दिंनाक: 02 Feb 2003 00:00:00 |
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वापसीकृपाचार्य? उन्हें तो किसी से द्वेष नहीं था। इतना रक्तपात देखकर भी कृपाचार्य का मन क्यों नहीं बदला? केवल अ·श्वत्थामा के कारण? … हां! वे अपने भागिनेय के ही साथ थे। … और अ·श्वत्थामा पांचालों का मित्र कभी हो नहीं सकता था। वह तो पांचालों का तब भी शत्रु था, जब यह युद्ध आरंभ नहीं हुआ था। आचार्य द्रोण तो हस्तिनापुर आए ही उस शत्रुता के कारण थे और अब तो धृष्टद्युम्न के हाथों द्रोण का मस्तक कट चुका था। अ·श्वत्थामा उन पांचालों के प्रति मध्यस्थ अथवा उदासीन कैसे हो सकता था।… वह इस विजय को पांडवों की नहीं, पांचालों की विजय मानेगा। इस राज्य को पांडवों का नहीं, पांचालों का राज्य मानेगा। इनमें से सब किसी न किसी के द्वेष के कारण रक्त-पिपासु दुर्योधन के साथ हैं। एक कृपाचार्य ही अपने प्रेम के कारण उधर हैं।…युधिष्ठिर के पास दूत आते रहे और सूचनाएं देते रहे। उनकी सैनिक टोलियां कहां-कहां घूम रही हैं, कहां-कहां घूम आई हैं; किंतु दुर्योधन और उसके साथियों का कहीं कोई चिह्न भी नहीं मिला था।…मुक्त कर दिए जाने पर संजय ने अपना कवच उतार दिया। शस्त्रास्त्र त्याग दिए; और रक्त से भीगा हुआ शरीर लेकर वह हस्तिनापुर की ओर चला गया।युयुत्सु भी आया था युधिष्ठिर के पास। वह हस्तिनापुर लौट जाना चाहता था, ताकि वहां बचे हुए लोगों की रक्षा कर सके। वह युधिष्ठिर से अनुमति लेने आया था। हस्तिनापुर में अब कोई शासन नहीं रह गया था। अराजकता फैल जाने का पूरा-पूरा भय था। युद्धभूमि से बच कर भाग आए, भगोड़े सैनिक लुटेरे भी बन सकते थे। हस्तिनापुर के अपने आरक्षी भी तो लूट-पाट कर सकते थे। अब हस्तिनापुर में कौन बैठा था, जो वहां की संपत्ति की रक्षा करता। शासन समाप्त हो जाने के कारण अन्य अनेक दुर्वृत्त भी अपराध की ओर प्रवृत्त हो सकते थे। हस्तिनापुर में युयुत्सु का रहना आवश्यक था। उसने यह भी बताया था कि कौरवों के शिविर में भयंकर आतंक था। वहां स्त्रियां थीं। धन था। उनकी रक्षा के लिए बच गए लोग असमर्थ थे। वे किसी के भी आक्रमण से शिविर की रक्षा नहीं कर सकते थे। रक्षकों ने कौरव स्त्रियों को साथ लेकर, नगर की ओर प्रस्थान की तैयारी कर ली थी; किंतु उन्हें भय था कि पांडव सैनिक इतनी सुविधा से उन्हें इस प्रकार निकल नहीं जाने देंगे। अपनी विजय के पश्चात् सैनिक अपना प्रतिशोध और पुरस्कार लूट के रूप में चाहता है।… स्त्रियां अपने पतियों, भाइयों और पुत्रों को स्मरण कर आत्र्तनाद कर रही थीं।… युयुत्सु ने दुर्योधन का भी समाचार दिया था। संजय ने उसे शिविर से लगभग एक कोस दूर, हाथ में गदा लिए हुए अकेले खड़ा देखा था। उसके शरीर पर बहुत सारे घाव थे। संजय को देखकर उसकी आंखों में अश्रु भर आए थे।… युयुत्सु ने बताया था कि संजय को कृपाचार्य अपने रथ पर कौरवों के शिविर तक ले आए थे। वे चिंतित थे कि दुर्योधन को यह सूचना शायद नहीं है कि वे, अश्वत्थामा और कृतवर्मा अभी जीवित हैं। यदि दुर्योधन उनको मिल जाता तो वे लोग मिल कर कुछ कर सकते थे।…एक-एक कर पांडवों की खोजी टोलियां भी शिविर में लौट आईं। सब ही थके हुए थे। व्यर्थ ही रातभर बाहर घूमना किसको प्रीतिकर लगता?… द्रौपदेय लौट आए थे, नकुल, सहदेव आ चुके थे, शिखंडी और धृष्टद्युम्न भी शिविर में आ गए थे। कृष्ण और अर्जुन भी कोई सूत्र नहीं लाए थे। और अंत में भीम भी लौट आया था। दुर्योधन के विषय में कोई सार्थक समाचार नहीं मिला था। संध्या समाप्त हो रही थी। रात्रि से पहले कुछ होना अब संभव नहीं लगता था। जो होगा, कल प्रात: ही होगा…(क्रमश:)7
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