गवाक्ष
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प्रस्तुत शीर्षक श्री विशनचन्द्र सेठ की एक अत्यंत महत्वपूर्ण पुस्तक का नाम है, जिसको पढ़कर मुझे हार्दिक प्रसन्नता और तुष्टि मिली है, क्योंकि मेरे चित्त में अक्सर यह बात उठा करती थी कि जब देश का शीर्ष नेतृत्व कुछ भयावह भूलें करने को उन्मुख था तब आखिर उसी समय उसे चेताया और समझाया क्यों नहीं गया? प्रस्तुत पुस्तक इस प्रश्न का भी समाधान देती है। 150 रु. मूल्य की इस पुस्तक में संकलित लेखों का सम्पादन राष्ट्रवादी चिंतक श्री शिवकुमार गोयल ने किया है और प्रकाशक हैं हिन्दी साहित्य सदन, 2 बी.डी. चैम्बर्स, 10/54 देशबंधु गुप्ता रोड, नई दिल्ली-05। इस पुस्तक के प्रारंभ में दिया हुआ लेखकीय वक्तव्य हमें उस अन्तर्भाव से जोड़ता है जिसके कारण यह प्रकाशन संभव हो सका- “आधुनिक नेताओं ने भारत के प्राचीन गौरवमय इतिहास को योजनाबद्ध बदलने का प्रयास किया। स्वराज्य उपरांत यह सिद्ध करने की चेष्टा की गई कि हमें स्वतंत्रता केवल कांग्रेस के अहिंसात्मक आंदोलन के माध्यम से मिली है।… इस नये विकृत इतिहास में स्वाधीनता के लिए प्राणोत्सर्ग करने वाले, सर्वस्व समर्पित करने वाले असंख्य क्रांतिकारियों, अमर हुतात्माओं की पूर्ण रूप से उपेक्षा की गई।…भारत के कुछ लेखकों ने आर्थिक एवं शासन द्वारा सम्मानित होने के प्रलोभन से विकृत इतिहास का सृजन कर छात्रों के पाठ्यक्रम में बरबस समावेश करा दिया।…” (इसी पुस्तक से) पुस्तक में विविध अराष्ट्रीय चेष्टाओं को निरावरण करने की चेष्टा की गई है ताकि हमारे देशवासी और आने वाली पीढ़ियां सत्य स्थिति का परिचय प्राप्त कर अपना राष्ट्रीय कर्तव्य निश्चय कर भारत की गरिमा को पुन:समृद्ध करने का प्रयास करें।
पुस्तक में संकलित आलेखों के कुछ शीर्षक, उसकी विषय वस्तु और वैचारिक भंगिमा का सहज निरूपण कर देते हैं-ए.ओ.ह्यूम की भारतविरोधी कूटनीति, हमारे नेताओं की कूटनीतिक पराजय, राष्ट्रभाषा का खुला अपमान, कश्मीर के प्रश्न पर नेहरू जी की घातक भूल, चीन के आक्रमण के संदर्भ में श्री विशनचन्द्र सेठ का लोकसभा में 13 अगस्त, 1962 को दिया गया भाषण, प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू से पत्राचार, प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री को पत्र आदि।
इस पुस्तक में संकलित लेखों, भाषणों और पत्रों से स्पष्ट रूप से ज्ञात होता है कि स्वतंत्रता के बाद कई दशकों तक भारतीय लोकतंत्र में सत्ता के सूत्रधारों ने प्रकारांतर से देश में राजतंत्र चलाया, विचारधारा के स्थान पर व्यक्ति पूजा को प्रतिष्ठित किया और तथाकथित लोकप्रियता के प्रभामंडल से आवेष्टित रह लोकहित की पूर्णत: उपेक्षा की। अपनी अहम्मन्यता को बाह्य शिष्टता के आवरण में छिपाकर हितकर परामर्श देने वालों की बात अनसुनी कर दी तथा अपने आसपास चाटुकारों की सभाएं जोड़कर स्वयं को देवदूत घोषित करवाते रहे और स्वयं अपनी छवि पर मुग्ध होते रहे। गोस्वामी जी के नीति वचन हैं-
