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स्त्री स्तम्भद्वारा, सम्पादक, पाञ्चजन्य संस्कृति भवन,देशबन्धु गुप्ता मार्ग, झण्डेवाला, नई दिल्ली-55तेजस्विनीकितनी ही तेज समय की आंधी आई, लेकिन न उनका संकल्प डगमगाया, न उनके कदम रुके। आपके आसपास भी ऐसी महिलाएं होंगी, जिन्होंने अपने दृढ़ संकल्प, साहस, बुद्धि कौशल तथा प्रतिभा के बल पर समाज में एक उदाहरण प्रस्तुत किया और लोगों के लिए प्रेरणा बन गयीं। क्या आपका परिचय ऐसी किसी महिला से हुआ है? यदि हां, तो उनके और उनके कार्य के बारे में 250 शब्दों में सचित्र जानकारी हमें लिख भेजें। प्रकाशन हेतु चुनी गयी श्रेष्ठ प्रविष्टि पर 500 रुपए का पुरस्कार दिया जाएगा।आधी देह, पूरी जिन्दगीविनीता गुप्ताडा. कामरा छात्रों के साथछायाचित्र: पाञ्चजन्य / हेमराज गुप्ताप्रयोगशाला में सूक्ष्मदर्शी यंत्र पर जांच करती हुईं डा. कोमल कामराडा. कोमल कामराकश्मीर घाटी में नगरौटा की घुमावदार पहाड़ी रास्तों पर मिनी बस रफ्तार से दौड़ती जा रही थी। चिनार-वृक्षों की कतार को पीछे छोड़ती हुई। कुछ ही देर पहले बादलों को चीरता हुआ सूरज निकला था, जिसकी किरणों में चिनार के पेड़ धुले-धुले ले लगने लगे थे और सर्द बर्फीली हवाओं के थपेड़े कुछ थम से गए थे। और बस में बैठा कामरा परिवार प्रकृति के असीम सौंदर्य को जैसे दोनों बांहें पसार अपने भीतर समेट लेना चाहता था कि अचानक गाने और तालियों की आवाज रुक गयीं। सांसें थम सी गईं, वक्त ठहर गया। बस 700 मीटर गहरी खाई में लुढ़कती चली गई। 22 नवम्बर, 1993 के दिन सन्नाटे में डूबी खाई में चीख-पुकार और करुण-क्रंदन के स्वर गूंजने लगे। कामरा परिवार के तीन रिश्तेदारों ने वहीं दम तोड़ दिया, मेजर के.के. कामरा, डा. कोमल कामरा और उनके दोनों बच्चों को मरणासन्न अवस्था में जम्मू के सेना अस्पताल में लाया गया। सभी को गहरी चोटें आईं, लेकिन जब डा. कोमल की हालत डाक्टरों ने देखी, एक्स-रे देखे तो निराशा में गर्दन हिलाकर फेंक दिए, बच नहीं सकती। दो दिन जी गई तो कुछ उम्मीद बंध सकती है। फिर मरणासन्न डा. कोमल को दिल्ली के सेना अस्पताल लाया गया। पांच दिन बीत गए उन्हें गहरी नींद सोये हुए। फेफड़ों के पीछे उनकी रीढ़ की हड्डी तीन जगह से टूट चुकी थी। आपरेशन की कहीं कोई गुंजाइश नहीं थी। डाक्टरों को डर था कि जिंदगी का सच उन्हें बताया गया तो कहीं सदमे से ही न खत्म हो जाएं। परिजनों से सलाह के बाद डाक्टरों ने दवाएं दीं और कोमल की बेहोशी टूटी। उन्हें आने वाली जिंदगी का सच बताया गया। डाक्टर ने कहा, “देखो, तुम चल तो नहीं पाओगी लेकिन अगर हमारा साथ दोगी तो जी पाओगी। अपनी जिंदगी के छह महीने हमें दे दो तो हम कुछ कर पाएंगे।” अद्र्धचेतन अवस्था में कोमल ने अपनी हथेली डाक्टर की तरफ बढ़ा दी। उन्होंने डाक्टरों का साथ दिया इसलिए वह जीने लायक स्थिति में दुबारा लौटीं। लेकिन आधी देह के साथ जीना! कमर से नीचे पूरी देह निर्जीव, सुन्न और कमर से ऊपर वही सचेतन सक्रिय डा. कोमल कामरा, दो बच्चों की मां, मेजर के.के. कामरा की पत्नी, नई दिल्ली के खालसा कालेज में अपने विद्यार्थियों के बीच डा. कोमल कामरा, प्रयोगशाला में उपकरणों के साथ शोधरत डा. कोमल कामरा।पांच दिन इस दुनिया से बाहर कहीं शून्य में खोयी डा.