मंथन
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देवेन्द्र स्वरूप
इसी सप्ताह गांधी जी की 142वीं जयंती आकर चली गयी। अपने स्वभाव के अनुसार हमारे राष्ट्र ने खूब शब्दाचार किया, खूब कर्मकांड रचा, गांधी जी से जुड़े प्रतीकों का खूब दिखावा किया। कहीं चरखा यज्ञ हुआ, कहीं चित्र प्रदर्शन लगी, कहीं गांधी स्मृति व्याख्यान हुए। टेलीविजन चैनलों पर “वैष्णव जन तो तेणे कहिये” की धुन बजायी गयी, नमक सत्याग्रह और डांडी मार्च के दृश्य दिखाये गये, गांधी जी पर परिचर्चाएं आयोजित की गयीं। कुछ चैनलों ने तो गांधी जी के बहाने सोनिया गांधी और उनकी पुत्री प्रियंका का स्तुति गान तक कर डाला, उन्हें राष्ट्र के वर्तमान और भावी आशा केन्द्र के रूप में उभारने का प्रयास किया। हम इस बात पर तो गर्वित हुए कि विश्व के अनेक देशों में गांधी जी को उज्ज्वल भविष्य के प्रकाश स्तंभ के रूप में देखा गया, उनकी प्रतिमाएं स्थापित की गयीं, संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव ने उन्हें मानव सभ्यता पर छाये हुए अंधेरे से बाहर निकालने वाले वैकल्पिक मार्ग के रूप में श्रद्धांजलि अर्पित की। पर इस पर लज्जित नहीं हुए कि गांधी जी जैसे महामानव को जन्म देने वाला यह देश आज विश्व के भ्रष्टतम और हिंसक देश की छवि क्यों अर्जित कर रहा है?
युवा जागरण की अनदेखी का प्रयास
गांधी जयंती मनाने की यह औपचारिकता तो हम गांधी जी के जीवनकाल से ही निभाते आ रहे हैं, पर इस वर्ष की गांधी जयंती एक नया अर्थ लेकर आयी है, जिस ओर हमारा ध्यान नहीं गया। अभी एक महीना पहले पूरे भारत में भ्रष्टाचार के विरुद्ध युवा आक्रोश का जो अद्भुत-अद्वितीय दृश्य हमारी आंखों ने देखा वह गांधी जी का पुनर्जन्म कहा जा सकता है, उसे आत्मसात करने का प्रयास हमने नहीं किया, यह गांधी जयंती पर आयोजित औपचारिक कार्यक्रमों में स्पष्ट दिखायी दे रहा था। एक टेलीविजन चैनल पर आयोजित परिचर्चा में भाग ले रहे बुद्धिजीवियों की पूरी कोशिश उस अभूतपूर्व युवा जागरण और उसके प्रणेता अण्णा हजारे के उपहास व आलोचना पर केन्द्रित रही। उस परिचर्चा में आयोजकों ने दिल्ली के रामलीला मैदान पर 19 से 28 अगस्त तक उमड़े विशाल जनज्वार के दृश्यों में से कुछ ऐसे दृश्यों को चुन-चुनकर दिखाया, जिनसे यह धारणा बनती थी कि यह जनज्वार बीयर प्रेमी, शराबी, अनुशासनहीन, निरुद्देश्य युवाओं की भीड़ मात्र थी, जो वहां मुफ्त का भोजन खाने और “पिकनिक” मनाने के लिए आते थे। कार्यक्रम में एक “कैमरामैन” को प्रस्तुत किया गया जिसने 19 अगस्त से प्रारंभ हुए उस महायज्ञ के सभी टेलीविजन चैनलों पर दिखाये गये असंख्य दृश्यों को यह कहकर झुठला दिया कि वे मैदान के बाहर ऊंची ट्रालियों पर चढ़कर ऊपरी दृश्य अपने कैमरों में ले रहे थे जबकि मैंने भीड़ के भीतर घुसकर अपने वीडियो कैमरे से चुने हुए दृश्यों का सवा दो घंटे लम्बा वीडियो तैयार किया। उसका यह कथन सुनकर मुझे 1930 के दशक में एक अमरीकी महिला कैथरिन मेयो की उस पुस्तक का स्मरण हो आया, जिसे उसने “मदर इंडिया” शीर्षक दिया था, पर जिसका मूल उद्देश्य भारत को एक चरित्रहीन, पतित राष्ट्र के रूप में विश्व के सामने प्रस्तुत करना था। गांधी जी ने उसे “एक नाली-इंस्पेक्टर की रपट” कहकर ठीक ही खारिज कर दिया था। इस “कैमरामैन” के कथन से ही स्पष्ट था कि वह वहां अण्णा आंदोलन को बदनाम करने के लिए ही अपने वीडियो कैमरे का इस्तेमाल कर रहा था।
पीड़ादायक विवेचन
