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भूलता युगगान तुझको ही सदा तुझसे निकल कर-2

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Feb 3, 2008, 12:00 am IST
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दिंनाक: 03 Feb 2008 00:00:00

प्रियजनों के बीच “दद्दा” के नाम से विख्यात इलाहाबाद उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री वीरेन्द्र कुमार सिंह चौधरी गहन अध्येता, विचारक व लेखक हैं। बाल्यकाल से ही स्वयंसेवक श्री चौधरी रा.स्व.संघ के पूज्य सरसंघचालक रज्जू भैय्या के अभिन्न मित्रों में से एक रहे। संघ दृष्टि से उनके पास सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश के क्षेत्रीय संघचालक का दायित्व भी रहा। वर्तमान में वे क्षेत्रीय कार्यकारिणी के सदस्य हैं। उन्होंने “कालचक्र: उत्तर कथा”, “कालचक्र: सभ्यता की कहानी”, “बीते समय की प्रतिध्वनि” तथा “विधि के दर्पण में सामयिक व सनातन प्रश्न” जैसी चर्चित पुस्तकें भी लिखी हैं। श्री चौधरी ने भारतीय कानून व्यवस्था पर जो बहुचर्चित पुस्तकें लिखीं वे हैं- “ए कमेंट्री आफ एसोशिएट कमोडिटी एक्ट 1950”, “यू.पी. कन्सालिडेशन आफ होÏल्डग एक्ट” तथा “द आइवरी टावर- 51 ईयर आफ सुप्रीम कोर्ट”। जीवन के 80 दशक पार कर चुके वीरेन्द्र जी नियमित रूप से शाखा जाते हैं और उनका लेखन कार्य भी अनवरत है। यहां प्रस्तुत है उनके शोधपरक आलेख का द्वितीय व अंतिम भाग–वीरेन्द्र कुमार सिंह चौधरीवरिष्ठ अधिवक्ता, इलाहाबाद उच्च न्यायालयभारतीय चिंतन ही नए विश्व का बीज मंत्रआज सर्वत्र प्रजातंत्र की चर्चा है। “प्रजातंत्र” शब्द पश्चिम की उपज है क्योंकि वहां निरंकुश, अत्याचारी शासक थे। उनके विरुद्ध प्रजा ने एक दिन विद्रोह किया और अपना तंत्र कायम किया। पर प्राचीन भारत में ऐसे शासक नहीं थे। यहां शासक अपने गुणों के कारण चुने जाते थे। कहीं-कहीं अस्त्र-शस्त्र की स्पर्धा द्वारा और कहीं शास्त्रार्थ के द्वारा। हमने अपनी पद्धति को “गणतंत्र” कहा अर्थात् “मत गिनकर शासन”। गण में सर्वव्यापी समता होती है, जन्म से तथा कुल से। इस कारण गण किसी प्रकार तोड़े नहीं जा सकते- न शौर्य से, न चालाकी से, न रूप के जाल से। शत्रु केवल भेद उत्पन्न कर इनमें फूट डालकर इनके ऊ‚पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। इन गणराज्यों को इसीलिए अपराजेय कहा गया है। इनकी शक्ति आन्तरिक समता में है।यह गणतंत्र के विचार भारत से सुमेर (बाइबिल में वर्णित “शिन्नार”) होकर ग्रीस (यवन देश) जा पहुंचे। कितना छोटा सा समय था, जिसे उस देश का स्वर्ण-युग कहा जाता है। तब हर नगर को स्वायत्त शासन मिला। गुलामों को स्वतंत्र नागरिक का अधिकार देने की प्रक्रिया भी प्रारम्भ हुई। तब वहां सुकरात, अरस्तू व प्लेटो सरीखे मुक्त चिन्तन करने वाले दार्शनिक पैदा हुए। तब यवन साहित्य में संसार प्रसिद्ध नाटक तथा काव्य आदि, जिसे सर्वश्रेष्ठ साहित्य कहा गया, का सृजन हुआ। तभी भारत की महिमा की ख्याति फैली जिससे आकर्षित होकर सिकन्दर (अलक्षेन्द्र) ने भारत की ओर कदम बढ़ाया। एक छोटा कालखण्ड, जिसका सिकन्दर व मखदूनिया की महत्वाकांक्षा में अवसान हो गया।