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हुबली का सचभारत में तिरंगा फहराने का “अपराध”पुलिस की गोली के शिकार श्रीनिवास कट्टीतिरंगा फहराने की कोशिश करने वाले अनंत कुमार की पुलिस ने बेरहमी से पिटाई की। घायल अनंत अस्पताल में।पुलिस की गोली के शिकार प्रसन्न कुमारहुबली एक बार फिर चर्चा में आया है। हुबली की घटना से कुछ सवाल उभरते हैं जो आज एक सच्चे भारतीय के मन को मथ रहे हैं। क्या राष्ट्रीय ध्वज फहराना और वह भी 15 अगस्त के दिन, अपराध है? उस समय (अगस्त, 1994) कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार थी। उस सरकार ने जो दमन चक्र चलाया था और राष्ट्रीय ध्वज का जिस तरह अपमान किया था, उसकी मिसाल अंग्रेजों के जमाने से ही मिल सकती है। उस वक्त इस पूरे प्रकरण से जुड़े रहे और इन घटनाओं को अपनी आंखों के सामने घटते देखने वाले कर्नाटक विधान परिषद् के सदस्य एवं भाजपा नेता श्री डी.एच. शंकरमूर्ति ने 30 अगस्त, 1994 को चेन्नै मेंअंजुमन-ए-इस्लाम के अध्यक्ष इस्माइल कालेबुद्दे चेनम्मा मैदान पर राष्ट्रीय ध्वज फहराते हुए। नागरिकों के आक्रोश के आगे अंतत: झुकना पड़ा।विजिल संस्था द्वारा आयोजित एक संगोष्ठी में भाग लिया था। वहां उन्होंने हुबली की उस घटना का सिलसिलेवार ब्यौरा दिया जो असलियत को सबके सामने रख देता है। हम श्री डी.एच. शंकरमूर्ति के उसी वक्तव्य के संपादित अंश प्रकाशित कर रहे हैं। सं.15अगस्त, 1994 को हुबली में जो कुछ घटा उस पर कई तरह की बातें सुनने में आ रही हैं। कुछ लोग कहते हैं कि भाजपा, लोगों की भावनाएं भड़काकर अपने राजनीतिक स्वार्थ पूरा करना चाहती है। कुछ का कहना है कि भाजपा समाज को बांटने की कोशिश कर रही है और कानून को अपने हाथों में लेकर बेवजह का मुद्दा उछाल रही है। सवाल उठता है कि उस स्थान पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने में 6 जानें क्यों गईं? हुबली के उसी मैदान में राष्ट्रीय ध्वज फहराने के पीछे क्या उद्देश्य था? भाजपा ने ऐसा क्यों किया? क्या भाजपा ने सत्ता पाने के लिए ऐसा किया था? अत: आपाधापी में किसी नतीजे पर पहुंचने से पहले पूरे मामले की पृष्ठभूमि और इतिहास को जान लेना जरूरी है।कर्नाटक का दूसरा सबसे बड़ा शहर है हुबली। इस समय यह नगर पालिका हुबली-धारवाड़ नगर पालिका है। जिस मैदान पर यह प्रकरण हुआ वह शहर के बीच एक एकड़ का क्षेत्र है, जहां छह-सात मुख्य मार्ग मिलते हैं और काफी चहल-पहल रहती है। इस कित्तूर रानी चेनम्मा मैदान, जिसे कुछ लोग आज ईदगाह मैदान कहते हैं, का अपना ही एक इतिहास रहा है। मैं पहले ऐतिहासिक पृष्ठभूमि बताना चाहूंगा, फिर कानूनी और आखिर में राष्ट्रीय ध्वज फहराने की घटना।