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दीनानाथ मिश्रमाक्र्सवादी पार्टी: कामयाब भुखमरीपश्चिम बंगाल में 27 साल से माक्र्सवादी पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार चल रही है। यह गरीबों और मजदूरों के नाम पर ही चल रही है। कभी यह राज्य देश में सबसे विकसित और औद्योगिक राज्य माना जाता था। कम्युनिस्टों की सरकार आने के बाद पश्चिम बंगाल धीरे-धीरे पिछड़ता गया। विकास की सीढ़ियों से उतरता गया। विनाश की सीढ़ियों पर चढ़ता गया। हड़ताल, घेराव, बंद आदि की राजनीति की बाढ़ आई। पूंजी और पूंजीपतियों का पलायन हुआ। कारखाने बंद होते गए। पार्टी और सरकार का ध्यान अपने विरोधियों को समाप्त करने पर केन्द्रित रहा। उनके 27 साल के राज-काल में 44,000 से भी अधिक राजनीतिक हत्याएं हुईं। हिंसा, हत्या की ऐसी राजनीति में विकास का वातावरण वैसे भी नहीं बन सकता था। जब तक मुख्यमंत्री पद पर ज्योति बसु रहे, यूनियनों को पूरी छूट थी। उनका दबदबा भी था। करीब-करीब गुंडाराज जैसा। बुद्धदेव भट्टाचार्य के मुख्यमंत्री बनने के बाद यूनियनों पर थोड़ा-बहुत अंकुश लगना चालू हुआ। सरकार में साझेदार भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को भी धीरे-धीरे हाशिए पर लगा दिया। तरीका वही था। अगर विचारधारा का रास्ता सही होता तो 27 साल का समय विकसित बंगाल बनाने के लिए कम नहीं पड़ता। आज क्या हाल है बंगाल का? हाल की ही एक घटना से समझा जा सकता है।कुरकुट जानते हैं आप? यह एक तरह का लाल चींटा होता है। पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले के बेलपहाड़ी ब्लाक में कई गांवों में आबू जनजाति के अनेक लोग भुखमरी की हालत के कारण कुरकुट खाकर जिन्दा रहने को मजबूर हैं। कुछ को तो कुरकुट भी नसीब नही। “इण्डिया टूडे” की एक रपट के मुताबिक बहुत से लोग भुखमरी के शिकार हो गए हैं। कम से कम छह मृतकों के नाम, उम्र वगैरह भी प्रकाशित हुए हैं। रपट के अनुसार बूढू ने कहा, मेरे पिता को आखिरी पन्द्रह दिनों में सिर्फ पानी ही नसीब हुआ। अंत में उन्हें बुखार हो गया और मैंने उन्हें भूख से मरते हुए देखा। ग्राम पंचायत के एक अधिकारी कैलाश मूरी ने प्रशासन को खबर दी कि अमलासोल में पांच लोग भूख से मर चुके हैं। वहां कोई सूखा नहीं पड़ा था। कोई महामारी नहीं है। अलबत्ता बेइम्तहा गरीबी है। स्थानीय लोग या तो पेड़ काटते हैं या शाल के पत्ते इकट्ठे करके बेचते हैं। वाममोर्चा सरकार ने राजकीय सहकारी विभाग को तेंदू पत्ता खरीदने की जिम्मेदारी दे दी। वह व्यापारियों के मुकाबले कम दर से तेंदू पत्ता खरीदते हैं। ये गरीब घने जंगलों में भी नहीं जा सकते क्योंकि वहां उग्रवादी समझकर कई लोग सुरक्षाबलों के हाथों मर चुके हैं।माक्र्सवादी पार्टी के नेतागण यह प्रचार कर रहे हैं कि यह मौत भुखमरी से नहीं हुई है। सही है। भूख नाम की कोई बीमारी होती भी नहीं। जब यह बीमारी होती ही नहीं तो इससे लोग मर कैसे सकते हैं? अलबत्ता मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने साहसपूर्वक यह कह दिया, “अमलासोल में अचानक यह सब नहीं हुआ। राज्य में और भी अनेक इलाके हैं जहां गरीबी और भूख की मार पड़ रही है।” सरकारी और पार्टी प्रवक्ता भुखमरी से साफ इनकार कर रहे हैं। भूख से हुई इन मौतों से लोगों को 1942 का भीषण अकाल याद आ गया है। पश्चिम बंगाल और बिहार में अपनी-अपनी तरह की क्रांतिकारी सरकारें हैं। दोनों राज्यों में निरक्षरता का भी बोलबाला है। कई बार तो किसी औरत को डायन बताकर मार दिया जाता है। मां-बाप या पति भी कुछ नहीं कर पाते। बेबसी के साथ बर्दाश्त कर लेते हैं। जब भारत-पाकिस्तान का मैच चल रहा था, उन्हीं दिनों एक खबर आई थी, पति की गैरहाजिरी में पश्चिम बंगाल के स्वास्थ्य विभाग की ओर से बच्चे को पल्स पोलियो की खुराक दे दी गई। पत्नी पहले इनकार भी रही थी लेकिन अंत में मान गई। पति आया, बहुत बिगड़ा और उसने तत्काल पत्नी को तलाक दे दिया। अंधविश्वास, गरीबी, निरक्षरता और भुखमरी तक का आलम है। ऊपर से तुर्रा ये कि यह क्रांतिकारियों की सरकार है। पार्टी के गीत का मुखड़ा है-हम होंगे कामयाब, एक दिन। पार्टी तो 27 साल से कामयाब है। जनता कब होगी? 270 साल में?21
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