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जो काल का भी कारण है, उसे जानोसुरेश सोनीसुरेश सोनीकिसी ने कहा कि काल यह कारण है। काल से ही सब कुछ उत्पन्न होता है और काल में ही सब कुछ विलीन होता है। इसलिए सामान्य व्यवहार में कहते हैं, “समय बड़ा बलवान है।” समय अनुकूल रहता है तो मिट्टी भी सोना हो जाती है। समय प्रतिकूल रहता है तो सोना भी मिट्टी हो जाता है। दूसरे ने कहा- जगत में जो कुछ भी है, उसका कारण स्वभाव है। आम मीठा क्यों और नीम कड़वा क्यों? क्योंकि यह उसका स्वभाव है। अग्नि उष्ण और जल शीतल क्यों हैं? स्वभाव के कारण। चार्वाक लोग इस बात को मानते थे।तीसरे ने कहा- यह सब एक निर्धारित प्रक्रिया है। जिससे किए गए कर्म परिणाम देते हैं और यह चक्र चलता रहता है। अत: उन्होंने कहा कि मूल कारण नियति है। चौथे ने कहा, यह सब आकस्मिक पैदा हो गया। आजकल के कुछ वैज्ञानिक भी मानते हैं कि अगम्य रासायनिक व भौतिक क्रियाओं से यह विविधतामय दुनिया बन गयी है। रूस के एक चिंतक पिं्रस क्रोपातकिन जो अराजकतावादी थे, वे उदाहरण देते थे, “एक डिब्बे में कुछ कंकड़ डालिए और उसे हिलाइए, फिर डिब्बे में देखिए तो कुछ न कुछ व्यवस्था बनी दिखेगी। ये दुनिया भी ऐसे ही बनी है।”पांचवें ने कहा, पांच महाभूतों अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से दुनिया बनी है। छठे ने कहा, जीवात्मा इसका कारण है परन्तु इस विश्लेषण में कमी है क्योंकि जड़ वस्तु अपने आप गति नहीं करती। अत: काल से लेकर भूत समुदाय कारण नहीं हो सकता, जीवात्मा भी कारण नहीं हो सकता, क्योंकि वह स्वयं सुख-दु:ख में घूमता है। अत: सत्य को जानने के लिए मात्र बुद्धि या इन्द्रिय पर्याप्त उपकरण नहीं हो सकते। इस हेतु कोई अन्य मार्ग का अवलम्बन करना होगा और यही भारतीय दर्शन को विलक्षणता प्रदान करता है। उपनिषद् कहता है, “बुद्धि से परे जाने के लिए ऋषियों ने ध्यान- योग का आश्रय लेकर परमात्मा की उस शक्ति का साक्षात्कार किया जो काल से लेकर जितने भी कारण पूर्व में कहे गए, उनका भी कारण है और उसी की सामथ्र्य से वे सभी कारण अपने-अपने कार्यों को करने में समर्थ बनते हैं।”इस प्रकार बौद्धिक विवेचनों के अंत में प्रत्यक्ष अनुभूति का मार्ग ही भारतीय दर्शन की विशेषता है।दर्शनों का विभाजन-साधारणत: दर्शनों के विभाजन के लिए दो शब्द प्रयोग प्रचलित हैं, आस्तिक दर्शन तथा नास्तिक दर्शन। परन्तु यह विभाजन विभिन्न दर्शनों के साथ न्याय नहीं कर पाता क्योंकि पहला प्रश्न खड़ा होता है कि आस्तिक कौन? नास्तिक कौन? इस प्रश्न के उत्तर तीन प्रकार से मिलते हैं-1. एक मत के अनुसार जो वेद को मानते है, वह आस्तिक हैं तथा जो वेद को नहीं मानता है, वह नास्तिक है। इसके प्रमाण के रूप में मनु का यह वाक्य कहा जाता है- “नास्तिको वेदनिन्दक:”।मनु 2/112. दूसरे मत के अनुसार जो परलोक को मानता है, वह आस्तिक है तथा जो परलोक को नहीं मानता, वह नास्तिक है। इसके प्रमाण में पाणिनि का वाक्य उद्धृत किया जाता है- “अस्ति नास्ति दिष्टं मति:।” पाणिनी व्याकरण 4/6।3. तीसरे मत के अनुसार, जो ईश्वर को मानता है, वह आस्तिक है तथा जो नहीं मानता, वह नास्तिक है।इन तीनों मतों पर विचार करें तो चार्वाक के अतिरिक्त प्रत्येक दर्शन किसी न किसी रूप में आस्तिक हो जाता है और किसी रूप में नास्तिक। जैसे, सांख्य और मीमांसा दर्शन ईश्वर को नहींं मानते हैं। अत: भारत के विविध दर्शनों में मात्र चार्वाक् दर्शन ही एक ऐसा है जिसे नास्तिक कह सकते हैं क्योंकि वह वेद, परलोक तथा ईश्वर-इनमें से किसी को भी नहीं मानता। अत: आस्तिक तथा नास्तिक विभाजन के बजाय अधिक उपयुक्त विभाजन है,वैदिक तथा अवैदिक दर्शन।(पाक्षिक स्तम्भ)तलपटब्रिटेन में रह रहे भारतीय मूल के उद्योगपति लक्ष्मी निवास मित्तल दुनिया के सबसे बड़े इस्पात व्यवसायी और भारतीय मूल के सबसे अमीर व विश्व के तीसरे क्रमांक के धनी व्यक्ति हैं। 14 देशों में उनके इस्पात संयंत्र हैं, जिनमें 1,65,000 से ज्यादा कर्मचारी कार्य करते हैं और सलाना 7 करोड़ टन से ज्यादा इस्पात तैयार हैं। सन् 2005 में उनका कारोबार 1,326 अरब रुपए से ज्यादा का होगा।NEWS
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