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– डा. रेणु किशोर
प्राध्यापिका, मनोविज्ञान विभाग, दौलतराम महाविद्यालय, दिल्ली
आज लोगों के सामने अनेक समस्याएं हैं, विशेषकर शहरी लोगों के सामने। कोई इन्सान अभी सोया ही रहता है कि पत्नी आकर कहने लगती है, “अजी सुनो नल में पानी नहीं आ रहा। कल भी शाम को पानी नहीं आया था। पूरी टंकी खाली है।” अब वह बेचारा परेशान होने लगता है। कहां से पानी लाएं, स्कूल-दफ्तर का समय होने जा रहा है। इस तरह की न जाने कितनी बातें उसके मन में घूमने लगती हैं। सोचते-सोचते वह तनाव महसूस करने लगता है। इसी तनाव में वह दफ्तर के लिए निकलता है। बस या रेलगाड़ी में भीड़ के कारण उसका तनाव और बढ़ता जाता है। इसी दौरान यदि किसी ने कुछ कह दिया तो मार-पीट की नौबत आ जाती है। इतना होने के बाद तो वह दफ्तर पहुंचता है। वहां कार्य का दबाव होता है और कभी बोस की फटकार भी सहनी पड़ती है। इतना सब होने के बाद भी वह कुछ बोल नहीं सकता। यानी उसका गुस्सा अन्दर ही अन्दर घूमता रहता है। दिनभर की परेशानी के बाद जब वह शाम को पसीने से लथपथ होकर घर पहुंचता है तो बिजली गायब रहती है। तिस पर पत्नी या बच्चे की कोई मांग हो जाती है तो फिर उसका गुस्सा फूट पड़ता है। इन्हीं परिस्थितियों में घरेलू हिंसा शुरू होती है। जीवन की आपाधापी इतनी बढ़ चुकी है कि एक इन्सान के पास सुख-शान्ति नहीं रह गई है। जब मैं पढ़ती थी उस समय टी.वी. नहीं था, कम्प्यूटर नहीं था। पर अब 100 से अधिक टी.वी. चैनल हैं। इन सबका भार हमारे दिमाग पर बढ़ रहा है। यह भी करना है, वह भी करना है, पर होता कुछ नहीं है। लोग सोचने लगते हैं कि वे अपने साथ न्याय नहीं कर पा रहे हैं। इस कारण हीनता की भावना और खीझ पैदा होती है।
गुस्सा अवसाद का एक रूप है। बहुत ज्यादा चिड़चिड़ाहट होना, कभी खुश न रहना, परेशान रहना आदि एक तरह के मानसिक विकार ही हैं। लेकिन हमारे देश में मनोवैज्ञानिक के पास जाना शर्मनाक बात मानी जाती है। इसलिए लोग घरेलू इलाज करते रहते हैं। लेकिन मैं कहना चाहूंगी कि तनाव से गुजरने वालों को अपने व्यस्ततम समय में से थोड़ा समय ध्यान-योग में लगाना चाहिए। वार्ताधारित
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