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द दीनानाथ मिश्रएक जमाना था जब समाजवाद आसमान की तरह हुआ छाया था। बाढ़ के पानी की तरह फैला रहता था। नेताओं के भाषणों की तरह लम्बा होता था। पण्डों के पेट की तरह गोल होता था। सच तो यह है कि फुटबाल ने अपनी गोलाई पण्डों के पेट की तर्ज पर ही बनाई। समाजवाद सर्वशक्तिमान था, सर्वकश या सर्वव्यापी था। वह भाषण में था, कविता और नाटक में भी बसता था, गीत और संगीत में था, यत्र-तत्र, सर्वत्र था, भविष्यवाणियों में विचरण करता था।बच्चा पैदा होते ही समाजवादी हो जाता था। इक्के-दुक्के लोग जो समाजवादी नहीं होते थे, उन्हें पागल समझा जाता था। जो समाजवाद पर शक करते थे, उन्हें सिरफिरा की परिभाषा समझा जाता था। यही एक शब्द था जिसमें अक्षर तो सिर्फ पांच थे, मगर उसकी इज्जत 500 खण्डों के दर्शन से कम नहीं थी। यह मंत्र था, नारा था, औजार था, हथियार था। अलादीन का चिराग था। भिखारी से लेकर सेठ करोड़ीमल तक सब समाजवादी होते थे। यहां तक कि सेठ जी की लम्बी गाड़ी, शेख साहब की लम्बी दाढ़ी, माडल मेहर की लम्बी साड़ी, सब के सब समाजवादी होते थे। झुण्ड के झुण्ड समाजवादी नारा लगाते निकलते थे। रोटी, कपड़ा और मकान, मांग रहा है हिन्दुस्थान। समाजवाद खादी पहनता था।मुझे समाजवाद बचपन से ही बहुत अच्छा लगता था। उसका एक घोष वाक्य था- धन और धरती बंट के रहेगी। टाटा, बिरला मुर्दाबाद। इधर हमारी हालत यह थी कि कम से कम 5 पुश्तों से जिसे मैं मातृभूमि कहता हूं, उसमें एक इंच जमीन भी कभी नहीं रही। सोच सकते हैं कि किराए की जमीन पर बिस्तर लगाने वाले को धरती के बंटने का संदेश कितना अच्छा लगता होगा। धन के मामले में भी ऐसा ही था। पहली नौकरी लगी, तब वेतन था नकद 45 रुपए। उन दिनों पैसे वाले एक सज्जन मिले तो मैं पूछते-पूछते रह गया कि भाई साहब, आप करते क्या हैं? इतना पैसा कैसे कमा लेते हैं? किस काम में इतना पैसा पैदा होता है? जरा हमको भी बताइए। सोचता था कि या तो कम्बख्त महीना ही 15 दिनों का हो जाए या समाजवादी जादू से मेरा वेतन 90 रुपए हो जाए। यह सोचकर मैं खुश होता था कि हमारी धरती के पहले धन बंटेगा और मेरी हालत भी सुधरेगी। मेरी मां को भगवान पर भरोसा था और मुझे समाजवाद पर।कई दशक गुजर गए। सात-आठ पंचवर्षीय योजनाएं गुजर गईं। एक दौर में तो इतनी बेचैनी हुई कि हर शाम मैं स्टेशन पर गाड़ी आने के पहले जाता था। समाजवाद के उतरने का इंतजार करता था। जिस दिन विलम्ब से पहुंचता, उस दिन स्टेशन मास्टर से जाकर पूछता- आज गाड़ी से समाजवाद उतरा था क्या? स्टेशन मास्टर मुझे टाल देता। मैं यह सोचता घर लौट आता कि कभी तो समाजवाद उतरेगा। उम्मीद पर दुनिया कायम है। करोड़ों लोग समाजवाद पर उम्मीद लगाए बैठे थे। जब बहुत वर्षों तक इंतजार का फल नहीं निकला तो मन में यह धारणा बन गई कि हो न हो, टाटा-बिरला ही समाजवाद को आने नहीं दे रहे। तब तक मैं खासा समझदार हो गया था। अपने हर काम और हर मनोकामना को पूरा करने का जिम्मा सरकार का मानने लग गया था। मगर कब तक लोग उम्मीद के सहारे पड़े रहते। लोगों के भी सपने टूट गए। समाजवाद से लोगों का भरोसा जाता रहा। समाजवाद का जादू खत्म हाने लगा।एक दिन एक सज्जन समाजवाद पर बहस करने आ गए। मैं तो समाजवाद पर डटा हुआ था। मैंने कहा, “मुझे मालूम है, समाजवाद कहां है। मैं आपको समाजवाद का स्थायी पता बता सकता हूं। इस पते से समाजवाद को कोई नहीं निकाल सकता। समाजवाद यहां स्थायी रूप से डटा है और डटा रहेगा। मैंने भारत का संविधान निकाला और उसमें समाजवाद का पता-ठिकाना निकाल कर दिया। इस संवैधानिक ठिकाने पर वह बिस्तर लगाकर लेटा है। यहां यह पूर्णत: सुरक्षित है। जेड श्रेणी के सुरक्षा कवच में समाजवाद यहां सदा-सर्वदा के लिए विराजमान रहेगा। हर आम और खास के लिए यह जानकारी मैंने बहुत परिश्रम से उपलब्ध करा दी है। मैं समाजवाद को बधाई देता हूं। इसने बड़े जद्दोजहद से अपने देश में पूंजीवादी सम्पन्नता की जहरीली संस्कृति को अकेले के दम-खम पर रोके रखा। वह एक नारा भी था। अब संविधान के संग्रहालय में स्थायी निवास के लिए आ गया। समाजवाद की तरह पूंजीवाद भी गुजर जाएगा। लड़ने-मारने की तैयारी तो चल ही रही है। द5
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