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कही-अनकही

Archive Manager by Archive Manager
Sep 9, 2001, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 09 Sep 2001 00:00:00

अदालत आदेश दे तो…दीनानाथ मिश्रबरसात में जैसे जगह-जगह घास उग आती है, अंधड़ में जैसे यहां-वहां कचरा इकट्ठा हो जाता है, चुनाव में जैसे रंग-बिरंगी टोलियां नारे फहराने लगती हैं, हड़तालें भी वैसे ही एक प्राकृतिक हलचल है। मूड आ जाए तो हड़ताल। साल छह महीने शांति रही तो अजीब सा लगने लगता है। निकम्मापन छाने लगता है। हड़ताल से सक्रियता आती है। जैसे कुछ लोग बिना तिथि बताए टपक पड़ते हैं, वैसे ही हड़ताल भी कई बार अचानक हो जाती है। बिना तिथि बताए आने वाले को अतिथि कहते हैं। ऐसी हड़तालों को भी अतिथि की तरह देखना चाहिए। अतिथियों का सम्मान करने की लम्बी परम्परा है। हड़ताल में भी अतिथि की तरह अनिश्चितकाल तक बने रहने की प्रवृति होती है। जैसे खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है, वैसे ही वाहन हड़तालियों को देखकर बाकी समूहों में भी हड़ताली रंग मिलाने के लिए जी मचलता है।इन दिनों अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में हड़ताली मौसम चल रहा है। अस्पतालों में साल में दो-चार बार हड़ताल न हो तो यूनियन और उनके सदस्यों को नाकारा और बेजान समझा जाता है, सो अपनी इज्जत की खातिर लोग हड़ताल पर चले जाते हैं। लोगों को असुविधा होती है। रोगी सबसे ज्यादा परेशान होते हैं। कोई-कोई चल भी बसते हैं। लेकिन इस बार प्रतिष्ठित अस्पताल के हड़ताल के समय बड़ी अच्छी बात हुई। दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपने आप इस मामले को उठा लिया और संस्थान व सरकार को आदेश दे डाला कि हड़ताल को 36 घंटे में खत्म करा डालिए। मुझे अदालतों की यही बात बड़ी अच्छी लगती है। हर हड़ताल का एक व्याकरण होता है। उसकी एक उम्र होती है। उम्र के रहते वह खत्म नहीं हो सकती। मगर अदालत ने आदेश फरमाया है तो हड़ताल को 36 घंटे में खत्म होना ही पड़ेगा।अपने आदेश में अदालत ने कहा है कि जरूरत पड़े तो अनिवार्य सेवा का भी इस्तेमाल किया जाए। अदालत ने सोचा होगा कि हो सकता है सरकार को इस कानून की मौजूदगी का स्मरण न हो। सो उसने याद दिला दिया। अदालत का हुक्म है, मानने के अलावा कोई चारा नहीं है। हमने कई बार देखा है अदालत स्थगन आदेश देती है और स्थगन लागू हो जाता है। कोई अवैध निर्माण का तोड़ा जा रहा हो, स्थगन आदेश आते ही तोड़ना रुक जाता है। कई अदालतों में स्थगन आदेश प्राप्त करना बाएं हाथ का खेल होता है। कोई चाहे तो डिलीवरी के केस में भी स्थगन आदेश ले सकता है। इस हड़ताल को खत्म करने के लिए 36 घंटे की मोहलत दी गई है। समयाबद्ध फैसले से मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है। उम्मीद बंधी है कि कभी कोई बड़ी अदालत एक साल में बांध बनाने का काम खत्म करने या दो साल में पूर्ण साक्षरता प्राप्त करने अथवा 3 साल में सबको रोजगार मुहैया कराने या फिर चार साल में सबकी गरीबी दूर करने का आदेश भी दे सकती है।कितना अच्छा होता पहले ही हफ्ते में बाल्को हड़ताल को खत्म करने का ऐसा ही आदेश कोई सम्बंधित बड़ी अदालत दे डालती। ऐसा होने पर वह हड़ताल कई महीने चलने के बजाए पहले हफ्ते में ही खत्म हो जाती। वैसे हड़ताल से निपटने का काम सरकार का है। लेकिन अनिवार्य सेवा होने के कारण अस्पताल की हड़ताल को 36 घंटे की मोहलत दे दी। ऐसा करते हुए अदालत ने अनिवार्य सेवाओं के मामले में हड़ताल खत्म करने का काम एक अर्थ में अपने जिम्मे ले लिया। सरकारें तो सुस्त होती ही हैं। जनता की तकलीफों की कोई चिंता नहीं करतीं। अदालतों को ऐसे मामलों की कोताही कतई बर्दाश्त नहीं। अब अदालत ने ऐसे फैसले देने चालू किए हैं तो मैं उम्मीद कर सकता हूं कि विभिन्न अदालतों में लम्बित पड़े ढाई करोड़ मुकदमों के बारे में भी कोई न्यायाधीश सामने आएंगे और आदेश दे देंगे कि इन ढाई करोड़ मुकदमों को अदालतें एक साल के अंदर निपटा दें। अदालत अपनी बिरादरी को आदेश देगी तो उस आदेश का पालन जरूर होगा। और साल भर बाद पता चलेगा कि अब कोई मुकदमा लम्बित नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे छत्तीसगढ़ के बाद अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में हड़ताल का नामोनिशान नहीं होगा।12

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