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आज भारत ही नहीं संपूर्ण विश्व आत्महत्या की लगातार बढ़ती दर को लेकर चिंतित है। अभी पिछले ही दिनों पूरे विश्व ने 10 सितम्बर को “विश्व आत्महत्या निवारण दिवस” के रूप में मनाया है। हालांकि विश्व ने आत्महत्या निवारण हेतु 5 से 10 सितम्बर तक इसे पूर्ण सप्ताह के रूप में भी मनाया। इस दिवस को मनाने में अन्तरराष्ट्रीय आत्महत्या निवारक संघ तथा विश्व स्वास्थ्य संगठन प्रमुख भूमिका निभाते हैं। आत्महत्या निवारण दिवस की शुरुआत सन् 2003 में हुई थी। पिछले एक दशक में जैसे-जैसे आत्महत्या की दर बढ़ी है, उसी के अनुपात में भारत के साथ विश्व स्तर पर भी इसके मनाए जाने में तेजी आयी है। इस दिवस के अवसर पर पूरे विश्व में आत्महत्या के निवारण के लिए गोष्ठियां, सार्वजनिक कार्यक्रम, मीडिया के साथ अनेक जनजागरण कार्य किए जाते हैं। साथ ही विश्व में आत्महत्या करने वाले लोगों की स्मृति में “कैंडिल मार्च” भी निकाले जाते हैं। आत्महत्या निवारण दिवस प्रमुख रूप से चार उद्देश्यों को लेकर मनाया जाता है। इसमें पहले स्तर पर लोगों को यह बताना होता है कि आत्महत्या पूर्ण रूप से निवारण के योग्य है। दूसरे स्तर पर लोगों में आत्महत्या के बचाव से जुड़ी शिक्षा का प्रचार-प्रसार करना होता है। तीसरे स्तर पर आत्महत्या के विरोध में वातावरण का निर्माण करते हुए चौथे स्तर पर लोगों की आत्महत्या से जुड़ी नकारात्मक सोच को घटाने का प्रयास करते हुए उन परिस्थितियों पर गहन विचार करना होता है जिनके कारण आत्महत्या की घटनाएं घटित होती हैं। आत्महत्या की बढ़ती दर आत्महत्या से जुड़े आंकड़े बताते हैं कि सम्पूर्ण विश्व में प्रतिदिन लगभग तीन हजार लोग आत्महत्या करते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार आत्महत्या करने वालों का वार्षिक आंकड़ा दस लाख से अधिक है। तथ्य बताते हैं कि पिछले पांच दशक में विश्व स्तर पर आत्महत्या की दर 60 फीसदी तक बढ़ी है। आंकड़ों से यह सच्चाई भी सामने आती है कि डेढ़ दशक पूर्व विश्व में आत्महत्या का जो प्रतिशत 1.8 था, वह अब बढ़कर 2.4 तक पहुंच गया है। जहां तक भारत का प्रश्न है तो यहां भी आत्महत्या से जुड़ी राष्ट्रीय तस्वीर बहुत अच्छी नहीं है। भारत में आत्महत्या से जुड़े आंकड़े बताते हैं कि यहां हर पांच मिनट में एक व्यक्ति आत्महत्या करता है। आत्महत्या से जुड़ी वास्तविकता यह है कि जिस समय एक व्यक्ति आत्महत्या करता है उसी के समानान्तर लगभग 20 लोग आत्महत्या के विफल प्रयास कर रहे होते हैं। भारत में आत्महत्या से जुड़े वास्तविक आंकड़े बताते हैं कि यहां आत्महत्या की दर विश्व आत्महत्या दर के मुकाबले थोड़ी बढ़ी हुई है। स्थिति यह है कि सम्पूर्ण विश्व में कुल आत्महत्या करने वाले लोगों में 20 फीसदी लोग भारतीय हैं। भारत में पिछले दो दशकों की आत्महत्या दर में एक लाख लोगों पर 2.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। भारत में 37.8 फीसदी आत्महत्या करने वाले लोग 30 वर्ष से भी कम उम्र के होते हैं, दूसरी ओर 44 वर्ष तक के लोगों में आत्महत्या की दर 71 फीसदी तक बढ़ी है। भारत की प्रान्तीय स्तर पर आत्महत्या की दर देखने से पता चलता है कि दक्षिण भारत के राज्यों अर्थात केरल, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश और तमिलनाडु में आत्महत्या की दर प्रति एक लाख लोगों पर 15 आंकी गयी है, जबकि उत्तर भारत के राज्यों अर्थात पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार तथा जम्मू-कश्मीर जैसे राज्यों में प्रत्येक एक लाख लोगों पर आत्महत्या की दर मात्र 5 आंकी गयी है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि उत्तर भारत के मुकाबले दक्षिण भारत के राज्यों में आत्महत्या की दर अधिक है। दबाव में जीवन उल्लेखनीय है कि देश में तेजी से बदलते सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण में आत्महत्या करने की प्रवृति बढ़ रही है। आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि देश के आई.