ऐतिहासिक पृष्ठभूमिबहुत समय पहले यह भूमि स्विट्जरलैण्ड के बेसिल मिशन के पास थी। उस समय हुबली बोम्बे प्रेसीडेंसी का हिस्सा था अत: मुम्बई के गवर्नर का यहां शासन था। शहर बढ़ रहा था और नगर पालिका “जात्रा” और अन्य सार्वजनिक कार्यक्रमों के आयोजन के लिए कुछ भूमि चाहती थी। अत: बेसिल मिशन से यह भूमि हुबली नगर पालिका ने ले ली। यह सार्वजनिक स्थान बन गया। यहां शाम को सब्जी बेची जाने लगी, दिन में लोग यहां अपने कार्यक्रम करते, “जात्रा” करते और राजनीतिक दल अपनी सभाएं। 8 अगस्त, 1994 को पुलिस ने भी चोरी में पकड़ी गई चीजों की प्रदर्शनी इस जमीन पर लगाई थी। जब कभी भी कोई राजनीतिक दल यहां अपनी सभा करता था तो उसमें अपने दल का ध्वज भी फहराता था, कोई रोक-टोक नहीं थी। वहां आवारा पशु भी चरते रहते थे।कानूनी पृष्ठभूमियहां की एक संस्था अंजुमन-ए-इस्लाम दावा करती है कि उसके पास इस जमीन का पट्टा है। यह संस्था कहती है कि तत्कालीन हुबली नगर पालिका ने उसे एक रुपया प्रतिवर्ष के हिसाब से 999 साल का पट्टा दे दिया था। 1971 में इस संस्था ने हुबली नगर पालिका से इस भूमि पर दुकानें बनाने का लाइसेंस भी प्राप्त कर लिया था।हुबली के कुछ नागरिकों ने मिलकर इस कार्रवाई के विरुद्ध एक समिति गठित करके हुबली की मुंसिफ अदालत में मामला क्रमांक 359/1972 दायर कर दिया। समिति का कहना था कि सार्वजनिक उपयोग के लिए ली गई इस भूमि को नगर पालिका किसी व्यक्ति अथवा संस्था को नहीं दे सकती, नगर पालिका और अंजुमन-ए-इस्लाम के बीच करार गैरकानूनी है, अत: निरस्त किया जाए। समिति का यह भी कहना था कि उस भूमि पर किसी तरह की इमारत खड़ी करने की अनुमति न दी जाए। इस मामले पर अंजुमन-ए-इस्लाम का कहना था कि 14-5-1930 को एक रुपए सालाना के हिसाब से उसे 999 साल का पट्टा मिला था और यह भूमि वक्फ संपत्ति के रूप में सूचीबद्ध हो चुकी है। सबूत देखने के बाद 7-12-1973 को मुंसिफ अदालत ने कहा कि मैदान वक्फ की संपत्ति नहीं है, अंजुमन संस्था के पास मैदान के स्वामित्व का पट्टा नहीं है। हालांकि अदालत ने यह भी कहा कि 1921 में अंजुमन संस्था को प्राप्त इस मैदान में नमाज पढ़ने का अधिकार यथावत् रहेगा और यह मैदान सार्वजनिक उपयोग के लिए भी उपलब्ध रहेगा।अंजुमन वाले इस फैसले के विरुद्ध हुबली के अतिरिक्त सिविल जज की अदालत में साधारण अपील क्रमांक 40/1974 के जरिए जा पहुंचे। 12-10-1982 को वहां भी मुंसिफ अदालत का फैसला उचित ठहराया गया। अंजुमन और वक्फ बोर्ड ने तब कर्नाटक उच्च न्यायालय में अपील क्रमांक 754/1982 और 1/1983 दायर की। 18-6-92 को कर्नाटक उच्च न्यायालय ने अंजुमन और वक्फ, दोनों की अपीलें ठुकरा दीं। उसने साफ कहा कि मैदान न वक्फ का है, न अंजुमन का। यह सार्वजनिक संपत्ति के रूप में बना रहेगा। हुबली के मुसलमानों को वहां साल में दो बार नमाज पढ़ने का अधिकार है। वहां जो इमारत जितनी बना दी गई है, उसे 15 दिन में हटा दें। अगर अंजुमन संस्था ऐसा नहीं करती तो दूसरे पक्ष को पुलिस की सहायता से उसे हटा देने का अधिकार है, जिसका खर्चा अंजुमन देगी।