इस “कैमरामैन” से भी ज्यादा पीड़ादायक टिप्पणियां परिचर्चा के कुछ सहभागियों की ओर से आयीं। एक सहभागी, जिनका गांधी जी के प्रपौत्र होने के अलावा रक्त से आगे और क्या संबंध है, बोले कि मैं एक कालेज की सभा में गया, वहां लगभग सभी छात्र अण्णा टोपी पहने हुए थे और अण्णा के नारे लगा रहे थे। मैंने उनसे पूछा, आपमें से कितने लोग दोपहिया चलाते हैं तो उनमें से 80 प्रतिशत ने हाथ उठाकर “हां” कहा। मैंने पूछा आपमें से कितने लोग दोपहिया चलाते समय “हैलमेट” पहनते हैं तो केवल 15 प्रतिशत ने हाथ उठाया। फिर मैंने पूछा कि यदि “ट्रैफिक पुलिसमैन” आपको पकड़ता है तो आप चालान कटाते हैं या 100 रुपये की रिश्वत देकर छूट जाते हैं तो सबने हाथ उठाकर कहा कि हम समय बचाने के लिए रिश्वत देकर छूट जाते हैं। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में इतिहास की एक वामपंथी प्रोफेसर को अण्णा से शिकायत थी कि वे अपने भाषणों में गांधी जी के साथ शिवाजी का नाम भी लेते हैं-इन प्रोफेसर की दृष्टि में शिवाजी को भारतीय इतिहास से निकाल दिया जाना चाहिए। वे भूल गयीं कि यदि हिंसा-अहिंसा के आधार पर शिवाजी को इतिहास से निकाला जाएगा तो राम और कृष्ण तथा अनेक महापुरुषों को इतिहास से खारिज करना होगा। इतिहास के प्रति एकांगी दृष्टि रखने वाली इस प्रोफेसर को अपने से यह प्रश्न भी पूछना चाहिए कि यदि वे स्वयं अनशन पर बैठ जातीं तो क्या वे पचास युवाओं को भी प्रेरित व उद्वेलित कर पातीं? अण्णा के व्यक्तित्व में ऐसा क्या है कि उनके अनशन पर बैठने से देश भर में लाखों-लाखों युवा स्पंदित होकर सड़कों पर उतर आये, उन्होंने “मैं अण्णा हूं” अंकित सफेद गांधी टोपी धारण कर ली, तिरंगा हाथ में उठा लिया, उनके कंठों से वंदेमातरम् और भारत माता की जय के नारे गूंज उठे?
गंभीर प्रश्न
कौन है राष्ट्रीय एकता और जागरण के इस महायज्ञ में कूदने वाली यह युवा पीढ़ी? यह वही पीढ़ी है जिसे हमने फैशन, ट्विटर, मॉल, पब और सेक्स की दीवानी पीढ़ी कहकर भारत के भटकाव और पतन का कारण घोषित कर दिया है। चटर-पटर अंग्रेजी बोलने वाली इस युवा पीढ़ी के अचेतन मानस में व्याप्त नैतिकता और राष्ट्र भक्ति की इस सहज स्वत:स्फूर्त अभिव्यक्ति का क्या हमारे राष्ट्रीय कायाकल्प की प्रक्रिया के आरंभ बिन्दु के रूप में स्वागत नहीं किया जाना चाहिए? जो बुद्धिजीवी अपनी बौद्धिकता से दस युवकों को भी अनुप्राणित नहीं कर पाते, उन्हें अण्णा की आलोचना करने से पहले अपने से यह प्रश्न तो पूछना ही चाहिए कि अण्णा के व्यक्तित्व में ऐसा क्या है कि वह इस युवा पीढ़ी को स्पंदित करने का माध्यम बन सके, जो हम नहीं बन पाते? क्या कारण है कि देहात के एक गरीब किसान परिवार में जन्मा, केवल सातवीं कक्षा तक पढ़ा, सेना में ट्रक ड्राइवर की नौकरी से सेवानिवृत्त एक ऐसा व्यक्ति जिसका नाम भी महाराष्ट्र के बाहर लगभग अनजाना था, बिना किसी अखिल भारतीय संगठन की सहायता के अनायास ही भारत की उस युवा पीढ़ी के जागरण का माध्यम बन गया जो स्वयं को “सिविल सोसायटी” कहती है, किंतु जिसे हम पाश्चात्य सभ्यता के प्रवाह में बहने वाला “इंडिया” कह सकते हैं? यह चमत्कार कैसे घटित हुआ कि परंपरागत ग्रामीण भारत का प्रतिनिधि अण्णा हजारे “इंडिया” वाली युवा पीढ़ी के जागरण का केन्द्र बन गया? भारत और “इंडिया” के इस मिलन को हम भारत की नियति का चमत्कार नहीं तो और क्या कहें? क्या उसकी कोई अन्य बौद्धिक कारण मीमांसा संभव है?