भारत ने गणतंत्र पद्धति विकसित की और सब छोटे-छोटे क्षेत्रों को स्वायत्त शासन दिया। जनपद (जिला पंचायतें) व पौर (नगर पंचायतें) प्रारम्भ कीं। गांव-गांव में स्वायत्त शासन आया। इससे भी बढ़कर भिन्न-भिन्न श्रेणी, व्यापारी व कारीगरों को भी अपने कार्य में स्वायत्त शासन दिया। यह गणतंत्र किसकी देन है संसार को? कौन है इसका उद्गाता?0 0 0कहा जाता है कि किसी समाज में स्त्री व बच्चों की दशा उनकी सभ्यता की स्थिति दर्शाती है। सभी “सेमेटिक” यानी सामी सभ्यताओं में स्त्री को व्यक्ति नहीं माना गया। अर्थात् वह सम्पत्ति थी। बाइबिल की कहानी है, जो मुस्लिम जगत में भी मान्य है, कि भगवान ने आदम की पसली से उसके मनोरंजन के लिए हव्वा बनाई। तर्क था, जो मानव के एक अंग से बनी है, वह पूर्ण कैसे हो सकती है?प्राचीन पश्चिमी या अंग्रेजी विधि में जब किसी स्त्री का विवाह होता था तो उसकी कुल जायदाद उसके पति की हो जाती थी। क्योंकि वह स्वयं पति की सम्पत्ति बन जाती थी। यह उस समय तक चला जब तक “विवाहित महिला सम्पत्ति अधिनियम 1870” पारित नहीं हुआ। भारतीय सभ्यता से संबंध आने पर यह संभव हो पाया। कई यूरोपीय देशों में स्त्री का सम्पत्ति में धारणाधिकार सीमित है। जबकि प्राचीन हिन्दू विधि में “स्त्री के सीमित अधिकार” नाम का कोई नियम न था।यूरोप में लगभग दो शताब्दियों पूर्व स्त्री-स्वातंत्र्य का आन्दोलन प्रारम्भ हुआ। उसकी दो शताब्दियों की संघर्ष-गाथा है। स्त्री ईसाई जगत में व्यक्ति नहीं थी, इसलिए इंग्लैण्ड में वह किसी कालेज में भर्ती नहीं हो सकती थी। कारण, वहां कानून में था कि कोई व्यक्ति, जो “मैट्रिक पास है (यह प्रवेश परीक्षा मानी जाती थी), कालेज में भर्ती हो सकता था। पर चूकि वह “व्यक्ति” न थी, इसलिए उसे किसी कालेज में प्रवेश नहीं मिल सकता था। न वह वकील बन सकती थी, न “डाक्टर” और न ही “प्रोफेसर”। उसे मत (वोट) देने का भी अधिकार न था। यूरोप के अनेक देशों में स्त्री को मत देने का अधिकार 1971 में मिला। अनेक मुस्लिम देशों में यह आज तक भी नहीं है। स्त्री किसी प्रशासनिक पद पर नियुक्त नहीं हो सकती थी, न ही चुनी जा सकती थी। उसे सार्वजनिक जीवन में तरह-तरह की उपेक्षाओं से जूझना पड़ता था।बुर्के की कारा में आबद्ध मुस्लिम जगत में तो स्त्री की और भी दयनीय दशा है। विवाह व तलाक में वह पति की स्वेच्छाचारिता की शिकार है। अंग्रेजी विश्वकोश के अनुसार मुस्लिम देशों में महिला की श्रमिक, उद्योग-धंधों, सार्वजनिक जीवन और प्रशासनिक कार्यों, देश-समाज के निर्णयों, कला-विज्ञान-दर्शन आदि सभी क्षेत्रों में सहभागिता नगण्य है। उसके अनुसार मुस्लिम समाज में लगभग 6 बच्चे प्रति स्त्री का औसत है, जबकि अन्य समाजों में औसतन एक या दो बच्चे प्रति स्त्री है।कम्युनिस्टों के आदि-ग्रंथ “साम्यवादी घोषणा पत्र” (कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो) में कौटुम्बिक सम्बंधों को “बुर्जुआ बकवाद” कहकर स्त्री को सम्पत्ति के समान ही माना है।