कर्नाटक उच्च न्यायालय के इस फैसले के विरुद्ध अंजुमन वाले सर्वोच्च न्यायालय पहुंचे। सर्वोच्च न्यायालय ने वहां बनी इमारत को ढहाने पर तो अपना फैसला आने तक रोक लगा दी पर कर्नाटक उच्च न्यायालय के फैसले के अन्य दो बिन्दुओं, मैदान का स्वामित्व और मुसलमानों को वहां नमाज पढ़ने का अधिकार, को नहीं छुआ। यानी भूमि नगर पालिका की रही अर्थात् सार्वजनिक सम्पदा ही मानी गई। अदालत ने साफ कहा कि वहां कोई विवाद नहीं है और अगर कोई कहता है कि वहां विवाद है तो वह अदालत की अवमानना करता है।राष्ट्रीय ध्वज क्यों फहराएं?1991 में कुछ राष्ट्रविरोधी तत्वों ने भारत की संप्रभुता और एकजुटता को चुनौती देते हुए श्रीनगर के लाल चौक पर पाकिस्तानी झंडा फहराया था। उन्होंने भारतवासियों को चुनौती दी थी कि हिम्मत हो तो पाकिस्तानी झंडा उतारकर भारत का तिरंगा फहरा कर दिखाओ।भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष डा. मुरली मनोहर जोशी ने उन तत्वों की चुनौती स्वीकार की और घाटी की बिगड़ती जा रही स्थितियों के बारे में भारत के जन-मन को जगाने के लिए उन्होंने देशभर की यात्रा की। पहले तो सरकार ने डा. जोशी को रोकना चाहा पर जब देखा कि वे अपने संकल्प से नहीं डिगेंगे तो 26 जनवरी, 1992 को उन्हें लाल चौक (श्री नगर) पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने की अनुमति दे दी।डा. जोशी ने न केवल स्वयं ध्वज फहराया, बल्कि उनके आह्वान पर देशभर में लोगों ने राष्ट्रीय ध्वज फहराया। कित्तूर रानी चेनम्मा मैदान (जिसे कुछ लोग ईदगाह मैदान कहने लगे हैं) में भी राष्ट्रीय ध्वज फहराने की योजना बनी। “अल्पसंख्यकों की भावनाओं को ठेस पहुंचेगी, यह कहते हुए कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री बंगारप्पा ने पुलिस को मैदान में ध्वजारोहण कार्यक्रम को न होने देने का आदेश दिया। इसके बावजूद जब उस दिन कुछ राष्ट्रभक्तों ने मैदान में ध्वज फहराया तो मुख्यमंत्री के आदेश पर पुलिस ने तिरंगा उतारकर उसके टुकड़े कर दिए और कुछ गुंडा छाप लोगों ने उसे पुलिस के सामने पैरों से रौंदा।राष्ट्रीय अस्मिता संरक्षण कानून1971 में राष्ट्रीय अस्मिता संरक्षण कानून पारित हुआ था। इस कानून में प्रावधान था कि हर वह स्थान जहां आम जनता की पहुंच हो, को सार्वजनिक स्थान है। कानून यह भी कहता है कि कोई भी अगर किसी को सार्वजनिक स्थान पर स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने से रोकता है तो उसे 3 साल के कारावास की सजा दी जा सकती है। उस समय केन्द्र में श्रीमती इंदिरा गांधी की सरकार थी।