गांधी जी और अण्णा
एक महीना पहले जो दृश्य हमने अपनी आंखों से देखे हैं, वे हमें 1915 के उस कालखंड में ले जाते हैं जब सशस्त्र क्रांति का स्वाधीनता आंदोलन लगभग बिखर चुका था, देश निराशा के गत्र्त में डूबा हुआ था,जब गांधी जी स्वभाषा, स्वदेशी, स्ववेष का मंत्र लेकर भारत वापस लौटे थे, अनेक दिग्गज नेताओं के होते पांच वर्ष की अल्पावधि में समूचे भारत के श्रद्धाकेन्द्र बनकर उभर आये थे, और उनके आह्वान पर पहली बार अखिल भारतीय आंदोलन का दृश्य खड़ा हुआ था। गांधी जी की शक्ति उनकी उस साधना में थी जो उन्होंने भारतीय संस्कृति के सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य जैसे श्रेष्ठ जीवन मूल्यों को अपने व्यक्तिगत जीवन में साक्षात करते हुए भारत के सार्वजनिक जीवन में उतारने का संकल्प लेकर आरंभ की थी। वे एक आध्यात्मिक शक्तिपुंज बनकर भारत के सार्वजनिक जीवन में अवतरित हुए थे। अण्णा के व्यक्तिगत जीवन में हमें गांधी जी की प्रतिच्छाया दिखायी दे रही है। गांधी जी के समान अण्णा ने भी समाज सेवा के लिए अपने जीवन को समर्पित करने का संकल्प लेकर अपने गांव रालेगण सिद्धि के आर्थिक, शैक्षिक और नैतिक विकास की रचनात्मक साधना आरंभ की, अन्ना ने ब्रह्मचर्य का व्रत अपनाया, कोई निजी सम्पत्ति जोड़े बिना गांव के मंदिर में जमीन पर सोकर अपरिग्रह का आदर्श प्रस्तुत किया, दलगत राजनीति से अलग रहकर लगभग पच्चीस साल तक महाराष्ट्र राज्य में भ्रष्टाचार के विरुद्ध गांधी जी के अनशन को अपना हथियार बनाया, छह-छह भ्रष्ट मंत्रियों को त्यागपत्र देने के लिए बाध्य किया। अपनी इसी भ्रष्टाचार विरोधी छवि और नैतिक शक्ति को लेकर अण्णा अखिल भारतीय रंग मंच पर अवतरित हुए और सर्वव्यापी भ्रष्टाचार से त्रस्त यह राष्ट्र उनके पीछे खड़ा हो गया। गांधी जी के प्रपौत्र को उस कालेज के युवा छात्रों में यह छटपटाहट, यह आक्रोश क्यों नहीं दिखायी दिया?
