|
निर्भीकता न हो तो न्याय नहीं कर सकतेदीनानाथ मल्होत्रादीनानाथ मल्होत्रा प्रमुख हिन्द पाकेट बुक्समहाशय राजपाल अविभाजित भारत की सुधारवादी हिन्दू चेतना के प्रमुख विचारक थे। उनके तीसरे पुत्र श्री दीनानाथ मल्होत्रा (जन्म 1923, लाहौर) ने 1958 में जब हिन्द पाकेट बुक्स की स्थापना की तब किसे कल्पना थी कि यह कदम प्रकाशन क्षेत्र में क्रांति ला देगा। 60 से अधिक वर्षों तक प्रकाशन क्षेत्र से जुड़े रहे 82 वर्षीय श्री मल्होत्रा ने हाल ही में अपने जीवन संस्मरणों पर आधारित अंग्रेजी में पुस्तक लिखी “डेयर टू पब्लिश” यानी छापने का जोखिम भरा साहस। यहां प्रस्तुत हैं जितेन्द्र तिवारी द्वारा उनसे की गई बातचीत के मुख्य अंश-आपने अपनी पुस्तक को अपने साहसी माता-पिता को समर्पित किया है। उनका साहस किस दृष्टि से अभिव्यक्त हुआ?चाहे अन्याय के विरुद्ध संघर्ष हो, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हो अथवा पुस्तक का प्रकाशन, निर्भीकता से ही कोई विचार अथवा व्यक्ति समाज में क्रांति ला सकता है। मेरे पिता जी आर्य समाज से जुड़े थे। अछूतोद्धार जैसे समाज सुधार का कार्य भी निर्भीकता से करते थे और प्रकाशन का भी। जब हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष के कारण देश का वातावरण बहुत खराब था तब भी हम बिना डरे लाहौर में रहते थे। उस वातावरण में भी उन्होंने निर्भीकता से एक ऐसी पुस्तक प्रकाशित की जिसकी उस समय आवश्यकता थी और उस पुस्तक को छापने के कारण ही उनकी हत्या भी कर दी गई।आपने अपनी पुस्तक में भी लिखा है आपके पिता (स्व.) महाशय राजपाल जी के विरुद्ध गांधी जी द्वारा लिखे गए लेख की भाषा अभद्र थी। क्या आप समझते हैं कि तब गांधी जी ने न्याय नहीं किया था?गांधी जी ने इस विषय में “यंग इंडिया” में जो लेख लिखा, उसकी भाषा बहुत अभद्र थी। उसमें उन्होंने लिखा था कि पैसे कमाने के लिए लाहौर के एक पुस्तक विक्रेता ने एक बहुत गलत किताब छाप दी है, जिससे मुसलमानों की भावनाएं आहत हुई हैं, इसे रोकना चाहिए। गांधी जी का यह लेख इतना खराब था कि इसके विरुद्ध सावरकर जी ने केसरी में एक ऐतिहासिक लेख लिखा और उसमें उन्होंने गांधी जी से कहा कि आप गलत कह रहे हैं। आप मुस्लिम तुष्टीकरण नीति के कारण ऐसा कह रहे हैं। उसमें उन्होंने यह भी कहा कि जिन्हें आप एक सामान्य पुस्तक विक्रेता कह रहे हैं, वे महाशय राजपाल एक साहित्यकार, प्रकाशक व समाजसेवी हैं।आपके पिता जी आर्य समाज से जुड़े थे, स्वामी श्रद्धानन्द जी से बहुत प्रभावित थे। स्वामी श्रद्धानन्द जी अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष में हिन्दू-मुस्लिम एकता के पक्षधर थे, इसके बावजूद जिहादियों के निशाने पर थे और अंतत: उनका शिकार हुए, क्यों?स्वामी श्रद्धानन्द जी की मान्यता थी कि भारत के सभी मुसलमान अरब से नहीं आए हैं, हिन्दू समाज की कुरीतियों-कमियों अथवा परिस्थितियों के कारण मुसलमान बने हैं। वे उन्हें साथ लाना चाहते थे, इसीलिए उन्होंने शुद्धि का अभियान चलाया था। स्वामी श्रद्धानन्द जी एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें दिल्ली की जामा मस्जिद से तकरीर (भाषण) देने के लिए निमंत्रित किया गया था। पर कुछ मुसलमानों को उनकी हिन्दू-मुस्लिम एकता की कोशिश पसंद नहीं आ रही थी, इसलिए उन्होंने उनकी हत्या कर दी।आज भी भारतीय राजनीति में तुष्टीकरण की नीति हावी है, भारत विरोधी सोच के लोग सत्ता के भागीदार हैं, क्या होगा भविष्य?तथाकथित प्रगतिशील लोगों का यह फैशन हो गया है कि वे हिन्दू धर्म और आस्थाओं के प्रति अनर्गल प्रलाप करें। एक सोच के कारण ऐसे लेखकों और बुद्धिजीवियों को अधिक मान्यता दी गई और प्रारंभ में यह सब पं. नेहरू की सरकार के इशारे पर किया गया। इसीलिए यह बहुत चिन्ता का विषय है क्योंकि हिन्दुओं को अब दोहरे आक्रमण का सामना करना पड़ रहा है। हिन्दू समाज भी भयभीत है। उसमें वह निर्भीकता नहीं जो उसके पूर्वजों में थी।आप 50 वर्ष से अधिक समय तक प्रकाशन क्षेत्र से जुड़े रहे, क्या अंतर पाते हैं तब के और आज के प्रकाशन तथा लेखन में?