26 जनवरी, 1992 तक राष्ट्रीय ध्वज और हुबली के मैदान को लेकर कोई विवाद नहीं था। केवल अदालत में कानूनी लड़ाई चल रही थी। 26 जनवरी, 1992 को पुलिस द्वारा राष्ट्रीय ध्वज उतारे जाने के बाद हुबली के नागरिकों ने राष्ट्र ध्वज रक्षण समिति गठित करके उस सार्वजनिक स्थान पर 15 अगस्त को राष्ट्रीय ध्वज फहराने का संकल्प लिया। राज्य सरकार ने एक बार फिर इस पर आपत्ति जताई और भारी संख्या में वहां पुलिसबल तैनात कर दिया। भाजपा कार्यकर्ता वहां मौजूद थे। एक वृद्ध महिला अपनी नन्हीं पोती के साथ किसी तरह मैदान के बीच जा पहुंची और अपने सहारे वाली लाठी में तिरंगा बांधकर लहरा दिया। वह वहां राष्ट्रगान भी गाने लगी। पुलिस वाले दौड़कर वहां पहुंचे और उस वृद्ध महिला और उसकी पोती को घसीटकर बाहर लाए, तिरंगे को फाड़ दिया। यह 15 अगस्त, 1992 की घटना है।26 जनवरी, 1993 को फिर से हुबली के लोगों ने मैदान में राष्ट्रीय ध्वज फहराने का निश्चय किया। भारी पुलिस बंदोबस्त के बावजूद वे इसमें सफल हुए। लेकिन कुछ नौजवानों को पुलिस की मार झेलनी पड़ी, तिरंगे को भी पुलिस ने हटाकर फेंक दिया।15 अगस्त, 1993 को फिर राज्य सरकार ने किसी कीमत पर मैदान में झंडा फहराने न देने का बीड़ा उठाया। वहां सेना, सीमा सुरक्षा बल और मराठा रेजीमेंट तैनात कर दी।विधान परिषद् सदस्य के नाते मैंने विधान परिषद् में सवाल खड़ा किया था कि हुबली मैदान पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने से रोकने के लिए सरकार सैन्य बल पर कितना रुपया सालाना खर्च कर रही है? आपको जवाब जानकर आश्चर्य होगा- 3.4 करोड़ रुपए।26 जनवरी, 1994। इस बार सरकार कुछ ज्यादा ही चुस्त थी। मैदान के चारों ओर भारी संख्या में पुलिसकर्मी तैनात किए गए, शहर में कफ्र्यू भी लगाया गया। किसी को भी घर से निकलने की इजाजत नहीं थी। हमारे हजारों कार्यकर्ताओं और निर्दोष लोगों को पकड़ लिया गया, मारा-पीटा गया। दो-तीन दिन तक जेल में ठूंस दिया गया ताकि वे राष्ट्रीय ध्वज न फहरा सकें। यहां तक कि कर्नाटक के पूर्व पुलिस महानिदेशक 75 वर्षीय श्री वीरभद्रैया, जो हुबली मैदान में राष्ट्रीय ध्वज फहराने गए थे, को पकड़कर बेलगाम जेल भेज दिया गया।उस दौरान कर्नाटक के दौरे पर आए श्री लालकृष्ण आडवाणी को पूरी बात विस्तार से पता चली। वे स्तब्ध रह गए। लोगों का आह्वान करने से पहले उन्होंने सारे तथ्यों की पड़ताल की।राज्यसभा में विपक्ष के नेता श्री सिकंदर बख्त हुबली आए और यह सब देखा तो बोले कि सरकार राष्ट्रीय ध्वज फहराने के विरुद्ध है, यह जानकर बड़ा दु:ख हुआ। उन्होंने कहा, वे खुद वहां ध्वज फहराने आएंगे। सुश्री उमा भारती जब हुबली आईं और पूरा प्रकरण पता चला तो उन्होंने भी लोगों का आह्वान किया कि राष्ट्रीय ध्वज फहराएं। उन्होंने घोषणा की, “अगर आप चाहें तो मैं खुद ध्वज फहराने आऊंगी।”