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राष्ट्रवाद बनाम साम्यवाद-3… जब मानव समाज बनामाक्र्स की प्रयोगशालाशाहिद रहीमकार्ल माक्र्समाक्र्स जर्मनी में उस वक्त पैदा हुआ जब वहां औद्योगिक क्रांति हो चुकी थी। माक्र्स के जन्म दशक 1820 ई. से उसकी मृत्यु 1883 ई. के बीच का दौर यूरोप में औद्योगिक क्रांति की नयी ऊंचाइयों का दौर था। भाप और बिजली से चलने वाली मशीनों के आविष्कार ने लाखों लोगों को बेरोजगार करके उद्योग-व्यापार का पूरा मैदान थोड़े से मिल-मालिकों के हवाले कर दिया था। उसने देखा, एक मनुष्य दूसरे को लूटता है। वह उस टोली में शामिल हो गया जो जर्मनी, फ्रांस और इंग्लैंड में समाजवादी सिद्धान्त पर बेहतर समाज के निर्माण की कल्पना करते थे। उसने लंदन के प्रसिद्ध पुस्तकालय “ब्रिटिश म्यूजियम” में 35 वर्ष के अध्ययन के बाद महसूस किया कि प्राचीन समाजवादियों के पास अव्यवहारिक संदेशों के अलावा कुछ नहीं है। उसने उक्त काल्पनिक समाजवाद को “यूरोपियन सोशलिज्म” का नाम दिया। अब तक वह मानवतावादी था, अपने अध्ययन से एक नतीजे पर पहुंचकर वैज्ञानिक बन गया। उन्नीसवीं सदी में जर्मन दर्शन, ब्रिटिश अर्थशास्त्र और फ्रांसीसी समाजवाद के रूप में यूरोप की भौतिकवादी चिंतनधारा ने जिन गुणों-अवगुणों की रचना की थी, माक्र्स ने उसे नए क्रम से संकलित किया। उसने इंग्लैंड को सामने रख कर पूंजीवाद की आलोचना की। माक्र्स ने एक कदम आगे बढ़कर जनमानस की प्रतिक्रिया को एक “दर्शन” के रूप में संकलित किया, जबकि यह दर्शन भी शोषण की एक नयी शक्ल था, जिसे माक्र्स ने अपने शब्दों में कहा- “बेदखल करने वालों को बेदखल कर दिया जाए।” (कैपिटल वाल्यूम-1 पृ. 763- मास्को-1954) माक्र्स की प्रसिद्ध पुस्तक जिसका प्रचलित नाम “दास कैपिटल” पूंजीवादियों के जुल्म की अनेक कहानियां हैं, जिन्हें पढ़कर समाजवादी चिंतक बट्रन्ड रसल ने अपनी किताब “रोड्स टू फ्रीडम” में लिखा-“माक्र्स समाजवादी क्रांति का भविष्यवक्ता है, (झंडाबरदार नहीं)- (पृष्ट-9)”,काल्पनिक समाजवाद के झंडाबरदारों का मत था कि बुनियादी आर्थिक गतिविधियां सरकारी नियंत्रण में रहनी चाहिए, ताकि परम्परागत न्याय व्यवस्था के अनुसार काम चलता रहे। वैज्ञानिक समाजवाद के प्रवर्तक माक्र्स ने कहा- “समस्या सरकार के नियंत्रण या निगरानी की नहीं है। असली समस्या यह है कि “पूंजीवादी समाज” में तमाम लोग वैयक्तिक जरूरत और स्वार्थ के लिए जीते हैं, स्वार्थ इसलिए मौजूद है कि वितरण और विनिमय की व्यवस्था पूंजीवादी है, अगर साम्यवादी व्यवस्था लागू कर दी जाए तो मानव समाज का विचार भी बदल जाएगा।”इस दृष्टिकोण से माक्र्स ने मानव समाज के तीन युग निर्धारित किए। माक्र्स के समक्ष मानव समाज एक विकसित यथार्थ है। वह अपने आन्तरिक नियम के अनुसार न्यूनतम स्थिति से महत्तम स्थिति की ओर यात्रा करता है। इस यात्रा के अनुसार मानव समाज के तीन स्वरूप हैं पंूजीवादी, समाजवादी और साम्यवादी समाज।इन तीनों समाज की उत्पत्ति आर्थिक कारणों से होती है, जो समाज में उत्पादित अनिवार्य भौतिक वस्तुओं के लेन-देन पर आधारित है। दरअसल “साम्यवादी समाज” की कल्पना एक फरेब है, जिसमें न सिर्फ माक्र्स, एंजेल्स, लेनिन बल्कि आधी दुनिया कई दशकों तक फंसी रही, परन्तु किसी भी तरह यह सपना पूरा न हुआ, न कभी होगा।