दृष्टिपात
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पाकिस्तान सकते में
अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई दो दिन (4-5 अक्तूबर) के लिए भारत आए और दोनों देशों की नजदीकियों को और बढ़ाने वाले करार कर गए। अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति और वहां शांति बहाली के लिए आगे होकर कोशिशें करने वाले रब्बानी अभी जुलाई में ही नई दिल्ली हो गए थे। सितम्बर के आखिरी दिनों में उनकी अफगानिस्तान में हत्या कर दी गई, माना जा रहा है कि इसकी साजिश भी पाकिस्तान में ही रची गई थी। पाकिस्तान में मौजूद तालिबानी तत्व काबुल को सुकून में नहीं रहने देना चाहते, साथ ही हिन्दुस्थान से अफगानिस्तान की नजदीकियां भी उन्हें बर्दाश्त नहीं हैं। पाकिस्तानी सत्ता अधिष्ठान का हाथ सदा उनकी पीठ पर रहा है। शायद यही कारण है कि मरहूम रब्बानी के हत्यारों का पता लगाने की काबुल की कोशिशों में पाकिस्तानी मदद नहीं दे रहे हैं। जिहादी हक्कानियों के बचाव में उतरे पाकिस्तानी नेताओं से अमरीका नाराज है। पाकिस्तान को जाने वाला पैसा भी उसने रोक दिया है। उसी अमरीका की फौजें अफगानिस्तान को उसके पैरों पर खड़ा होने में मदद दे रही हैं। भारत सदा से अफगानिस्तान में शांति और विकास का हामी रहा है। अफगानिस्तान में फिलहाल मौजूद अंतरराष्ट्रीय सेनाएं 2014 में लौटने वाली हैं। इसलिए करजई मुंह से भले पाकिस्तान को “जुड़वां भाई” बताएं पर उनका इस्लामाबाद की बजाय नई दिल्ली के साथ सुख-दुख की बतराने आना कोई आश्चर्य पैदा नहीं करता। पाकिस्तान का इस पर भौंहें तरेरना भी हैरानी की बात नहीं है। अफगानिस्तान में भारत की दिलचस्पी उसके गले कभी उतरी ही नहीं।
करजई और मनमोहन सिंह ने आतंकवाद मिटाने और दुनिया के इस हिस्से में स्थायी शांति लाने पर मन की बात साझा की। सुरक्षा के लिहाज से करजई-सिंह ने आपसी सहयोग का करार भी किया जो 2014 के बाद के हालात में अफगानिस्तान को नई उम्मीद बंधाएगा।
उधर अमरीका के विदेश विभाग ने भी अफगानिस्तान-भारत के बीच इस रणनीतिक करार पर खुशी जाहिर की है। उसने कहा कि इस करार से पाकिस्तान के नेताओं को मन में कोई भरम नहीं पालना चाहिए।अंत में बता दें कि अफगानिस्तान- भारत के बीच यह रणनीतिक सहयोग आर्थिक रिश्तों को भी गहराएगा। भारत ने वहां की कई विकास परियोजनाओं के लिए दो अरब डालर निवेश करने का वायदा किया ही हुआ है। दोनों देशों ने हाइड्रोकार्बन और खनिज संसाधनों के विकास के करारों पर भी दस्तखत किए।
नोबल की घोषणा से तीन दिन पहले ही सिधारे कनाडा के वैज्ञानिक रॉल्फ स्टीनमेन
जाते जाते बता गए लंबा जीने का राज
नोबल सम्मान की घोषणा करने वाली समिति को नहीं पता था कि “मेडिसिन” के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम करने के लिए वह जिस वैज्ञानिक रॉल्फ स्टीनमेन का नाम घोषित कर रही है उसकी महज तीन दिन पहले (30 सितम्बर को) ही कैंसर से मौत हो चुकी है। कनाडा मूल के रॉल्फ स्टीनमेन को अमरीका के ब्रूस बियूट्लर और फ्रांस के जूल्स हॉफमेन के साथ नोबल दिया जाना था। रॉल्फ ने शरीर के प्रतिरोधक तंत्र को मजबूत बनाकर उम्र लम्बी करने संबंधी शोध किया था। इतना ही नहीं, उन्हें प्रतिरोधक तंत्र की कोशिकाओं की जिस खोज के आधार पर नोबल देना तय किया गया था, वह खुद भी उसी खोज पर आधारित चिकित्सा करवा रहे थे।
कैंसर से उनकी मृत्यु के तीन दिन बाद नोबल के लिए जब उनके नाम की घोषणा की गई तो साथी वैज्ञानिक हैरान रह गए। उन्होंने नोबल वालों से सम्पर्क किया। नोबल समिति ने तुरंत आपात बैठक बुलाई, क्योंकि यह सम्मान परंपरा से जीवित विभूतियों को ही अर्पित किया जाता रहा है। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि रॉल्फ के लिए निर्धारित 15 लाख डालर का नकद पुरस्कार उन्हीं को दिया जाएगा। उनके कोई परिजन इस सम्मान को स्वीकार करेंगे।
यह भी कोई कम आश्चर्यजनक नहीं है कि लंबा जीने के लिए शरीर के प्रतिरोधक तंत्र की जिन कोशिकाओं की रॉल्फ ने खोज की थी, उन्हीं की वजह से उनका अपना जीवन भी अनुमान से ज्यादा चला था। 68 वर्षीय राल्फ को चार साल पहले “पेनक्रिएटिक कैंसर” हुआ था।
रॉल्फ स्टीनमेन न्यूयार्क में रॉकफेलर यूनिवर्सिटी के सेंटर फार इम्युनोलॉजी एंड इम्यून डिसीजिज के प्रमुख थे।
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