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– डा. तारादत्त “निर्विरोध”टूटा-सा कुछ अन्दर लगता,मुझको अपना ही डर लगता।आंखों का होना क्या माने,जब अंधापन बाहर लगता।जैसे काट दिया हो धड़ से,अब तो ऐसा ही सर लगता।पंछी का वह कटा हुआ परमुझे आदमी का पर लगता।बेच रहा है जो सपनों को,महानगर का “अफसर” लगता।भीतर-बाहर
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