मंत्री गुरू अरु वैद जो प्रिय बोलहिं भय आस,
राज धर्म तन तीनि कर होई बेगि ही नास।
इस नीति पर न चलने के कारण भारत निरंतर विडम्बनाओं से ग्रस्त रहा और आज भी उबर नहीं पा रहा है। इस आलेख में श्री विशनचन्द्र सेठ द्वारा लोकसभा में 13 अगस्त, 1962 तथा 13 नवम्बर, 1962 को दिये गये भाषणों के कुछ वाक्य उद्धृत करना चाहूंगा। पहले भाषण का यह अंश तत्कालीन दिग्भ्रमित सत्ता पक्ष और कम्युनिस्टों की राष्ट्रद्रोही मानसिकता को प्रतिबिम्बित करता है-
“…हमने सबसे भयंकर भूल बिना सोचे-समझे नेशनल बार्डर तिब्बत को चीन के हवाले करके की है और उसी का आज यह फल है कि चीन हमारी सीमा पर सवार है।…श्री खाडिलकर ने कहा कि वह जमीन बिल्कुल नाकारा है और उसके लिए किसी बड़े मुल्क से लड़ना नहीं चाहिए। तो क्या मैं पूछ सकता हूं कि अगर किसी के माता-पिता बूढ़े हो गए हों और कोई उनकी बेइज्जती करे तो क्या उसे चुपचाप बर्दाश्त कर लेना चाहिए? उनके सम्मान के लिए लड़ना नहीं चाहिए?…कम्युनिस्ट नेता हीरेन मुकर्जी का भाषण सुनकर तो मैं हैरान रह गया। हमारे देश में ऐसे लोग भी रहते हैं जो यह कहते हैं कि देश पर चीन ने चढ़ाई ही नहीं की, कोई आक्रमण ही नहीं किया। यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि इस देश के अंदर ऐसे भी भारतीय नागरिक बसते हैं जो कि ऐसा विचार रखते हैं कि चीन हमलावर नहीं है।”
दूसरे भाषण में श्री सेठ ने बताया है कि 1955 में चीन द्वारा किए गए आक्रमण की बात देश से छिपाकर रखी गई। आज जब निरंतर अखबारों से ज्ञात हो रहा है कि चीन सीमा पर छुटपुट घुसपैठ भी करता रहता है और हमारी अर्थ व्यवस्था को ध्वस्त करने की चेष्टा भी कर रहा है तथा रक्षामंत्री के द्वारा ऐसी भंगिमा प्रदर्शित की जा रही है कि चिंता की कोई बात ही नहीं है, तब ऐसा लगता है कि हम अपने अतीत से कुछ सीखना ही नहीं चाहते। तब (13 नवम्बर, 1962 को) श्री विशनचन्द्र सेठ ने कहा था-
“सन् 1951 में तिब्बत का दान हुआ और सन् 1955 में भारत पर चीन का हमला हुआ, एक तरफ भारत पर चीन का हमला होता है और दूसरी तरफ चीन के प्रधानमंत्री इस देश में पधारते हैं। सन् 1959 में यह बात लोकसभा में बतलाई जाती है कि चीन का हमला सन् 1955 में हुआ था। मैं बड़े आदर के साथ यह प्रश्न करना चाहता हूं कि इस प्रजातंत्र का अर्थ क्या है? क्या कारण था कि देश को चार वर्षों तक अंधेरे में रखा गया? अगर सन् 1959 की बजाय चार साल पहले यानी सन् 1955 में ही आदरणीय प्रधानमंत्री ने देश को बता दिया होता कि चीन ने हम पर हमला किया था तो देश में “हिन्दी चीनी भाई भाई” का नारा न लगता। अगर जनता को इस बात की जानकारी होती तो देश में उस आदमी के लिए, जिसने हमारे देश पर हमला किया है, किसी प्रकार के स्वागत का उत्साह न होता।”