गांधी जी जब भारत आये थे तब अधिकांश भारत गांवों में बसा था, आधुनिक सभ्यता के तमाम वर्तमान आकर्षण जैसे फ्रिज, कार, टेलीविजन, कम्प्यूटर, रसोई गैस, मोबाइल आदि या तो अविष्कृत ही नहीं हुए थे या जनसुलभ नहीं थे। समाज का सामान्य चारित्रिक स्तर आज की अपेक्षा बहुत ऊंचा था, विदेशी दासता से स्वतंत्रता पाने की आकांक्षा पूरे समाज के अचेतन मानस में विद्यमान थी। वोट और दल की राजनीति वाला आज का विद्रूप चेहरा समाज पर हावी नहीं था। अत: समाज ने गांधी जी के नैतिक-सांस्कृतिक नेतृत्व को लपक कर शिरोधार्य कर लिया। इस समय जब अण्णा के नेतृत्व में राष्ट्र के कायाकल्प का यज्ञ आरंभ हुआ है तब समाज का चारित्रिक स्तर बहुत गिरा हुआ है, पूरा समाज अपने को भ्रष्टाचार का असहाय बंदी पा रहा है। पश्चिमी तकनीकी ने अर्थ और काम की ऐषणाओं को उद्दीपित करने वाले जो अनेकानेक उपकरण आविष्कृत किये हैं, वे युवा पीढ़ी को सहज ही अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं। पारिवारिक जीवन शैली पूरी तरह बदल चुकी है। पूरा वातावरण शरीर सुख, मनोरंजन और विलासिता की ओर धकेल रहा है। गांव शहरों की तरफ भाग रहे हैं, स्वयं गांवों का शहरीकरण हो रहा है। ऐसे पतनोन्मुख परिदृश्य में सिर्फ इसकी चर्चा करना कि अन्ना आंदोलन में उमड़ी भीड़ में कुछ युवक बीयर और शराब के शौकीन थे, हिंसा की भाषा और प्रतीकों का प्रदर्शन कर रहे थे, भ्रष्टाचारियों को फांसी देने की बात कही जा रही थी, क्या केवल नकारात्मक दृष्टि का परिचायक नहीं है? यह क्यों भुलाया जा रहा है कि पूरे भारत में फैला यह विशाल युवा जागरण पूरी तरह अहिंसक और अनुशासित रहा? आधुनिकता के रंग में रंगी युवा पीढ़ी के द्वारा सामूहिक आचरण का यह उदाहरण क्या भारत की अन्तर्हित नैतिक चेतना का आशादायी संकेत नहीं है?
गांधी जी की पीड़ा
अतीत हमेशा मधुर लगता है और वर्तमान हमेशा कटु एवं दु:खदायी। जो लोग गांधी जी के व्यक्तिगत जीवन और उनके आदर्श वाक्यों की तोता रटंत करके गांधी युग में स्वर्णयुग खोजते रहते हैं, उन्हें समय-समय पर गांधी जी की निराशा और पीड़ा को भी समझने का प्रयास करना चाहिए। यह विषय बहुत बड़ा है। इस लेख के अंतिम चरण में उसके विस्तार में जाना संभव नहीं है। केवल इतना स्मरण दिलाना चाहूंगा कि अक्तूबर, 1934 में कांग्रेस से औपचारिक सम्बंध विच्छेद करते समय गांधी जी ने जो सार्वजनिक वक्तव्य दिया था जिसमें उन्होंने स्वीकार किया था कि 1920 से 1934 तक अनेक सत्याग्रहों, अनशनों और रचनात्मक कार्यक्रमों के बाद भी वे अधिकांश कांग्रेसजनों के मन में अहिंसा, चरखा व अस्पृश्यता निवारण के प्रति आस्था नहीं जगा पाये थे। अक्तूबर, 1935 में एक वक्तव्य में उन्होंने माना कि भारत पूर्णतया अहिंसक नहीं है, न ही उसमें हिंसक प्रतिरोध का सामथ्र्य है, इसलिए नहीं कि वह शस्त्रविहीन है बल्कि इसलिए कि वह वीर नहीं है, उसकी अहिंसा कमजोर की अहिंसा है। विश्व के सामने वह एक पतनोन्मुख राष्ट्र की छवि प्रस्तुत कर रहा है राजनीतिक दृष्टि से नहीं, नैतिक दृष्टि से भी। आजादी मिलने के बाद 2 अक्तूबर, 1947 को अपने जन्मदिवस पर आयोजित प्रार्थना सभा में अपनी निराशा और पीड़ा को उड़ेलते हुए गांधी जी ने कहा, “मेरे लिए तो आज यह मातम मनाने का दिन है। मैं आज तक जिंदा पड़ा हूं इस पर मुझे खुद अचंभा होता है, शर्म आती है। मैं वही शख्स हूं कि जिसकी जुबान से एक चीज निकलती थी कि ऐसा करो तो करोड़ों उसको मानते थे। पर आज तो मेरी कोई सुनता ही नहीं है। मैं कहूं कि तुम ऐसा करो तो कहते हैं, “नहीं, ऐसा नहीं करेंगे। ऐसी हालत में मेरे लिए जगह कहां है और मैं उसमें जिंदा रहकर क्या करूंगा? आज मेरे से 125 वर्ष जीने की बात छूट गई है, 100 वर्ष की भी छूट गई है और 90 साल की भी। आज मैं 79 वर्ष में तो पहुंच गया हूं, लेकिन यह भी मुझे चुभता है।” गांधी जी जैसे महामानव की इस पीड़ा और निराशा की सही कारण मीमांसा करना एक समाज और राष्ट्र के नाते हमारे लिए परम आवश्यक है। बौद्धिक शब्दाचार से अधिक हमें आत्मालोचन करना होगा। द
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