हमने भी कार्यक्रम के लिए तैयारियां शुरू कर दीं। वहां के राज्यपाल श्री खुर्शीद आलम खां को भी ज्ञापन सौंपकर सरकार के रवैए की शिकायत की गई। प्रतिनिधिमंडल ने उनसे विनती की कि वे अंजुमन के अध्यक्ष के साथ हुबली के लोगों की ओर से खुद ध्वज फहराएं।15 अगस्त 1994 को क्या हुआ?राज्यपाल की ओर से कोई जवाब नहीं मिला तो हमने कर्नाटक के मुख्यमंत्री श्री वीरप्पा मोइली से अनुरोध किया, लेकिन वहां से भी जवाब नहीं आया।जैसा मैंने पहले बताया हमने लोगों में जागरूकता पैदा करने के लिए कर्नाटक में पदयात्राएं कीं। पूरे कर्नाटक से हजारों लोग और कालेज छात्र 15 अगस्त के कार्यक्रम में भाग लेने को उतावले थे। लेकिन कर्नाटक सरकार ने फैसला किया कि 12 अगस्त के बाद बाहर के किसी व्यक्ति को 15 अगस्त तक हुबली में घुसने नहीं दिया जाएगा। पूरे प्रदेश में भाजपा कार्यकर्ताओं की धरपकड़ शुरू हो गई। पुलिस को चकमा देकर बड़ी संख्या में लोग हुबली पहुंच गए थे। पुलिस मेरी भी तलाश कर रही थी। मैं भी किसी तरह हुबली पहुंच गया।15 अगस्त, 1994 को बंगलौर हवाई अड्डे पर विमान से उतरने से पहले ही श्री सिकंदर बख्त को गिरफ्तार कर लिया गया। सरकार ने घोषित किया कि सुश्री उमा भारती को हुबली नहीं जाने दिया जाएगा। 13 अगस्त से ही कफ्र्यू लगा दिया गया।पुलिस के बंदोबस्त के बावजूद उमा भारती किसी तरह हुबली पहुंच गईं। उन्होंने एक प्रेसवार्ता भी की। अगले दिन अखबारों में उस प्रेस वार्ता के फोटो छपे देखकर पुलिस चौंक गई।सरकारी मीडिया से दुष्प्रचार किया गया कि मैदान वक्फ की संपत्ति है और अगर वहां राष्ट्रीय ध्वज फहराया जाता है तो खूनखराबा हो जाएगा। हमने 90 लोगों को किसी तरह दो दिन पहले आस-पास की इमारतों में पहुंचा दिया था। दो दिन तक वे 90 नौजवान रोटी और पानी पर जिंदा रहे। चूंकि वे इमारतें बाजारों की थीं अत: वहां शौचालय आदि नहीं थे। कितना कष्ट हुआ होगा उन नौजवानों को, जरा सोचिए।15 अगस्त को सुबह 6.20 बजे मैदान के एक कोने से 20 नौजवान इमारतों से निकलकर “भारत माता की जय” नारे लगाते हुए आगे बढ़े। पुलिस ने उन पर तुरन्त लाठियां बरसाईं। तभी अन्य 20 नौजवानों का अगला दल दूसरे कोने से निकला और राष्ट्रीय ध्वज लेकर “वन्देमातरम्” बोलते हुए मैदान में दाखिल हुआ। उस समय ठीक 6.47 बजे थे और आखिरकार हमारे दो कार्यकर्ताओं ने वहां राष्ट्रीय ध्वज फहरा दिया। पुलिस ने उन दोनों की बेतहाशा पिटाई की और हिरासत में ले लिया। गिरफ्तार किए गए लोगों के विरुद्ध आज तक मामले दर्ज नहीं किए गए हैं। क्यों?