इन भाषणों के अंश उद्धृत कर अब मैं यहां 23 जुलाई, 1962 को सेठ जी द्वारा पंडित जवाहरलाल नेहरू को लिखे गये पत्र का एक हिस्सा उद्धृत कर रहा हूं। हिन्दी के प्रति दुर्भावना से ग्रस्त हमारे प्रथम प्रधानमंत्री ने विशनचन्द्र सेठ की राष्ट्रानुरागिनी पुकार की उपेक्षा की और इतिहास साक्षी है कि शांति के उजले कपोत उड़ाने वाले हाथों ने ही पूरी निर्ममता के साथ हिन्दी की पीठ में खंजर उतरवा दिया। सेठ जी की पंक्तियां हैं-राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रति सरकार की गलत नीति के कारण देशवासियों में रोष व्याप्त होना स्वाभाविक है। विदेशी साम्राज्यवाद की प्रतीक अंग्रेजी को लादे रखने के लिए नया विधेयक संसद में न लाइये अन्यथा देश की एकता के लिए खतरा पैदा हो जाएगा।…यदि आपने अंग्रेजी को 1965 के बाद भी चालू रखने के लिए नवीन विधान लाने का प्रयास किया तो उसका परिणाम अच्छा नहीं होगा। द
अभिव्यक्ति मुद्राएं
खास में खास हो कि आम रहे,
हर किसी से दुआ सलाम रहे।
-नन्दलाल पाठक
वो कल भी परेशान थे हैं अब भी परेशान,
लाचार गरीबों के मुकद्दर नहीं बदले।
उसने भी कभी खुलके मुझे दाद नहीं दी,
मैंने भी गजल के कभी तेवर नहीं बदले।
-राजेश आनन्द असीर
सिमटता टूटता पामाल होता,
मैं भाषा का कलेवर देखता हूं।
-डा.मधुर नज्मी
कर नमस्कार!
* पंकज परिमल
मैं भूख प्यास हूं
रहती हूं
हे मानव तेरे ही भीतर
कर ध्यान
मुझे कर नमस्कार
कर नमस्कार, कर नमस्कार!
मैं शक्ति रूप हूं तेरे ही भीतर
मुझको भी जान जरा
भूखा है जो प्यासा है तू
निरुपाय न रह, निरुपाय न रह
श्री हूं, लक्ष्मी हूं, साहस में-
तेरे, मेरा है वास सदा
इतनी समृद्धि के होते तू
साहस कर उठ, मृतप्राय न रह
माता की वत्सलता बन मैं
तुझमें करती तेरा पोषण
विह्वल होकर
मुझको पुकार
कर नमस्कार, कर नमस्कार!
तुझमें तेरी हूं कांति कि जिससे
निष्प्रभ हो जाए संसृति
हूं बुद्धि, युक्ति को साध जरा
बैठा क्यों कर बल की विस्मृति
जीवन की गति, सांसों की लय
यह दौलत क्या तुझमें कम है
तेरी अनुगामिनि हूं छाया
तू नूपुर बन, मैं हूं झंकृति
मैं भूख अहर्निश खोजों की
सच के अन्वेषण की तृष्णा
हूं शुद्ध ज्ञान की
अमृत धार
कर नमस्कार, कर नमस्कार!
बनकर लज्जा अंकुश रखती
तेरे स्वच्छंद आचरण पर
मैं कुछ कुल की मर्यादा हूं
हूं कुछ विवेक का जाग्रत स्वर
हूं दयाभाव, तेरे बल को
जो क्रूर नहीं होने देता
माया हूं जो सपने में आ
जगने को कर देती तत्पर
पशुता से तुझे उबारुंगी
वह जाति-बोध का गौरव हूं
मुझको निज अंतस में उतार
कर नमस्कार, कर नमस्कार!
यह द्वंद्व युद्ध जो जीतेगा
वो ही होगा उत्तरजीवी
जो द्वंद्वों के भी पार गया
वह भोगेगा संसार नया
बातें मत कर, कर विजित मुझे
मैं तो तेरी दुर्बलता हूं
मुझसे बच तू, दूंगी तुझको
मैं जीने का आधार नया
तू फेंक सुमन या फेंक अश्म
कुमकुम दे या फिर चिता भस्म
मैं तो कर ही लूंगी सिंगार
कर नमस्कार, कर नमस्कार!
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