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स्मरणाञ्जलि

by
May 9, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 09 May 2004 00:00:00

उस साझा भाई के बिना बीता सावन…. जिसको राखी बंधनी थी-मृदुला सिन्हाअपने साझा भाई श्री कुशाभाऊ ठाकरे को राखी बांधती हुईं (बाएं से) श्रीमती रेनू देवी, श्रीमती मृदुला सिन्हा एवं श्रीमती माया सिंह। (फाइल चित्र)इस साल सावन आया और गया भी। सावन तो आता-जाता रहेगा। पर यह सावन इसलिए स्मरण रहेगा क्योंकि इस बार मैंने भाई की कलाई पर राखियां नहीं बांधी। राखियां इसलिए कि एक नहीं, कई-कई राखियां एक ही कलाई पर बंधती थीं, क्योंकि वह भाई, साझा भाई था। नाम-कुशाभाऊ ठाकरे। देश के कोने-कोने से राखियां डाक से आती थीं। उन लिफाफों में एक राखी, एक छोटी सी पुड़िया में रोली और एक-दो अक्षत। सब लिफाफे, बड़े मनोयोग से खोलकर अपने सामने रख, उन सामग्रियों की छंटाई स्वयं कर लेते थे वे साझे भैया। फिर मुझे बुलाते थे और एक-एक कर सभी राखियां अपनी कलाई पर बंधवा लेते थे। चिट्ठियों को समेटकर अपने सहयोगी को देते थे- “सबका जवाब देना है। मुझसे अलग-अलग चिट्ठियां लिखवा लेना।”जाहिर था कि राखियां भेजने वाली उन अलग-अलग बहनों का अलग-अलग परिवार था, अलग विशेषताएं, अलग समस्याएं, भिन्न-भिन्न स्वभाव, स्वरूप के बच्चे, उनके पति, सास-ससुर और भी। साझा भाई को उन दादी, नानी बनी बहनों के बेटे-बेटियों और नाती-पोती के भी नाम स्मरण थे।राखी बंधवाने के लिए कोई आवश्यक नहीं कि रक्षाबंधन (श्रावण पूर्णिमा) का दिन हो। इस शुभ तिथि के पंद्रह-बीस दिन बाद भी कहते- “आइए मृदुला जी! अपना एक काम बाकी है न।” मैं समझ जाती। राखियां बंधवाने वाला काम। पंद्रह वर्ष पूर्व की बात होगी, जब वे दिल्ली रहने आ गए थे। मुझसे एक दिन कहा- “आज आपको एक काम करना होगा। बहनों ने राखियां भेजी हैं। आप उन्हें बांध दीजिए।”एक पल के लिए तो मैं अचम्भित रह गई। कई ऐसे काम वे मुझे देते थे। जैसे दूर शहर या कस्बे से किसी की शादी का निमंत्रण आया हो तो कहते- “अरे आपको एक काम करना है। एक कार्यकत्र्री बहन की बेटी की शादी है। उस बिटिया को मैंने गोद में खिलाया है। उसके लिए एक साड़ी खरीद दीजिए। हां! जरा कम दाम की हो, क्योंकि यह भाई तो फक्कड़ है।” मैं समझ जाती थी कि उस परिवार से उनका जुड़ाव बड़ा गहरा होगा। जीवन के साठ वर्ष तक संगठन का कार्य करते हुए ऐसे जाने कितने परिवारों से उनके गहरे सबंध होंगे।मैं साड़ी खरीदकर ला देती। उसके रुपए वे मुझे दे देते। सौ, दो सौ की ही साड़ी खरीदती थी। पर बहनों के लिए तो वह लाखों की होती थी। जब उन्होंने राखी बांधने के लिए बुलाया, मैं पशोपेश में पड़ गई। राखी बांधू या नहीं, क्योंकि मैं अपने इकलौते बड़े भाई को भी राखी नहीं बांधती थी। सिर्फ इसलिए कि बिहार में भाई-बहनों के दूसरे त्योहार होते हैं। सामा-चकवा और भाईदूज। बचपन से राखी नहीं बांधी। आज बिहार में भी राखी का त्योहार बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। पर इस त्योहार को एक नए “फैशन” के रूप में मनाने का मन कभी नहीं हुआ था। साझे भैया द्वारा राखी बंधवाने के प्रस्ताव पर विचार कर रही थी। उनकी आज्ञा को नकारना सहज नहीं था। इसलिए उनकी कलाइयों पर राखियां बांध आई। रक्षाबंधन त्योहार के पंद्रह दिनों के बाद। क्या फर्क पड़ता था? भाई-बहन का स्नेह एक दिन का तो होता नहीं। बहनों की एक-एक राखी बंधवाते समय वे उन बहनों की कहानियां भी सुनाते जाते। उनके दु:ख-सुख, साहस और सम्मान की कहानियां। कितना स्मरण रखते थे। दो-तीन वर्ष तक मैं दूसरी बहनों द्वारा भेजी राखियां ही बांधती रही। कुछ वर्ष पूर्व मेरे मन में विचार आया- “जब वे मुझसे राखी बंधवाते ही हैं तो क्यों न मैं भी राखी खरीदूं। उन्हें बांधूं, कब तक दूसरों द्वारा भेजी राखी बांधती रहूं।”