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सम्पादकीय

by
Apr 7, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 07 Apr 2004 00:00:00

रक्खो हिन्दूपन का गर्व, यही ऐक्यसाधन का सर्व।

हिन्दू, निज संस्कृति का त्राण, करो, भले ही दे दो प्राण।।

-मैथिलीशरण गुप्त

ताकि “वे” खुश रहें

शिक्षा के साथ छेड़छाड़ पहली बार हो रही है, ऐसा नहीं है। दरअसल आजादी के बाद से ही माक्र्सवादी तत्वों और स्वयंभू बुद्धिजीवियों ने देश की धर्म-संस्कृति की धारा को विरल करने के प्रयास शुरू कर दिए थे। इस दृष्टि से शिक्षा और संचार माध्यमों को निशाना बनाया गया। राधाकृष्णन आयोग (1945-1949), कोठारी आयोग (1964-1966), राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986), राममूर्ति समिति (1990), केन्द्रीय शिक्षा परामर्शदाता बोर्ड की शिक्षा नीति समिति (1992) और कई बार की संसदीय स्थायी समितियों की उपेक्षा की जाती रही है। इतिहास के भ्रामक स्वरूप को छात्र पढ़ने को मजबूर किए जाते रहे। निवर्तमान वाजपेयी सरकार ने इस दिशा में सकारात्मक कदम उठाए तो कुछ आस बंधी थी। लेकिन नई संप्रग सरकार ने आते ही पहली चोट इसी पर की और आनन-फानन में कई नामों से समितियां गठित कर दी गईं। “भगवाकरण” का हौव्वा खड़ा करके आस्थाओं पर चोट के बहाने तलाशे जाने लगे। पं. नेहरू ने शिक्षा के आध्यात्मिकरण की बात की थी, एनी बेसेंट ने भारतीयकरण की तो भगिनी निवेदता ने इसमें राष्ट्रीयकरण का पुट भरने की वकालत की थी। क्या ये राष्ट्रीय विभूतियां “विषैलाकरण” की हामी थीं?

एन.सी.ई.आर.टी. को केन्द्र बनाकर अर्जुन देव और रोमिला थापर सरीखे लाल कार्डधारक इतिहासज्ञों के चश्मे से जो दिखेगा अब वही पढ़ाए जाने की मुहिम छेड़ दी गई। “विषैलाकरण खत्म होगा” का अर्थ क्या है? उच्चतम न्यायालय के निर्णयों को फाइलों में ढांप कर रखा जा रहा है। 12 दिसम्बर, 2002 के अपने निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने साफ कहा था कि (एन.सी.ई.आर.टी.के.) पाठ्यक्रम में भारतीय संविधान और पंथनिरपेक्षता के विरुद्ध कुछ भी नहीं है। पर नहीं, बदलेंगे सब कुछ। बदले की भावना बलवती दिखती है। नए सिरे से पाठ्यक्रम बदले जाएंगे, करोड़ों रुपए व्यय करके, नई पुस्तकें छापी जाएंगी और परोस दी जाएगीं छात्रों के आगे कि पढ़ो इन्हें। छात्रों के दिलोदिमाग में भारत के गौरवशाली इतिहास की जो भ्रामक छवि बनती हो, बने। पर ए.के. गोपालन भवन में पोलित ब्यूरो के चेहरे पर मुस्कान को बिखर ही जाएगी।

26 जून का तीसवां साल

26जून, 1975 को कांग्रेसी प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने भारत पर आपातकाल लगाया था। उसे आज 29 वर्ष हो गए। उस समय देश के सभी के लोकतांत्रिक अधिकार खत्म कर दिए गए थे और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर ताला जड़ दिया गया था। तब भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेतृत्व में लोकतंत्र की बहाली का ऐसा प्रबल आन्दोलन प्रारम्भ हुआ, जो अन्तत: जनता पार्टी के जन्म तथा लोकतांत्रिक शक्ति के नूतन सामंजस्य एवं समन्वय का प्रारंभ-बिन्दु बना। यद्यपि वह प्रयोग पूर्णत: सफल नहीं हुआ और श्रीमती गांधी पुन: सत्ता में आईं, यह अलग विषय है, लेकिन सत्ता के अलोकतांत्रिक व्यवहार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खत्म होने पर खिलखिलाते हुए सत्ता से सुख बटोरने वाले पत्रकार और सत्ता की दरिंदगी को खुशी-खुशी लागू करने वाले अफसरशाह इस बात का सबक देते हैं कि जो इतिहास से सीखकर अपने वर्तमान और भविष्य को ठीक नहीं करते हैं, वे उसका वहशीपन और बढ़ाते हैं। सतत जागरूकता ही नहीं, बल्कि सतत संघर्ष की क्षमता ही ऐसे खतरों के प्रति सजग रख सकती है। एक बार घोषित आपातकाल हुआ था। देखना होगा कि अब कभी भी कोई सरकार न तो घोषित और न ही अघोषित आपातकाल लगाने की हिम्मत कर सके। जे.पी. आन्दोलन, भाजपा-संघ के कार्यकर्ताओं, अकाली दल के कार्यकर्ताओं का अभिनन्दन और साधुवाद, जिन्होंने हिम्मत न हारी और लोकतंत्र की लाज बचाई।

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