भारत में प्रारंभ से ही मातृ प्रधान सामाजिक प्रणालियां थीं, जहां स्त्री को पुरुषों से अधिक अधिकार थे। स्त्री की युद्ध व शान्ति में, सामाजिक जीवन और प्रशासनिक कार्यों में, श्रम और उद्योग धन्धों में, सभी जगह सहभागिता थी। ऋग्वेद में स्त्री ऋषि रचित ऋचाएं हैं और कई स्त्रियों का ऋषियों में नाम आता है। उन्हें प्राचीन गणराज्य में पुरुष के समान अधिकार प्राप्त थे। बच्चे तो सभी सभ्यताओं में (रोमन कानून में भी) पिता की सम्पत्ति माने जाते थे। प्राचीन हिन्दू विधि में तो वे स्वतंत्र इकाई थे और सम्मिलित कुटुम्ब की जायदाद में उन्हें जन्म से ही (यही नहीं, मां के गर्भ में आने से ही) अधिकार मिल जाते थे। फिर स्त्री-स्वातंत्र्य और बच्चों के भी अधिकार आखिर किसकी देन हैं?0 0 0सबसे बड़ा विचार आन्दोलन “समता” की कल्पना को लेकर चला। सारे संसार ने इसे “एकरूपता” में देखा। मानव ने तृषित नेत्रों से जितना इसे पाना चाहा, उतना ही यह छलावे के भांति दूर भागता गया। क्योंकि इसे गलत स्थान पर खोजा गया। मतान्तरण करने वाले ईसाई व मुसलमान पंथों ने सोचा सब ईसाई हो जाएं या मुसलमान हो जाएं तो देश में समता आएगी। पर ईसाई व मुस्लिम देश आपस में लड़े-कटे। इसी प्रकार कम्युनिस्ट जीवन भी उनके आदि देश से बिदा हो गया, उसके अनेक टुकड़े हो गये, पर “समता” नहीं आई। हिन्दू व्याख्याकारों ने कहा कि समता “एकरूपता” में नहीं है, वह “समरसता” में है। साथ की सभी उंगली बराबर नहीं होतीं, पर उनमें समता है। क्योंकि सभी उंगलियों में एक ही जीवन-रस बहता है। समता एकता को जन्म देती है। इसी से मुट्ठी में एकता की शक्ति है।0 0 0आज प्रदूषण भयानक गति से छा रहा है। बढ़ती जनसंख्या और उसके अनुपात में कई गुना बढ़ता प्रदूषण और गन्दगी की समस्या मुंह बाए खड़ी है। पाश्चात्य चिन्तन के अनुसार प्रकृति पर विजय प्राप्त करना सभ्यता का प्रथम सोपान है। यह विचार इसलिए आया कि उनके दर्शन में प्रकृति एक स्त्री है। उसे मुट्ठी में रखना उनकी सभ्यता की कल्पना है। पर भारतीय विचार भिन्न है। हमने प्रकृति को माता माना। राजा पृथु ग्राम-नगर आदि सभ्यता लाए। तब कहा “प्रकृति के प्रति मित्रता ही नहीं, माता के समान उसके प्रति मानव की भक्ति चाहिए। उसे नष्ट न करें।” यही आज के पर्यावरण के सन्दर्भ में मंत्र बना। आखिर आज पर्यावरण को प्रदूषण व गन्दगी से बचने का विचार किनका था? किसने इसका उपाय सुझाया?व्यक्तिगत स्वतंत्रता का भी एक आन्दोलन चला है, जिसने अनेक नवोदित राज्यों के संविधान में स्थान पाया। महाभारत के बाद विक्रम संवत पूर्व सातवीं व छठी शताब्दियां श्रमण सम्प्रदाय के गहन विचार मंथन का समय था। इन्हीं के मुक्त चिन्तन के सुफल थे जैन व बौद्ध मत। इन सबने तर्क के आधार पर वेदों की व्याख्या की। भारतीय दर्शन में सामाजिक अनिवार्यता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता एक-दूसरे की पूरक हैं। परन्तु संसार के तीन बड़े पंथ (ईसाई, मुसलमान व कम्युनिस्ट) समझते हैं कि इनमें संघर्ष अवश्यंभावी है। इसलिए इन्होंने व्यक्तिगत स्वतंत्र चिन्तन पर अंकुश लगाया और एक प्रकार की मानसिक गुलामी लादी। सत्ता का केन्द्रीकरण और मजहब की जोर-जबरदस्ती और क्रूरता का शिकार बनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता। जरा सोचें सुकरात को इसी विचार स्वातंत्र्य के कारण जहर का प्याला मिला और अरस्तू को भागकर जान बचानी पड़ी। पर भारत में क्या हुआ?