|
माता,तुम तो प्रकृति मां होदया करोअपनी संतति पर दया करोविकराल रूप मत धरो।वह अबोध अजन्मा शिशुजो सोया था सुख से मां के पेट मेंवह नन्ही कली जो थी भुज की परेड मेंवह किशोर जो देश का भविष्य थालगा रहा था छज्जे में देश का झंडावह जो अभी-अभी मिल की पारी सेथक कर था घर लौटाअचानक तुममें रोष व्यापातुम्हारा शरीर कांपाहुए जड़-चेतन सब धराशायीमाता, तुम्हारी ममता हुई परायीगिनती ही नहीं हो पाईहे पालनहारा,तुम्हें तनिक भी दया नहीं आयीदया करो, माता,अपनी संतति पर दया करोविकराल रूप मत धरो।और कितना रोष, माता?मोरवी को भूले न थेलातूर से उबरे न थेउत्तरकाशी का आतंक ताजाउड़ीसा का तूफान करताआज भी तकाजाबंगाल की नदियों की गरज-तरजविकराल बाढ़ नाची थी लरज-लरजमाता, ये तेरे गण क्यूं करते मनमानीगुर्जर भूमि में क्या करने की ठानी?माता, ये तेरे सौ करोड़ पुत्र शिव बनकरतेरे पैरों में लोटते हैं, शांत हो माता,शांतम्, शांतम्, शांतम्त्राहि माम्, हे धरित्री, त्राहि माम्तुम तो धारण करती हो, माता होअपनी संतति पर दया करोविकराल रूप मत धरो।– विमल लाठ11
टिप्पणियाँ