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पुस्तक समीक्षा

by
Jan 1, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 01 Jan 2006 00:00:00

नया तेवर, नया अंदाजनरेश शांडिल्यपुस्तक का नाम : राही को समझाए कौन (गजल संग्रह)लेखक : बालस्वरूप राहीपृष्ठ संख्या : 108मूल्य : 100 रुपएप्रकाशक : किताब घर प्रकाशन, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-110002हिन्दी गजल की चर्चा आज जोरों पर है। हिन्दी से जुड़कर गजल ने अपने तेवर और अंदाज बदले हैं। हिन्दी से जुड़कर गजल ने अपने कथ्य के दायरे को बढ़ाया है। एक मायावी और अलौकिक संसार से निकलकर इसने जिंदगी की तल्खियों और कटु यथार्थ की चुनौतीपूर्ण राह पकड़ी है। जामो-मीना, मयखाना, साकी, इश्के मिजाज से अपना पिंड छुड़ा कर आज की गजल “सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम्” से जुड़ रही है, “देश, दुनिया और समाज” से जुड़ रही है। कुल मिलाकर हिन्दी गजल ने अपना एक अलग मुहावरा गढ़ा है। अपनी एक नई पहचान बनाई है और साहित्य को एक नई रंगत दी है।प्रख्यात गीतकार, गजलकार, पत्रकार बालस्वरूप राही के गजल-संग्रह “राही को समझाए कौन” को हिन्दी गजल यात्रा के एक खूबसूरत पड़ाव के रूप में देखा जा सकता है। इसमें राही जी की अब तक की लिखी सभी महत्वपूर्ण गजलें शामिल हैं जिन्हें उन्होंने तीन विभिन्न खंडों में प्रस्तुत किया है। इस पुस्तक को राही जी की गजलों की “क्रमिक विकास यात्रा” भी कहा जा सकता है। राही जी ने जीवन में बड़े संघर्ष, उतार-चढ़ाव झेले हैं। उन्होंने अपनी ही शर्तों पर, अपनी ही शैली में एक भरपूर जीवन जिया है। बच्चन जी, दिनकर जी तक के सान्निध्य में अनेक वर्षों तक काव्य-सम्मेलनों में काव्य पाठ किया और छाए रहे। धर्मयुग के टक्कर की “साप्ताहिक हिन्दुस्तान” पत्रिका के संपादन से वर्षों जुड़े रहे, अंग्रेजी पत्रिका “प्रोब इंडिया” के संपादक रहे। भारतीय ज्ञानपीठ के सचिव रहे, हिन्दी का पहला आपेरा “राग-विराग”, जो कि चित्रलेखा उपन्यास पर आधारित है, उन्होंने लिखा जिसके अनेक प्रदर्शन हुए। यानी हिन्दी जगत में उनका अच्छा खासा नाम और योगदान है।इतने कुछ के साथ-साथ उन्होंने गजल विधा को भी बखूबी साधा है। “राही को समझाए कौन” गजल संग्रह की हर गजल अपना विशेष प्रभाव छोड़ती है। ऐसा लगता है कि अपने जीवन भर का सार, अपने जीवन भर की कमाई को उन्होंने अपनी गजलों में उड़ेल दिया है। गजलों में खुद को इतना डुबो देने के बावजूद हरदम कुछ न कुछ नया कहने, अलग ढंग से कहने की ललक उनमें आज भी देखी जा सकती है। अपने स्वाभिमान, अपनी जिद और अपनी साफगोई की वजह से उन्होंने अपनी गजलों को एक ओर जहां भरपूर धार दी है, वहीं दूसरी ओर इन सबका खामियाजा भी उठाया है। पक्षपात करने वाले चापलूसी पसंद आलोचकों, समीक्षकों और साहित्यिक-खेमेबाजों पर कटाक्ष करता उनका एक शेर यहां उल्लेखनीय है -डूबने वालों की फेहरिस्त में भी नाम न हो,मेरे जैसा किसी तैराक का अंजाम न हो।लेकिन उनका स्वाभिमान, उनकी जिद और उनकी साफगोई झुकने को कतई तैयार नहीं है। वे अपने आपको बखूबी जानते, पहचानते और अपने प्रति पूर्णत: आश्वस्त हैं -पहचान अगर बन न सकी तेरी तो क्या गम,कितने ही सितारों का कोई नाम नहीं है।जो शायद खुद को जानता, पहचानता हो और खुद के प्रति पूर्णत: आश्वस्त भी हो, वह यकीनन बड़े मयार का शायर होता है। बालस्वरूप राही जी निस्संदेह बड़े मयार के शायर हैं। उनका एक-एक शेर एक बात कहता है और वह भी पूरे “अंदाज-ए-बयां” के साथ। उनके कहने में एक बांकपन है, एक बेबाकी है, एक बेचैनी है जो सीधे-सीधे दिल में उतरती है और यही कविता की सच्ची ताकत है।नरेश शांडिल्य18

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