कोमल का जब एक तरह से पुनर्जन्म हुआ तो जिन्दगी पहले जैसी बिल्कुल नहीं रही। “दो साल की सघन चिकित्सा और सेवा के बाद किसी तरह तिपाहिया कुर्सी पर बैठाया तो जा सका लेकिन लाख चाहने पर भी वह अपने आप नहीं बैठ सकीं। “कोई मलाल नहीं था। इस सच का अहसास मुझे अद्र्धचेतन अवस्था में ही दिला दिया गया था।” कालेज की प्रयोगशाला में तिपाहिया कुर्सी पर बैठीं डा. कोमल कामरा उस अतीत को याद करती हैं। आंखों में वही जिजीविषा जिसके कारण उनका हाथ डाक्टर की ओर बढ़ गया था। मात्र 40 साल की उम्र में आधी देह के साथ पूरी जिंदगी के संघर्ष की कहानी कहती आ रहीं डा. कोमल कामरा आज भी उसी लगन से अपने शोधकार्य में जुटी रहती हैं, जैसे दुर्घटना से पहले जुटी रहती थीं। वे दिल्ली विश्वविद्यालय परिसर में स्थित गुरु तेग बहादुर खालसा कालेज में जन्तुविज्ञान विभाग में प्राध्यापिका हैं और एक कोशिकीय जीव पर शोध कर रही हैं। “शोध तो कई साल से चल रहा था। लेकिन दुर्घटना के बाद इसमें दो साल का ठहराव आ गया था। डाक्टरों ने भी कह दिया था कि इसका कोई इलाज नहीं है, सिर्फ “मैनेजमेंट” है, एक अंदाजे की जिंदगी जीना है।”अंदाजे की जिन्दगी? इसलिए क्योंकि डा. कोमल की शारीरिक स्थिति अब ऐसी है कि उनका कमर से नीचे का पूरा हिस्सा सुन्न है, और जब कोई संवेदना नहीं तो शरीर की अनेक आवश्यक क्रियाओं का कुछ भी अहसास नहीं होता।डा. कामरा कहती हैं, “मैं चल नहीं सकती, यह तो सभी को पता चलता है, लेकिन मेरी शारीरिक समस्या इतनी ही नहीं, इससे भी कहीं ज्यादा है जो आम लोगों के लिए अकल्पनीय है। और मैं बता भी नहीं सकती। और अगर एक बार लेट गई तो अपने आप बैठ नहीं सकती, करवट नहीं बदल सकती। बैठा दिया गया तो अपने आप लेट नहीं सकती।” दुर्घटना के बाद दो साल तक प्रशिक्षण का दौर चला। प्रशिक्षण जीवित रहने के लिए। आज भी एक परिचारिका ही उनकी देखभाल करती है। सुबह संवेदनशून्य त्वचा की सफाई, जोड़ों की मालिश, निश्चित समय 3-4 घंटे बाद शौचादि, नहलाना, व्यायाम कराना आदि सभी काम परिचारिका के जरिए सम्पन्न होते हैं। वह कहती हैं, “आम व्यक्ति को जो काम करने में दस मिनट लगते हैं, मुझे दो घंटे लग जाते हैं। पहले मैं सब कितना झटपट कर लिया करती थी। कभी-कभी लगता है, मेरा कितना समय यूं ही बर्बाद हो रहा है। ठीक होती तो इस समय में बहुत कुछ कर सकती थी, लेकिन अब कोई रंज नहीं, इसी स्थिति में बेहतर जिंदगी जीने की कोशिश कर रही हूं। और अपनी कोशिश में कामयाब भी हूं।”जीने का दृढ़ संकल्प डा. कामरा की मधुर आवाज में झलकता है। आंखों में एक अलग ही चमक।दो साल की लंबी बीमारी और एक बार फिर नयी तरह से जीने के लिए प्रशिक्षण के बाद एक दिन (1 दिसम्बर, 1995) अपने कालेज के प्रधानाचार्य डा. डी.एस.क्लेयर को फोन पर डा. कालरा ने कहा, “मैं दुबारा कालेज ज्वाइन करना चाहती हूं।” दूसरी तरफ से आवाज आई, “जरूर-जरूर, कालेज आओ, पढ़ाना या मत पढ़ाना लेकिन आओ।” और अगले दिन जब मेजर कामरा डा. कोमल को कालेज छोड़ने गए तो खुशी से उनकी आंखों में आंसू छलछला आए, “उस दिन कालेज पहुंचकर जितनी खुशी हुई, उतनी तब भी नहीं हुई थी, जब मैं पहले दिन कालेज में प्राध्यापिका बन कर आयी थी।” कर्मक्षेत्र में दुबारा लौटीं डा. कामरा समेत पूरा