मैंने उनसे रक्षाबंधन पर अपने घर आने का आग्रह किया। उन्होंने अपने प्रवास की तिथियों में फेरबदल किया और रक्षाबंधन के दिन स्टेशन से सीधे मेरे घर आ गए। बहू-बेटियों ने अपने भाइयों की कलाइयों पर बांधने के लिए कई-कई राखियां खरीद कर थाल सजाया था। मैंने कहा- “एक राखी मेरे लिए भी। मैं तो एक ही भाई को बांधती हूं। और देखना रूप, स्वरूप और गुणों में तुम्हारे सभी भाइयों का योगफल होगा, हमारा साझा भैया।” और सच ऐसे ही तो थे हमारे भाई श्री कुशाभाऊ ठाकरे। कई वर्षों तक राखी बंधवाने घर आते रहे।पिछले वर्ष उनकी बीमारी के कारण मैंने भाजपा कार्यालय में जाकर राखी बांधने का निश्चय किया। मैंने कहा-“सुबह मैं ही आ जाऊंगी।”रक्षाबंधन के दिन सुबह नौ बजे ही फोन आ गया। बुलावा था। भाई को राखियां बंधवानी थीं। सभी राखियां अपने सामने मेज पर सजाए, नहा-धोकर बैठे थे। एक राखी अमरीका से आई थी। एक पतला सा धागा। और उसमें “इक्वल”, शुगर की छोटी-सी पुड़िया। मैंने पूछा- “यह क्या है?”तो बोले, “अरे! इक्वल है। अमरीका में रह रही हमारी उस बहन को मालूम है कि मुझे चीनी नहीं खानी।”मेरी आंखें भर आईं। पचास रुपए का नोट भी मेरे लिए निकाल रखा था। मैंने अपने आंचल में ले लिया। जब उन्होंने पहली बार राखियां बंधवाई थीं तो मैं बहुत रो रही थी। कारण का पता आज तक नहीं चला। बोले थे- “अरे! रोती क्यों हो? इसीलिए न कि फक्कड़ भाई है, राखी बंधाई कुछ देगा नहीं।” और मेज की दराज से निकालकर दस-बीस पैसे के पांच-सात सिक्के मेरे आंचल में रख दिए। मैंने आंसू पोंछकर कहा था- “अगली राखी तक ये सिक्के बढ़कर हजार-लाख हो जाएंगे।”कुछ ऐसा ही हुआ। बिना पूर्व योजना के भी अच्छी रकम, पुस्तक की रायल्टी या पुरस्कार राशि के रूप में आ गई। पिछले वर्ष राखियां बांधते हुए मैंने कहा था- “अगले वर्ष सभी बहनों को पहले से दिल्ली बुला लूंगी। सभी मिलकर इतनी बड़ी साझा राखी बनाएंगी, जितनी बड़ी आज तक किसी भाई की कलाई पर नहीं बांधी गई होगी। एक साथ आपकी कलाई पर बांधेंगे।” रुग्ण चेहरा प्रसन्नता से लाल हो गया। फिर मैंने कहा- “बीस, पचास रुपए से काम नहीं चलेगा। ढेर सारी बहनें, ढेर सा इनाम।””फिर तो रहने दो। मैं कहां से लाऊंगा इतने पैसे? और बहनें जिद्द करेंगी ही।” मुस्कुराते हुए कहा था। मेरा प्रस्ताव उन्हें अच्छा लगा था। पर कहां आया वह दिन, रक्षाबंधन की तिथि तो आई, पर साझा भाई नदारद। इस बार सावन शुरू होते ही रक्षाबंधन की तिथि ज्यों-ज्यों नजदीक आ रही थी, उनकी याद तीव्र हो रही थी। स्मृतियां शेष हैं। पार्थिव शरीर को स्वजनों ने ही जला दिया। कलाई भी जल गई। इस वर्ष रक्षाबंधन त्योहार पर मेरी जिह्वा पर वही पंक्तियां तैरती रहीं, जो उनकी अंत्येष्टि के समय श्मशान घाट पर जन्मी थीं-“सब वर्ष से बड़ी राखी, इस वर्ष की बननी थी। अंत्येष्टि में जली कलाई, जिस पर राखी बंधनी थी।”राखी नहीं बांधूंगी तो क्या, उन्होंने जो बहनों का मान रखना सिखाया, संगठन सूत्र को मजबूत करने की विद्या बताई, राजनीतिक संगठन को भाई-बहन-मय बनाने का व्यावहारिक रूप दिखाया, इसी संदेश को बढ़ाती रहूंगी। उनके त्यागमय जीवन की खुशबू भाई-बहनों के मन में उतारती रहूंगी।11

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