आई.टी. व आई.आई.एम. जैसे शिक्षा के उच्च तकनीकी व प्रबंधन संस्थानों तक में छात्रों के बीच आत्महत्या की बढ़ती प्रवृति को लेकर इन संस्थानों के प्रशासन के साथ ही भारत सरकार का मानव संसाधन विकास मंत्रालय भी गहरी चिंता में है। इन संस्थानों में छात्रों के बीच आत्महत्या का आंकड़ा देखने से ज्ञात होता है कि पिछले एक साल में आत्महत्या की 18 घटनाएं घटित हुईं। हालांकि इस संबध में मानव संसाधन विकास मंत्रालय का दावा है कि आत्महत्या को लेकर आई.आई.टी. संस्थान में जो जांच हुईं हैं, उनमें अभिभावकों द्वारा जमीनी सच्चाई को नकारकर छात्र पर उच्च शैक्षणिक व पेशेवर लक्ष्यों को हासिल करने के लिए दबाव डाला जाना प्रमुख कारण है। यही कारण है कि गत 14 सितम्बर की मानव संसाधन विकास मंत्रालय और आई.आई.टी. कांउसिल की एक महत्वपूर्ण बैठक में आत्महत्या के ताजा मामलों के चलते विशेषज्ञों की समिति में पहली बार अभिभावकों को भी शामिल किया गया। सच्चाई यह है कि बच्चों से लेकर किशोर, छात्र, बड़े-बूढ़े, निर्धन, किसान व व्यापारी तक जीवन जीने के मुकाबले मौत को गले लगाना ज्यादा बेहतर समझते हैं। वास्तविकता यह है कि आज लोग प्रतिकूल परिस्थितियों में स्वयं को असहाय समझकर जीवन की वास्तविकता से भाग रहे हैं। लोगों की इस भीड़ में व्यक्ति बिल्कुल अकेला खड़ा है। परिवार, मित्र, संगी-साथी तथा स्कूल जैसी सशक्त संस्थाएं तक आत्महत्या के निवारण में खुद को असहाय महसूस कर रही हैं। यही कारण है कि आज बच्चों, युवाओं, छात्रों, नवविवाहित युवतियों तथा अन्नदाताओं यानी किसानों की असामयिक आत्महत्याएं भी सामाजिक संवेदनाओं का हिस्सा नहीं बन पा रही हैं। आश्चर्यजनक तथ्य तो यह भी है कि यहां पारम्परिक रूप से सुदृढ़ तथा परिवार से जुड़े भावनात्मक ताने-बाने से बने भारत जैसे देश में भी खुदकुशी की चाह लगातार बढ़ रही है। साथ ही लोगों में जीवन जीने का अदम्य साहस कमजोर पड़ रहा है। आत्महत्या के कारक तत्व दरअसल देश के किसी भी कोने में अथवा किसी भी वर्ग के व्यक्ति द्वारा की गई आत्महत्या नि:संदेह इस सामाजिक व्यवस्था की नाकामयाबी पर एक उदाहरण है। आत्महत्या या अपने जीवन से इस पलायन को हम कायरता समझ रहे हैं। परन्तु यह समस्या आज के इस भोगवादी तथा प्रतिस्पद्र्धा भरे माहौल में हमें यह समझने को भी मजबूर कर रही है कि आखिर भारतीय संस्कृति से जुड़े परिवार, प्रेम, नैतिकता, आदर्श, मानदण्ड, स्नेह, वात्सल्य, पारस्परिक बातचीत तथा साझेदारी जैसी सामाजिक संस्थाओं का मानव जीवन में प्रभाव कम क्यों हो गया है? कई बार हम बच्चों, युवाओं, महिलाओं और किसानों के बीच बढ़ती आत्मघाती घटनाओं के लिए परीक्षा में तनाव व दबाव, असफलता, गैरबराबरी, बेरोजगारी, कर्ज न चुका पाने का दबाव व पश्चिम का भोगवाद जैसे कारकों को दोषी ठहराते हैं। पर कड़वी सच्चाई यह है कि ये दशायें तो कमोवेश प्रकारान्तर से प्रत्येक देश व काल में मौजूद रही हैं। परन्तु पहले लोग इतनी बड़ी संख्या में और इतनी जल्दी मौत के सामने हथियार नहीं डाल देते थे। इसका सीधा-सा अर्थ यह है कि आज हमें गला काट प्रतियोगिता के माहौल में व्यक्ति की उस हताशा भरे जीवन की मनोदशा का भी अध्ययन करना पड़ेगा जहां वह जीवन के वास्तविक रूप से मुंह चुराकर जीवन में प्रगति के “शार्टकट” का सहारा ले रहा है। बाहरी दुनिया का भोगवादी आवरण व जीवन की प्रगति के लिए लोगों की देखा-देखी भाग-दौड़ उसके जीवन को हताशा से भर रही है। सच तो यह है कि जीवन में हताशा की शुरूआत तनाव से होती है, जो उसे आत्मघात तक ले जाती है। हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन के अध्ययन में पाया गया है कि भारत में 9 फीसदी लोग लम्बे समय से जीवन में निराशाजनक स्थिति से गुजर रहे हैं। खास बात यह है कि भारत जैसे धार्मिक व आध्यात्मिक देश में 36 फीसदी लोग गम्भीर रूप से हताशा की स्थिति में हैं। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की रपट के मुताबिक 6.5 करोड़ मानसिक रोगियों में से 20 फीसदी लोग अवसाद (डिप्रेशन) के शिकार हैं। ऐसा अनुमान है कि 2020 तक “डिप्रेशन” दुनिया की सबसे बड़ी बीमारी के रूप में उभरकर सामने आयेगा। देश की वर्तमान स्वास्थ्य संबंधी रपट (हैल्थ प्रोफाइल रिपोर्ट) बताती है कि लोग भौतिकतावादी जिन्दगी से प्रभावित होकर अवसाद की ओर बढ़ रहे हैं। यदि लोगों में लगातार बढ़ते तनाव के कारणों की बात करें तो यह सच सामने आता है कि बढ़ती हुई महत्वाकांक्षायें, एक दूसरे से आगे निकल जाने की गलाकाट होड़ तथा मोटी पगार वाली नौकरी की चिन्ता निरन्तर लोगों को सता रही है। प्रेम के प्रति बढ़ता आकर्षण, पारस्परिक सम्बन्धों में धोखा देने की प्रवृत्ति तथा विवाह सम्बन्धों में बढ़ता तनाव और टकराव भी व्यक्ति को तनाव देने वाले प्रमुख कारणों में गिना जा सकता है। यह भी ध्यान रखना होगा कि जीवन में आगे बढ़ने का “शार्टकट मार्ग” सदैव ही मन में अशान्ति और आक्रोश को जन्म देता है। यही वह स्थिति है जहां व्यक्ति छद्म लक्ष्य भ्रम की अवस्था में पहुंचकर लगातार तनाव से मृत्यु को ही अपना लक्ष्य बना लेता है। समाधान भारत के पास ही है कुल मिलाकर आत्महत्या का समाजशास्त्र बताता है कि जब सामाजिक बदलाव के तीव्र दौर में परम्परागत रूप से स्थापित सामाजिक जीवन को संचालित करने वाले मानक अपर्याप्त होने लगते हैं तथा जल्दी से नये समाज के मानक सामाजिक व सांस्कृतिक रूप से स्थापित नहीं हो पाते तो नये माहौल में लोग पहचान के संकट से घिर जाते हैं। यही स्थिति मानसिक अवसाद और हताशा को जन्म देती है, जिसकी अन्तिम परिणति आत्महत्या के रूप में होती है। आत्महत्या निवारण के इस माहौल से बाहर निकलने के लिए हमें उन भारतीय दशाओं को सामान्य बनाना पड़ेगा जिनकी अनदेखी से हम यहां तक पहुंचे हैं। इसका निवारण न तो कानून के द्वारा संभव है और न ही आत्महत्या करने वाले लोगों को समझाने-बुझाने से। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि आज पूरी दुनिया में उदारीकरण व वैश्वीकरण की तेज आंधी चल रही है। आज सारा यूरोप वहां सामाजिक विघटन के चलते नैतिक मूल्यों की वापसी के लिए जनमत तैयार कर रहा है। अमरीका , रूस, चीन तथा जापान जैसे विकसित देशों में असीमित भोगवाद के कारण हुए नैतिक विघटन और परिवार की उपेक्षा पर चर्चा-बहस का दौर जारी है। साथ ही वे बच्चों व बड़ों के दिल-दिमाग से बाहरी दुनिया से आए तनाव व दबाब को कम करने के लिए भारतीय पद्धति के योग, प्राणायाम व ध्यान जैसी विधियों को प्रयोग में ला रहे हैं। एक हम हैं जो भारत के आत्मसंतोष, संयम एवं आध्यात्मिक जीवन शैली से ओत-प्रोत अपने सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास को धीरे-धीरे पश्चिम के हाथों गिरवी रखकर उलटे उनके उपनिवेश का हिस्सा बनते जा रहे हैं। सच बात तो यह है कि आज समाज में प्रेम, स्नेह, परिवार व पड़ोस में स्वजनों व पड़ोसी मित्रों के सुख-दु:ख को मिलकर बांटना, अपने परिश्रम पर पूर्ण भरोसा करना, जीवन में आई चुनौतियों का डटकर मुकाबला करना तथा सफल लोगों की असफलताओं से सीख लेकर ही आत्महत्या के बढ़ते रुझान को काबू में किया जा सकता है। आइए हम भी एक कदम आगे बढ़कर तनाव व दबाब से जुड़े समूहों के नजदीक जाएं। साथ ही इस समस्या के समाधान के लिए भारतीय सांस्कृतिक व आध्यात्मिक पद्धतियों का एक बार फिर से परिचय कराते हुए ऐसे लोगों से बातचीत का एक सिलसिला शुरू करें ताकि विश्व की तुलना में कम से कम भारतीय समाज के परिदृश्य से आत्महत्या रूपी इस बदनुमा दाग को मिटाया जा सके।
(लेखक महाराजा हरिश्चन्द्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय, मुरादाबाद के समाजशास्त्र विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।)
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