समाज व राष्ट्र के लिए श्रेष्ठ व अच्छी पुस्तकों का प्रकाशन ही हमारा उद्देश्य होना चाहिए, उसमें केवल व्यावसायिक दृष्टिकोण नहीं रखना चाहिए। अच्छी पुस्तक यदि प्रकाशित व वितरित होगी तो उसका लाभ भी लेखक और प्रकाशक को मिलेगा ही। पर पुस्तकों का प्रकाशन पूरी ध्येय निष्ठा व परिश्रमपूर्वक करना चाहिए। दुर्भाग्य से आज व्यावसायिकता की होड़ में इसकी अनदेखी की जा रही है।आपकी प्रकाशन यात्रा में कैसे-कैसे उतार-चढ़ाव आए?शुरुआत में मैं प्रकाशन क्षेत्र में नहीं आना चाहता था बल्कि अध्यापक बनना चाहता था। कुछ दिनों तक श्रीनगर (कश्मीर) में अध्यापन कार्य भी किया। फिर वापस आकार अपने बड़े भाई विश्वनाथ जी के साथ राजपाल एण्ड सन्स में काम किया। बाद में अलग एक कम्पनी बनायी इंडियन बुक कम्पनी। तब स्वतंत्रता मिलने का दौर था, इसलिए उस समय के सभी प्रसिद्ध नेताओं की पुस्तकें मैंने प्रकाशित की। बंटवारे के बाद हम दोनों भाई दिल्ली आ गए और फिर साथ-साथ प्रकाशन शुरू किया। शुरुआत में हमने पाठ्य पुस्तकें प्रकाशित कीं, पर उन्हें लागू कराने के लिए होने वाले भ्रष्टाचार के कारण मेरा उससे मोह भंग हो गया। उसके बाद मैंने अनेक देशों की यात्राएं कीं और तय किया कि मैं पाकेट बुक्स का प्रकाशन करूंगा। इस प्रकार 1958 में हिन्द पाकेट बुक्स की स्थापना हुई। इसमें मुझे ऐसी सफलता मिली कि लोग अचंभित रह गए। हमने पहली 10 पुस्तकें इतनी सस्ती व सुंदर छापीं कि प्रकाशन उद्योग में क्रांति आ गई। उस जमाने में 160 पृष्ठ की कलात्मक आवरण वाली, अच्छे कागज व अच्छी छपाई वाली पुस्तक हमने मात्र 1 रुपए में बेची। उसमें हमें 3-4 पैसे ही बचते थे। कई लोगों ने हमारी नकल करने की कोशिश की, पर चूंकि उनके सामने कोई ध्येय और आदर्श नहीं था, केवल लाभ कमाना ही उद्देश्य था, इसलिए असफल रहे। हमने बिना व्यावसायिक लाभ-हानि देखे सभी अच्छे लेखकों की पुस्तकें प्रकाशित कीं, जिससे समाज लाभान्वित हो सके। इसीलिए हम आज इस मुकाम पर खड़े हैं और संतुष्ट हैं।अब अंग्रेजी भाषा के प्रकाशन में ख्यातिनाम “पेंगुइन” हिन्दी के प्रकाशन में कदम रख चुकी है, क्या कर्फ पड़ेगा इससे प्रकाशन क्षेत्र में?पेंगुइन हमारे यहां जम चुका है और हिन्दी के प्रकाशक कमजोर पड़ते जा रहे हैं। वे साहस के साथ खड़े भी नहीं होना चाहते। 500-700 प्रतियों का कोई संस्करण छापना और सरकारी खरीद में बेचकर पैसा कमा लेना ही उनका उद्देश्य बन गया है। प्रकाशकों का लेखकों के प्रति जो सम्मान और सह्मदयता चाहिए, वह भी अब कम दिखायी देती है। दूसरी तरफ पेंगुइन की सफलता का एक बड़ा कारण है उनकी पूंजी। पेंगुइन से पूंजी की तुलना में भारत के प्रकाशक कहीं नहीं ठहरते। उन्होंने अंग्रेजी के सब अच्छे लेखक अपने साथ कर ही लिए थे। अब वे भारतीय भाषाओं के विस्तृत बाजार में भी कदम रख रहे हैं, पाठपुस्तकों के प्रकाशन में भी आ रहे हैं। पूंजी के साथ-साथ उनके बढ़ने का कारण यह भी है कि हमारी सरकार भी उनके प्रति ज्यादा समर्पित है। पेंगुइन के आने से यह होगा कि वे हिन्दी के लेखकों को अधिक पैसा देंगे, अपने साथ जोड़ लेंगे, भारतीय प्रकाशक पिछड़ जाएंगे। वैसे भी हमारे यहां के प्रकाशक पैसे कमाते तो हैं पर अच्छी पुस्तकें अधिक लोगों तक पहुंचाने के लिए उनका उपयोग नहीं करते। प्रकाशन आदर्श के प्रति जो प्रतिबद्धता चाहिए, वह उनमें नहीं है।पुस्तकों का प्रकाशन हो या समाचार पत्रों का, आज सब ओर हिन्दुत्व या कहें भारतीयता के प्रति उपेक्षा और बैर-भाव है, प्राचीन भारतीय गौरव को उपहास के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, क्यों?एक चलन बन गया है यह। एक बार मैंने नग्नता, फूहड़ता के कारण हिन्दुस्तान टाइम्स लेना बंद कर दिया था, उसके सम्पादक को पत्र भी लिखकर पूछा कि गांधी जी और राजा जी द्वारा स्थापित इस अखबार में छप क्या रहा है? पर कुछ नहीं हुआ। आज किसी सम्पादक में यह साहस नहीं दिखता कि वह पत्रकारिता के मूल्यों की रक्षा के लिए नौकरी को ठुकरा दे। अच्छे पत्र छपने ही बंद हो गए, समस्या यह है कि कोई अच्छा लेख छापना हो तो कहां भेजें?NEWS
टिप्पणियाँ