दिंनाक: 12 Sep 2001 00:00:00 |
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हम सफर पर निकले,तो फूलों ने आवाज दी-रुकना जरा,लेकिन मन था-हवाओं का आंचलकैसे रुक जाता?हम कदमों में-विश्वास की धरतीऔर बांहों में,संभावनाओं का आकाश समेटेजा रहे थे….रुक जाते तो,विश्वास की चट्टानें दरक जातीं,संभावनाओं का आकाश झुक जाता,पर्वत राहें रोके खड़े थेलेकिन मन था बादल-कैसे रुक जाता?मन तो हम से,धूल भरी राहों पर जाने को कहता था!दूर जहां वादी में,जीवन झरना बनकर बहता था!!और कहीं भीगी आंखों में,खुद ईश्वर आकर रहता था!!!अपना तो था उन राहों से नाता,हंसकर मंजिल ने लाख पुकारा,लेकिन मन था पागल-कैसे रुक जाता?– डा. ऋचा सत्यार्थी32
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