गरीबों के साथ क्रूर मजाक
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नई दिल्ली में पहाड़गंज इलाके में चित्रगुप्त रोड है। इस सड़क के किनारे पटरी पर ईश्वरदीन(45) नामक एक मोची 10-12 साल से बैठता है। वह महीने में ज्यादा से ज्यादा 4000 रु.कमा पाता है। किसी दिन 20 रु. का भी काम नहीं आता है, तो किसी दिन 150-200 रु.तक कमा लेता है। बीमारी की वजह से पूरा महीना काम भी नहीं कर पाता है। वर्षों से वह सड़क के किनारे बैठता है और दिनभर धूलभरी हवा में सांस लेता है। इसलिए अनेक बीमारियों से भी जूझ रहा है। जिस दिन ज्यादा तबीयत खराब हो जाती है उस दिन दिहाड़ी मर जाती है। किसी दिन पुलिस वाले किसी कारणवश उसे बैठने नहीं देते हैं, तो उस दिन भी उसकी जेब में एक पैसा नहीं आता है।
ईश्वरदीन उन्नाव (उ.प्र.) जिले का रहने वाला है। दिल्ली में वह एक झुग्गी में 400 रु.प्रतिमाह किराए पर रहता है। उसकी कुल आय 4000 रु. में से 2000-2500 रु.दिल्ली में ही खर्च हो जाते हैं। यानी किसी महीने उसके पास दो हजार, तो कभी डेढ़ हजार रु.बचते हैं। पांच-छह महीने में उसके पास दस-ग्यारह हजार रु.की राशि जमा होती है, तो वह उसे लेकर गांव जाता है। सबसे पहल कर्ज लिए गए पैसे का सूद भरता है और जो थोड़ी राशि बचती है उसे पत्नी को देकर दिल्ली लौट आता है। उसके दो बच्चे हैं। दोनों स्कूल में पढ़ रहे हैं। पत्नी गांव में मनरेगा में मजदूरी करती है। ईश्वरदीन ने बताया कि पत्नी जो कमाती है उससे राशन आता है और स्कूल में बच्चों की फीस भरी जाती है। मेरी कमाई तो कर्ज के सूद में खत्म हो जाती है। कर्ज भाई की बीमारी के इलाज के लिए लिया था। उसकी भाभी और भतीजे बीमारी की वजह से इस दुनिया में नहीं रहे इसलिए बड़े भाई ईश्वरदीन के साथ ही रहते थे। इसी साल मई महीने में वे भी बीमार हुए। एक महीने तक इलाज चला पर वे बीमारी से हार गए और जून 20011 में इस दुनिया को छोड़ गए। ईश्वरदीन ने बताया मेरे “बड़े भाई की लाश पर कफन डालने के लिए भी मेरे पास पैसे नहीं थे। गांव वालों की मदद से अंतिम संस्कार तो हो गया पर अभी तक उनका श्राद्ध नहीं हो पाया। सोचता हूं दीवाली से पहले भाई का श्राद्ध करवा दूं ताकि घर में लक्ष्मी पूजन हो सके। किंतु घर जाने लायक पैसा जमा नहीं हो पा रहा है। महंगाई की वजह से बचत बहुत कम हो रही है।”
देश में ईश्वरदीन जैसे गरीबों की संख्या करोड़ों में है। किंतु भारत सरकार की नजर में ये लोग अब गरीब नहीं रहेंगे। अगर सरकार की मनमानी यूं ही चलती रही तो ईश्वरदीन जैसे गरीबों को गरीबी उन्मूलन के लिए चल रहीं योजनाओं का लाभ नहीं मिलेगा। ऐसे लोगों को न तो इंदिरा आवास का लाभ मिलेगा और न ही सस्ता अनाज। बीपीएल (गरीबी रेखा के नीचे) सूची से भी इनके नाम हट जाएंगे। ऐसा इसलिए हो रहा है कि सरकार शहरी क्षेत्र में रहने वाले उस व्यक्ति को गरीब नहीं मानती है, जो प्रतिदिन 32 रु.खर्च करता है। जबकि ग्रामीण क्षेत्र में प्रतिदिन 26 रु.खर्च करने वालों को भी सरकार गरीब की श्रेणी में नहीं रखना चाहती है। गरीबी की यह नई सरकारी “परिभाषा” योजना आयोग के माध्यम से बाहर आई है। आयोग के उपाध्यक्ष मोन्टेक सिंह अहलूवालिया कहते हैं यह परिभाषा तथ्यों पर आधारित है इसलिए बिल्कुल ठीक है। किन्तु अर्थशास्त्री इस परिभाषा को सिरे से नकार रहे हैं। दरअसल भारत सरकार उभरती अर्थव्यवस्था का जो जुमला गढ़ रही है उसमें गरीब और गरीबी कालीन में पैबन्द की तरह नजर आते हैं, इसलिए संप्रग सरकार अपनी नाक बचाने के लिए आंकड़ों में गरीबी का खात्मा करने पर तुली है।
पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार से पूछा था कि गरीबी की परिभाषा क्या है? इसके जवाब में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में काम करने वाले योजना आयोग ने सर्वोच्च न्यायालय में शपथपत्र दाखिल कर कहा कि शहर में रहने वाला कोई व्यक्ति मासिक 965 रु. और कोई ग्रामीण प्रतिमाह 781 रु.खर्च करता है, तो वह गरीब नहीं है। अर्थशास्त्री डा.अनीता मोदी कहती हैं, “आजकल शहरों में 32 रु.में तो एक वक्त का भी पौष्टिक खाना नहीं मिलता है। सरकार गरीबों के साथ क्रूर मजाक कर रही है। सरकार यह मजाक सिर्फ इसलिए कर रही है कि गरीबों के लिए चलाई जा रहीं सरकारी योजनाओं को वह सार्थक सिद्ध करना चाहती है। सरकारी योजनाओं को जबरदस्ती कामयाब बताने के लिए इस सरकार ने अर्जुन सेनगुप्ता आयोग की उस रपट को भी झुठला दिया है, जिसमें कहा गया है कि देश में 75 प्रतिशत ऐसे लोग हैं, जो रोजाना 20 रु. या उससे कम पर गुजारा करने को मजबूर हैं। यहां सवाल उठता है कि लोग अर्जुन सेनगुप्ता आयोग की रपट को सही मानें या योजना आयोग की इस नई परिभाषा को?”
योजना आयोग यह भी मानता है कि शहर या गांव में रहने वाला एक व्यक्ति क्रमश: 32 एवं 26 रु. में खाना तो खा ही लेगा साथ ही साथ उसकी शिक्षा और चिकित्सा का खर्च भी पूरा हो सकता है। ऐसी बेतुकी दलील देने वाले योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया स्वयं औसतम हर रोज 11,354 रु. विदेश यात्रा पर खर्च करते हैं।
जो लोग गरीबी की नई “परिभाषा” गढ़ रहे हैं, वे लोग दिनभर में सरकारी खर्चे पर करीब 100 रु. का पानी और लगभग 150 रु. की चाय या कॉफी पी जाते होंगे। खाने पर कितना खर्च करते होंगे, इसका अंदाजा भी एक आम आदमी को नहीं है। इनके रहने के लिए वातानुकूलित सरकारी कोठी है, चलने के लिए लालबत्ती लगी सरकारी गाड़ी है। देश-विदेश में घूमने के लिए सरकारी खजाना खुला रहता है। ये बीमार हो जाएं तो इलाज के लिए तुरंत लंदन या न्यूयार्क के लिए उड़ जाएंगे। इनके बच्चे देश-विदेश के महंगे शिक्षण संस्थानों में पढ़ते हैं। ऐसे लोगों की चल-अचल सम्पत्ति भी सालों-साल बढ़ती जाती है। फिर भी महंगाई की दुहाई देकर अपनी तनख्वाह और भत्ता एक झटके में दुगुने से भी अधिक बढ़ा लेते हैं। और जो वास्तव में गरीब हैं उनके लिए इस कमरतोड़ महंगाई के दौर में भी ये लोग कहते हैं 32 रु. और 26 रु.तुम्हारे लिए बिल्कुल ठीक हैं। यह विडम्बना नहीं तो और क्या है। दरअसल यह गरीबों के साथ क्रूर मजाक है। हां, भारत में एक स्थान है जहां 32 रु. से भी कम में विविध व्यंजनों भरा सुस्वादु भोजन आसानी से उपलब्ध हो जाता है, वह है संसद की केंटीन, जहां देश के नीति-नियंताओं को यह सुविधा मिलती है।
करोलबाग इलाके में एक झुग्गी में रहने वाला अविनाश कुंडु 20 साल से वजीरपुर में एक कारखाने में मैकेनिक है। मैट्रिक पास कुंडु कहता है, “गीता में कहा गया है कर्म करो, फल की इच्छा मत रखो। एक दिन फल जरूर मिलेगा। फल मिलता भी है, पर उसको बड़े व्यवसायी और नेता हड़प लेते हैं। 20 साल से 12 घंटे काम कर रहा हूं। किंतु अभी भी मुझे सिर्फ 6000 रु. मिलते हैं। जबकि मेरे मालिक, जो एक राजनीतिक दल से जुड़े हैं, लखपति से अरबपति बन चुके हैं। पहले उनके पास एक छोटा-सा घर था, अब कई घर और गाड़ियां हैं। पर मेरे पास अभी भी कुछ नहीं है। 20 साल से एक झुग्गी में रह रहा हूं और लगता है अब इसी में प्राण भी छूटेंगे। सरकार हम जैसों को गरीब नहीं मानेगी तो फिर इस देश में गरीब है कौन?।”द
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