राष्ट्रीय ध्वज फहराने की खुशी में हमने उसी दिन 11.30 बजे हुबली के चार अलग-अलग हिस्सों में विजयोत्सव मनाने का निश्चय किया। एक समूह का नेतृत्व हमारे प्रदेश अध्यक्ष कर रहे थे, दूसरे का प्रदेश सचिव। तीसरे समूह को भी येडुयूरप्पा और मैंने संबोधित किया, चौथे को सुश्री उमा भारती ने।शहर में कफ्र्यू के बावजूद हजारों लोग ठीक 11.30 बजे इकट्ठे हो गए। विजयोत्सव मनाने के बाद भीड़ छंटती जा रही थी। अचानक एक पुलिस वाला आया और श्री येडुयूरप्पा और मुझ पर लाठियां बरसाने लगा। उन्होंने हमें पुलिस की गाड़ी में ठूंसा और अस्पताल ले गए। सुश्री उमा भारती को भी गिरफ्तार कर लिया गया। हमारी रैली से 60-70 लोग अपने घरों की ओर लौट रहे थे जो मैदान से 2 किमी. दूर देशपाण्डे नगर के रहने वाले थे। देशपाण्डे नगर में कुछ महिलाएं और बच्चे अपने घरों के बाहर खड़े थे। अचानक कर्नाटक राज्य पथ परिवहन निगम की पुलिस से भरी एक बस आई। उसमें से पुलिस वाले उतरे और अंधाधुंध गोलियां चलाने लगे। न कोई चेतावनी, न कोई सूचना। 4 लोगों ने तत्काल दम तोड़ दिया, करीब 20 लोग घायल हो गए। यह मैदान से 2 कि.मी. दूर की घटना है। अपनी बहन के साथ घर के सामने खेलता एक नन्हा बच्चा मार दिया गया। पुलिस ने चारों मरने वालों को घसीटते हुए गाड़ी में डाला और ले गए। घायलों को कर्नाटक मेडिकल कालेज में भर्ती कराया गया। शाम 4.30 बजे कई लोग घायलों का हाल जानने के लिए अस्पताल के सामने जमा थे। वहां भी अचानक पुलिस ने गोलियां चलानी शुरू कर दीं। मैं उसी अस्पताल में दाखिल था, मैंने खुद गोलियां चलने की आवाज सुनी। एक व्यक्ति पुलिस की गोली से वहीं ढेर हो गया था।15 अगस्त को 5 मासूम लोगों को मार दिए जाने के बाद सरकार ने बड़ी बेशर्मी से कहा कि “भाजपा मैदान में झंडा फहराकर तमाशा करना चाहती थी, जिसमें 5 लोगों की जानें गईं। भाजपा ही दोषी है।”निर्दोष लोगों की मौत के विरोध में 17 अगस्त, 1994 को पूरा कर्नाटक बंद रहा। भाजपा ने गोलीबारी की भत्र्सना करते हुए सभाएं कीं। ऐसी ही एक सभा से लौटते हुए गोली चलने की आवाज आई, एक व्यक्ति फिर मारा गया। केन्द्रीय मंत्री राजेश पायलट ने उसे दुर्घटना बताया। कोई इस पर विश्वास करेगा? मैं इस सबके लिए कर्नाटक के मुख्यमंत्री वीरप्पा मोइली को जिम्मेदार समझता हूं।राष्ट्रीय ध्वज फहराना कोई चुनावी मुद्दा नहीं है। जबकि कांग्रेस और अन्य दल इसे चुनावी मुद्दा बनाते हुए मुसलमानों से कह रहे हैं कि भाजपा के राज में वे सुरक्षित नहीं रह पाएंगे। तर्क के लिए अगर मान भी लें कि वह मैदान मुस्लिमों का था तो क्या इस कारण उस पर राष्ट्रीय ध्वज नहीं फहराना चाहिए था? क्या ऐसा कहने वाले मुसमलानों को राष्ट्र की मुख्यधारा से अलग नहीं कर रहे हैं? क्या मुसलमानों का राष्ट्रीय ध्वज, जन-गण-मन और वंदेमातरम् से कोई सरोकार नहीं है?8
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