कालेज खुश था। डा. कामरा को पुनर्जन्म से दुबारा कालेज तक लाने के दो साल के कठिन दौर में मेजर कामरा कोमल के जीवन की कठोरता को सुगम बनाने की कोशिश करते रहे। घर में भूमिकाएं बदल गई थीं। मेजर कामरा ने छोटे-छोटे बच्चों की देखभाल के साथ कोमल और घर की पूरी जिम्मेदारी अपने ऊपर ली। “उन्होंने मुझे एक पल के लिए भी कभी यह अहसास नहीं होने दिया कि मैं औरों से कुछ अलग हूं। उन्होंने मेरी नर्सिंग से लेकर सारा काम खुशी-खुशी किया। न कभी बच्चों या उनके मन में मेरे लिए बेचारगी का भाव आया, न दया का। उन्होंने जैसे लक्ष्य साध रखा था कि मुझे दुबारा हंसती-खेलती दुनिया में लौटाकर लाना है। यही लक्ष्य मेरे सामने भी रखा। बच्चों को पढ़ाना है, कुछ बनाना है। लेकिन…. उस दिन वक्त ठहर सा गया, मेरी जिंदगी ठहर गयी, मुझे कुछ नहीं सूझ रहा था।”मेजर कामरा की दिल्ली में ही सड़क दुर्घटना में मौत! वे बच्चों को छोड़ने के लिए गए थे। लेकिन घर लौटी उनकी लाश देखकर। सभी सन्न रह गए। “उनके बिना मैं जिंदगी की कल्पना ही नहीं कर सकती थी। उनके शब्द कानों में गूंज रहे थे। हमें तो बच्चों को बनाना है। जिन्दगी को आगे चलाना, उसे पूरी तरह जीना है। लगा वह बात अधूरी छूट जाएगी। मेरे लिए घड़ी की सुइयां उल्टी घूमने लगीं थीं….” उन पलों को याद करते हुए डा. कामरा की आंखें नम हो जाती हैं, भरे गले से शब्द जैसे घुट-घुटकर निकल रहे हों, “मेरे लिए यह सदमा नगरौटा में हुई उस दुर्घटना के सदमे से भी बड़ा था। मैं कुछ सोच नहीं पा रही थी।” मेजर कामरा की लाश नीचे जमीन पर थी और डा. कोमल अपनी तिपहिया पर ऊपर। इस विडम्बना को वे अपने शब्दों में बयान करती हैं, “सब नीचे बैठे थे, मेरे अलावा। मैं न झुक सकती थी, न उनकी देह को छू सकती थी। कोई मेरा दर्द समझ नहीं पा रहा था। तभी मेरी बेटी आई-उसने मेरे होंठों पर अपनी हथेली रखी बोली, “मां मेरी हथेली चूमो, मैं पापा तक आपकी…. और उसने अपनी वह हथेली उनके गालों से छुवा दी।”मर्मांतक क्षण, बच्ची ने मां का दर्द समझा। अकेली, आधी देह के साथ जिंदगी जी रही डा. कोमल कामरा ने हिम्मत बांधी। और फिर से मेजर कामरा के बिना जिंदगी जीने और उनकी अधूरी छोड़ी जिम्मेदारियों को पूरी करने कर्मक्षेत्र में निकल पड़ीं। वे कहती हैं, “लोगों को लगता है, मैंने बहुत हिम्मत दिखाई, लेकिन सच पूछो तो यह जिंदा रहने की जद्दोजहद है। ठीक वैसे ही जैसे किसी व्यक्ति को तालाब या नदी में फेंक दिया जाए तो जान बचाने के लिए वह कुछ न कुछ तो करेगा ही। बस मैं वही करती रही अब तक….।”डा. कामरा ने अपनी लाड़ली बेटी कृति की शादी कर दी है। वह “फैब इंडिया” में फैशन डिजाइनर है और बेटा भी अब पढ़ने के साथ-साथ “काल सेंटर” में नौकरी कर रहा है। अब डा. कामरा का लक्ष्य है अपना शोध कार्य पूरा करना। लक्ष्य की बात पूछने पर वह कहती हैं, “यूं तो हर दिन हर एक लक्ष्य निर्धारित करते हैं। शाम तक वह पूरा हो जाता है तो लगता है दिन ठीक से गुजरा। इस शोध में लगी हूं। देखते हैं, कब पूरा होती है।” और डा. कामरा अपनी तिपहिया कुर्सी को हाथों से चलाते हुए उस मेज तक ले जाती हैं, जहां तमाम उपकरण रखे हैं। और फिर खो जाती हैं “एक कोशिकीय जीव” में।12
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