फ्रांस: ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी में औद्योगिक विकास के कारण जब पंूजीवादी समाज और अधिक शक्तिशाली हुआ तो उसके शोषण के तरीकों में क्रूरता, बर्बरता और अस्पृश्यता की वृद्धि भी हुई। नतीजा यह हुआ कि मालिकों के जूते खाकर भी खुश रहने वाले मजदूर बेचैन हो उठे। माक्र्स और एंजेल्स ने 1864 ई. में “कम्युनिस्ट घोषणापत्र” के माध्यम से उन्हें मालिकों के खिलाफ खड़े होने की प्रेरणा दी और पहला अन्तरराष्ट्रीय मजदूर संघ बनाया। जिनेवा में कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल की पहली बैठक 1866 ई. हुई और पूंजीवादी समाज को सैद्धांतिक विपक्ष की संज्ञा देने के बाद प्रयोग के रूप में दुनिया के पहले सर्वहारा शासन की स्थापना अक्तूबर, 1870 ई. में की गई। “पेरिस कम्यून” नामक सरकार ने 1871 ई. में चर्च की संपत्ति जब्त करके उसे राष्ट्रीय संपत्ति घोषित किया, पांथिक प्रतीक, चित्र, उपदेश, प्रार्थना को विद्यालयों से हटा दिए गए, युद्ध में जीत कर लाई गई तोपों को गलाकर बनाया गया नेपोलियन विजय स्तम्भ ध्वस्त कर दिया गया। लेकिन कम्यून के अध्यक्ष “एडोल्फ थियेर्स” ने पूंजीपति वर्ग के हित में “प्रशा” की सेना को शहर में प्रवेश देकर तरकीबन 26000 मजदूर सैनिकों की गर्दनें कटवा दीं। पूरे आठ दिनों के खूनी खेल के बाद फ्रांस का पहला “मजदूर गणराज्य” ध्वस्त हो गया।इस पहली ही पराजय के बाद माक्र्स ने “सर्वहारा के अधिनायकत्व” का सिद्धांत खोज निकाला और कहा- “लाल लोकतंत्र पेरिस के ऊपर से झांक रहा है।” परन्तु माक्र्स के सपनों की क्रांति दिवास्वप्न साबित हुई।रूस : कार्ल माक्र्स की विचारधारा पर ईमान लाने वाला पहला व्यक्ति एंजेल्स था, दूसरा निकोलाय लेनिन, जिसने परिवर्तन की आर्थिक पद्धति के माक्र्स वादी दर्शन का पुनप्र्रयोग किया, लेकिन अंतत: वह भी नाकाम रहा। 1917 ई. में लेनिन ने विनमय मूल्य पर आधारित अर्थव्यवस्था को बेरहमी से तोड़कर लागत मूल्य के आधार पर नये समाजवादी समाज के निर्माण की ओर कदम बढ़ाया। उसने अतिरिक्त मूल्य में सर्वहारा के अधिकार की घोषणा के साथ “रूस” में अपनी सत्ता स्थापित की। एक वर्ग दूसरे वर्ग को लूट रहा है इसलिए अब शासन उन लोगों के हाथों में होना चाहिए जो उसकी परेशानियों का एक नया दौर भी शुरू हुआ और बहुत जल्दी यह सिद्ध हो गया कि केवल भौतिक परिवर्तन से आदर्श में परिवर्तन संभव नहीं है। सेना और पुलिस की गतिविधियां जार काल से ज्यादा तेज हो गईं; रही-सही स्वतंत्रता चली गई, हर कोई दूसरे की संपत्ति को अपना समझकर लूटने लगा। अंतत: प्रमाणित हुआ कि रसायन विज्ञान के नियम मानव जीवन पर लागू नहीं हो सकते।यही कारण था कि मात्र 4 वर्ष बाद 1921 में लेनिन की सलाह पर पार्टी को बदमाशों, बेइमानों, अधूरे साम्यवादियों और नौकरशाहों से मुक्त करने की मुहिम चली तो एक ही झटके में 1 लाख 70 हजार सदस्य पार्टी से बाहर कर दिए गए, जो कुल सदस्य संख्या का 25 प्रतिशत था। 1937-38 ई. में स्तालिन ने पार्टी के बेईमान और चोर सदस्यों को गिरफ्तार करके गोली मार दी। मारे गए लोग कुल सदस्यों की 70 प्रतिशत संख्या में थे।आज साम्यवादी विचारधारा के लेनिनवादी, माक्र्सवादी और माओवादी सभी सिद्धांत मानव कल्याण और शांति स्थापना की दिशा में व्यवहारिक धरातल पर असफल सिद्ध हो चुके हैं, क्योंकि उनमें आत्मिक सुधार अथवा विवेक परिवर्तन के लिए कोई अनुच्छेद लिखा ही नहीं गया। साम्यवादी ग्रंथों में बेईमानी, चोरी और शोषण कर्म से रहित जीवन जीने के उपाय नहीं बताए गए हैं। आत्मा से ही विवेक और शरीर का संचालन प्रतिपादित होता है, साम्यवाद ने आत्मा को ही नकार दिया। भारतीय बुद्धिजीवियों ने जब साम्यवादी विचारधारा के संवाहक की हैसियत से हिन्दुस्थान में प्रगतिशील आंदोलन की शुरुआत की तो सबसे पहले उन्होंने धार्मिक मनोवृत्तियों और संस्कृति को नकारने की परम्परा विकसित की।