|
संभवत: माघ मेले के इतिहास में यह पहला अवसर था जब सैकड़ों संत-महात्माओं ने गंगा के प्रदूषण युक्त प्रवाह में स्नान से इंकार कर दिया। गंगा के प्रवाह को टिहरी में अवरुद्ध किये जाने से चिन्तित स्थानीय संतों और हिन्दू जागरण मंच ने माघ मेला प्रारम्भ होने के एक माह पूर्व ही आन्दोलन शुरू किया था। लेकिन उस समय प्रशासन ने उनका आन्दोलन यह आश्वासन देकर समाप्त करा दिया था कि माघ मेले में स्नान हेतु पर्याप्त व स्वच्छ जल उपलब्ध होगा, लेकिन यह आश्वासन मेला प्रारम्भ होने पर झूठा साबित हुआ। मेले में आये संतों ने गंगा की धारा में पर्याप्त व निर्मल जल के अभाव में पौष पूर्णिमा व मकर संक्रांति स्नान का बहिष्कार करते हुए आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया। धर्माचार्यों, साधु-संत, दण्डी स्वामियों ने 15 जनवरी को संकल्प लिया था कि यदि 24 जनवरी तक “अविरल धारा-निर्मल धारा” का संकल्प पूरा नहीं हुआ तो वह माघ मेला का बहिष्कार कर देंगे। लेकिन सरकार द्वारा आश्वासन के बावजूद जब नरोरा बांध से 450 क्यूसेक गंगाजल नहीं छोड़ा गया तो संत अवाक् रह गये। ज्योतिष्पीठ के शंकराचार्य स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती के संरक्षण में टीकरमाफी आश्रम के स्वामी हरि चैतन्य द्वारा चलाये गये आन्दोलन में संतों ने प्रशासन का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए मेले में जन जागरण यात्रा निकाली, संतों और श्रद्धालुओं से हवन सामग्री एकत्र कर 26 जनवरी को गंगा तट पर यज्ञ एवं पूजन किया, अपने स्नान बहिष्कार की सीमा बढ़ाते हुए 28 जनवरी तक ले गये लेकिन शासन द्वारा संतों की मांग पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। यही नहीं तो प्रयाग संगम के पूर्व गंगा की धारा में स्थानीय रसूलाबाद व सलोरी नाले का गन्दा जल-मल भी अनवरत बहता रहा। आक्रोशित संतों ने 28 जनवरी यानी मौनी अमावस्या की पूर्व संध्या पर निर्णय लिया कि वह माघ मेले का बहिष्कार नहीं करेंगे परन्तु प्रदूषण युक्त जल में स्नान नहीं करेंगे। 29 जनवरी को सैकड़ों साधु- संत एवं शंकराचार्य स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती गंगा तट पर आचमन, पूजा-अर्चना, गंगा-आरती करने के बाद “गंगा मइया” का जयकारा लगाते हुए अपने शिविरों में बिना स्नान के वापस आ गये और इस तरह माघ मेले का यह अपना एक अलग ही इतिहास बन गया।
26
टिप्पणियाँ