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राजनीति नहीं संस्कृति साथ देती है-सुधाफर्क तो है! प्राकृतिक नहीं; बनावटी, इस देश के स्वभाव के विपरीत। सन्दर्भ है दो समाचारों का, जिनका प्रसारण इसी 19 सितम्बर को एक टी.वी. चैनल पर एक साथ ही किया गया। इन दोनों का एक ही समाचार श्रृंखला में आना महज एक संयोग रहा होगा, लेकिन यह बहुत बड़ा संकेतक बन गया है। पहला समाचार था कि कारगिल युद्ध के दौरान एक भारतीय सैनिक लापता हो गया, उसका कोई सुराग नहीं मिलने के कारण उसे भगोड़ा घोषित कर दिया गया था। उस मुसलमान युवक के परिवार में मां-बाप के अतिरिक्त गोद में एक दुधमुंही बच्ची के साथ कमसिन बीबी गुड़िया भी थी। उधर सीमा पर लड़ रहे उस सैनिक के साथ वह हादसा हुआ और इधर उसकी बीबी को गोद का बच्चा त्याग कर एक दूसरे पुरुष के साथ जाने को मजबूर होना पड़ा। क्यों? क्या वह कहीं भागी जा रही थी? क्या उसे अपने असली पति से प्रेम नहीं था? नहीं, ऐसी कोई बात नहीं थी। बात यह थी कि एक युवती के द्वारा बच्चे पैदा करने का सिलसिला नहीं थमना चाहिए था। इसलिए शीघ्रातिशीघ्र उसे एक दूसरे पुरुष के पास भेज दिया गया और आनन-फानन में वह फिर गर्भवती हो गई। यह सब सिर्फ ढाई वर्षों के अंतराल में हो गया। अब जब कि वह युवक पाकिस्तान की जेल से छूट कर आ गया है, उसने अपनी पत्नी वापस ले ली, क्योंकि उसने तो उसे कभी छोड़ा ही नहीं था। यह सब उसकी पत्नी की भी मर्जी से नहीं हुआ था। इस पूरे प्रकरण में मजहब का वास्ता दिया जाता रहा। उस युवती के गर्भ में जो बच्चा है, उसका भविष्य अधर में कहा जा रहा है।दूसरा समाचार था उड़ीसा के समुद्र तट पर बसे एक गांव का। वहां के कुछ मछुआरे बारह साल पहले अपनी डोंगियों पर समुद्र में बहुत दूर निकल गये और फिर नहीं लौटे। उन सब की पत्नियां अब भी हर शाम उनके लौटने की आशा में समुद्र के किनारे जाकर राह देखा करती हैं। वे माथे पर सिन्दूर, हाथ में चूड़ियां और दूसरे सुहाग चिन्ह सावधानी से धारण किये रहती हैं। उनके मन का विश्वास उन्हें प्रतीक्षा का बल देता है। परिवार और समाज उनकी भावनाओं का सम्मान करता है।दोनों घटनाएं भारतीय नारी से ही सम्बन्धित हैं, लेकिन इतना अन्तर क्यों? अन्तर सांस्कृतिक कारणों से है। यहां जो लोग मुसलमान बनाये गये उन्हें भारत विरोधी भी बनाने का प्रयास चलता रहा है। किसी देश के विरुद्ध वातावरण तैयार करने का सबसे कारगर उपाय होता है, वहां की संस्कृति के विपरीत काम करना। वही हुआ, भारतीय संस्कृति के विरुद्ध जाकर एक देह-प्रधान जीवन पद्धति लादी गयी। भारतीय मुसलमान इसी देह-बद्धता के कारण भारतीय संस्कृति से विचलित हुए।इसमें सबसे घाटे में है मुसलमान स्त्री। उसके जीवन में हर तरह की त्रासदी तलवार बनकर लटकी रहती है। वह एक पुरुष की चार बीबियों में एक बनी रहने को भी विवश हो सकती है और चार मर्दों की बीबी बनने की भी घटनायें उसके जीवन में आसानी से घटित करा दी जा सकती हैं और सब पर “मजहब” की मुहर लगा दी जाती है। भारत का राजनीतिक वातावरण मुसलमान स्त्री को वह दर्जा नहीं दिला पाया जो भारतीय संस्कृति सहज ही उसे दे सकती है। एक मुसलमान स्त्री को अपने प्रियतम की प्रतीक्षा करने का अधिकार नहीं है। आत्मा की बात अभी रहने दें, उसके पास तो ह्मदय या मस्तिष्क है ऐसा भी नहीं माना जाता; वह केवल देह मानी जाती है। फर्क का कारण यही है।31
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