धर्म-संस्कृति को नकारने की मुहिम के लिए साम्यवादियों ने हमेशा मुसलमानों को इस्तेमाल किया। यहां तक कि कई मुस्लिम बुद्धिजीवियों से एक वसीयत भी लिखवायी कि मृत्यु के बाद उनकी लाश जला दी जाए। न्यायाधीश हिदायतुल्ला, इस्मत चुगताई, बदरुद्दीन तैटयब, सफदर हाशमी कई नाम हैं, जिन्होंने महान लेखक बनने की कीमत अपनी लाशें जलवाकर चुकाई। प्रसिद्ध निबंधकार जोए. अंसारी (मुम्बई) भी साम्यवादी खेमे में रहे। लेकिन जब उन्होंने अपनी लाश जलवाने की वसीयत लिखने से इनकार किया तो उन्हें पूंजीपतयिों का दलाल कहा जाने लगा। यह सारा किस्सा स्वयं अंसारी ने दिल्ली में आयोजित कई गोष्ठियों में बयान किया था। यदि धर्म-परिवर्तन या धर्म-संस्कृति का बहिष्कार इतना ही अनिवार्य है तो ऐसी शर्त साम्यवादियों ने केवल मुसलमानों के लिए क्यों रखी? कोई हिन्दू साम्यवादी अपनी “लाश” दफनाने की वसीयत क्यों नहीं कर सका?राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद् या भारतीय जनता पार्टी जैसे संगठनों को तो मुसलमानों के संदर्भ में केवल बदनाम किया गया है, जबकि धार्मिक स्वतंत्रता के लिए सबसे बड़ा खतरा साम्यवादी हैं। वस्तुत: “धार्मिक इजारेदारी” की संकल्पना भी साम्यवादियों को यूरोप से ही मिली है। धर्म सुधार आंदोलन के यूरोपीय नायक जॉन विकलिफ ने जब यह महसूस किया कि ईसाई मत में समाज के लिए मनुष्य के कत्र्तव्य को रेखांकित ही नहीं किया गया है, तो वह बेचैन हो गया। आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के उस विद्वान शिक्षक ने 1370 ई. में मानव कल्याण का व्रत लिया और 14 वर्ष तक चर्च व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार और केवल अपने कल्याण के लिए जीने वाले ईसाई पादरियों को “मानव कल्याण” के लिए आगे आने का निमंत्रण देता रहा। वह ईसाई पादरियों द्वारा संपत्ति संचयन और भोग-विलास में संपत्ति के क्षय को रोकने की मांग कर रहा था। पोप के आदेश से उसकी मृत्यु के बाद 1384 ई. में उसकी लाश कब्रा से निकाल कर कूड़े पर फेंक दी गई। जॉन विकलिफ के अनुयायी लोलार्ड संप्रदाय का सामूहिक वध किया गया। 1415 ई. में उसके सैद्धांतिक उत्तराधिकारी जान हस को जिंदा जलाया गया।बिटेनबर्ग विश्वविद्यालय, जर्मनी में दर्शनशास्त्र के अध्यापक मार्टिन लूथर को ईसाइयत में अपार श्रद्धा के कारण एक चर्च का पादरी नियुक्त किया गया। अपनी रोम यात्रा में जब उसने देखा कि पोप धन संग्रह के लिए, ईसाई नागरिकों को स्वर्ग का टिकट बेच रहा है, तो वह चौंका- “कोई मरने के बाद नरक जाने से बचना चाहता है, तो एक निश्चित राशि देकर पोप से इंडलजेन्स (मुक्ति-पत्र)” खरीद सकता है, यह टिकट कब्रा में लाश के साथ रखने की प्रथा थी, जिस पर “पोप” के हस्ताक्षर होते थे। मार्टिन लूथर ने इस नाजायज धंधे का विरोध किया और सुधार आंदोलन सड़कों पर उतर आया। भवन शिल्पी “माइकल एंजेलो” के निर्देशन में सेंट पीटर चर्च की विशाल इमारत का पुनर्निर्माण करने के लिए 1517 ई. में रोमन पादरी तेतजेल ने जर्मनी आकर “मुक्ति-पत्र” बेचने की एक दुकान ही खोल ली थी। मार्टिन लूथर ने वह दुकान उखाड़ दी। पोप ने क्रुद्ध होकर 1920 ई. में उसे ईसाई समाज से बहिष्कृत कर दिया। लूथर ने बिटेनबर्ग के खुले बाजार में पोप का “फतवा” जला दिया, जनता उसके साथ थी।सत्ता और संपत्ति के लिए जनमानस का रक्तपान करने वाले धर्माधिकारी “यूरोप” और अरब के इतिहास में भरे पड़े हैं। इसके विपरीत हिन्दुओं में “मानव कल्याण” के प्रति प्रगाढ़ और अगाध श्रद्धा है।23
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