जाएं। वे यह भूल जाते हैं कि भारत में अल्पसंख्यकों को अपने विद्यालयों में बाइबिल तथा कुरान पढ़ाने की पहले से ही छूट दी गई है। परन्तु गीता का इस भांति विरोध सर्वथा अनुचित है? क्या कोई पादरी ईसाई देशों में जाकर कहेगा कि गीता पढ़ाओ? क्या कोई मुल्ला-मौलवी मुस्लिम देशों में जाकर कहेगा कि गीता पढ़ाओ। नहीं! यह सहिष्णुता तथा उदात्त चिंतन तो विश्व में केवल भारत में ही है।
उपरोक्त सभी सांस्कृतिक प्रतीकों की आलोचना के पीछे एक मुख्य कारण संस्कृत भाषा तथा संस्कृत ग्रंथों की जानकारी न होना भी है। यह सही है कि पराधीनता के काल में संस्कृत तथा संस्कृत साहित्य को योजनाबद्ध तरीके से अप्रासंगिक बनाया गया। पर मैकाले कभी का मर गया, मैकालेवाद आज भी जीवित है। माक्र्स के मानसपुत्र जहां राजनीतिक हाशिए पर चले गए हैं वहीं मैकाले के मानसपुत्र सर्वाधिक संख्या में कांग्रेस में हैं, इसीलिए भारत के इन सांस्कृतिक प्रतीकों का अपमान करते हैं, इनका तिरस्कार करते हैं।
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