समाज-रूपी वृक्ष अनेक शाखा, उपशाखा में पल्लवित हो, सबका समादर हो, यह विचारों की स्वतंत्रता का सुफल है। आखिर विचारों की स्वतंत्रता किनके जीवन की साख बनी?0 0 0भारत के हिन्दू जीवन की विविधता और उसके अन्दर पिरोया एकता का सूत्र विस्मयकारी है। यह एक चमत्कार है। इधर कुछ शताब्दियों से जिन वैचारिक हलचलों ने मानव को आलोड़ित किया, जिन्होंने मानसिक जगत में उथल-पुथल मचाई उनके उद्गम खोजें तो लगेगा कि वे इसी हिन्दू जीवन से निसृत हुई। कहां से आ रही यह मानवता की पुकार?हिन्दू दर्शन प्रथम सृष्टि व मानव के अवतरण से लेकर मानव-सभ्यता का आदि देश और प्राचीन सभ्यताओं की एक विचार गाथा है। यह भारतीय अथवा हिन्दू संस्कृति की कहानी है। प्राचीन भारतीय जीवन व संस्कृति की विज्ञान व मानविकी के क्षेत्र में उपलब्धियां व देन क्या हैं? अब यह कथा शेष रहती है कि कैसे और क्यों यह सभ्यताएं सूख गयीं और क्यों उनकी प्रेरणा का स्रोत नष्ट हो गया? उसके बाद सभ्यताओं के संघर्ष में कैसे यूरोप में पुनर्जागरण का युग आया? क्यों भारत की खोज प्रारम्भ हुई? क्यों आये यहां नृशंस लुटेरे? सभ्यता के स्तर पर उनके निराकरण के क्या प्रयत्न हुए? और सबसे बढ़कर संसार ने आधुनिक वैचारिक हलचलों का उद्गम कहां है और क्या कहती हैं ये हलचलें?मेरा विचार है कि “तीन प्रकार की सामी (सेमेटिक) लहरों ने इस विश्व के मन को छूती मानव संस्कृति के अवशेष समूल नष्ट करने का यत्न किया। कैसे ये लहरें मानवता के लिए आवश्यक वैचारिक स्वतंत्रता की संहारक बनकर आयीं, एक पैगम्बर व एक किताब और उसके लिए मस्तिष्क बन्द कर दुराग्रह से। ऐसी तीन विश्वव्यापी लहरें ईसाई (चर्च), इस्लाम व कम्युनिस्ट पंथ की आयी। इन्होंने अपना शासन पंथ के लिए चलाया।” कोई सभ्यता, जो इस प्रकार का दुराग्रह ले शासन व साम्राज्य के सहारे चले, उसने मानवता का विनाश ही किया है। इन तीन सामी लहरों ने अनेक शताब्दियों से अपने मन में दुनिया की बन्दर बांट कर रखी है। “इतिहास में जो युद्ध व अन्य विभीषिकाएं उत्पन्न हुईं वे मूल रूप में इन तीन पंथों का मानव जाति पर कब्जा करने का षडंत्र है। जो उनके पंथ के नहीं वह काफिर हैं और जो उनके पंथ का देश नहीं वह उनके लिए घृणा पात्र “दारुल हरब” है।” सम्मान रखा वह देश संसार का गौरव हैं। “पिछली दो-तीन शताब्दियों की वैचारिक हलचलें उक्त तीनों विनाशकारी शक्तियों के संत्रास से उत्पन्न उनकी संकरी घाटियों में मानवती की पुकार है। अतीत में भारतीय संस्कृति ने मार्ग व त्राण सुझाया था। इन हलचलों में आज उसी की प्रतिध्वनि सुनायी दे रही है और युगगान बनकर उसकी प्रतीति जगा रही है, जैसे कोई नया विचार हो। वास्तव में सत्य तो यह है कि ये विचार आन्दोलन भारत से कह रहे हैं- “भूलता युगगान तुझको ही सदा तुझ से निकल कर।”13

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