बांग्लादेश : संविधान से धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद और राष्ट्रवाद हटाकर “समानता, मानव गरिमा” जैसे शब्दों का छल
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बांग्लादेश : संविधान से धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद और राष्ट्रवाद हटाकर “समानता, मानव गरिमा” जैसे शब्दों का छल

ये तीनों सिद्धांत देश के संविधान में राज्य नीति के मूलभूत सिद्धांत थे और अब इस आयोग की अनुशंसा में केवल लोकतंत्र ही शेष रखा गया है और शेष तीनों को हटाने का प्रस्ताव दिया गया है। आयोग के अध्यक्ष अली रियाज़ ने कहा कि वे लोग राज्य के पाँच सिद्धांतों का प्रस्ताव कर रहे हैं और वे हैं “समानता, मानव गरिमा, सामाजिक न्याय, बहुलवाद और लोकतंत्र”।

by सोनाली मिश्रा
Jan 17, 2025, 09:33 am IST
in विश्व, विश्लेषण
dr muhammad yunus

मोहम्मद यूनुस

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बांग्लादेश में अंतरिम सरकार के संविधान सुधार आयोग ने बुधवार को अपनी रिपोर्ट मोहम्मद यूनुस को जमा की, जिसमें संविधान से धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद और राष्ट्रवाद जैसे शब्द हटाने का प्रस्ताव दिया। इस आयोग का गठन प्रधानमंत्री शेख हसीना के देश छोड़ने के बाद बांग्लादेश की अंतरिम सरकार द्वारा किया गया था। और अब इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी है कि धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, और राष्ट्रवाद जैसे राज्य के सिद्धांतों को हटा दिया जाए।

ये तीनों सिद्धांत देश के संविधान में राज्य नीति के मूलभूत सिद्धांत थे और अब इस आयोग की अनुशंसा में केवल लोकतंत्र ही शेष रखा गया है और शेष तीनों को हटाने का प्रस्ताव दिया गया है। आयोग के अध्यक्ष अली रियाज़ ने कहा कि वे लोग राज्य के पाँच सिद्धांतों का प्रस्ताव कर रहे हैं और वे हैं “समानता, मानव गरिमा, सामाजिक न्याय, बहुलवाद और लोकतंत्र”।

इनमें धर्मनिरपेक्षता को हटाया जाना बहुत ही चौंकाने वाला है। अब राज्य और मजहब के बीच जो नाम मात्र का अंतर था, उसे भी हटा दिया गया है और अब बांग्लादेश सही मायने में इस्लामिक मुल्क बनने की राह पर है। हालांकि वह पहले ही इस्लामिक मुल्क था, मगर वहाँ पर अल्पसंख्यक हिंदुओं, बौद्धों और ईसाइयों को संविधान के धर्मनिरपेक्षता के दायरे में कुछ तो राहतें थीं। परंतु समानता, मानव गरिमा, सामाजिक न्याय, बहुलवाद और लोकतंत्र शब्दों के जाल में उनके पास क्या बचेगा, यह देखना होगा।

इस विषय में बांग्लादेश की निर्वासित लेखिका तस्लीमा नसरीन ने एक्स पर पोस्ट लिखा कि बांग्लादेश के नव प्रस्तावित संविधान में से धर्मनिरपेक्षता को हटा दिया गया है। राज्य और मजहब अब अलग नहीं होंगे, मजहबी कानून बने रहेंगे, मजहबी व्यापार फूलेगा और मजहब आधारित राजनीति जारी रहेगी। जो गैर मुस्लिम पहले से ही असुरक्षित अनुभव कर रहे हैं, उनके भीतर और भी असुरक्षा आएगी।

फिर वे लिखती हैं कि “हम अब बंगाली नहीं रहे; हम सभी बांग्लादेशी हैं। बंगाली जाति का इतिहास गायब हो गया है। बांग्लादेश का जन्म 1971 में हुआ था, और हम सब देश की स्थापना के बाद पैदा हुए हैं! क्या हमारी कोई और पहचान नहीं बची है?”

तस्लीमा ने पहचान की जिस कशमकश की बात की है, वही बात हमने आरंभ से उठाई है कि बांग्लादेश में जो भी कुछ हो रहा है, वह अपनी इस्लामिक पहचान को बनाए रखने के लिए हो रहा है। बांग्लादेश का जन्म हालांकि बांग्ला भाषा के आधार पर हुआ था, और पहचान बंगाली थी। मगर 2024 में जो हुआ है, वह उसे बंगाली पहचान के खिलाफ हुआ था।

यही कारण है कि बांग्ला पहचान के लिए लड़ने वाले शेख मुजीबुर्रहमान के द्वारा लाए गए संविधान को मुजीबवादी-संविधान” कथित छात्र आंदोलन के नेताओं ने कहा था और यह भी कहा था कि वे इस संविधान के खिलाफ एक नया संविधान लाएंगे। उस समय उनका विरोध हुआ था, तो 31 दिसंबर 2024 को होने वाला घोषणापत्र उन्होनें टाल दिया था, मगर अब यह इस रूप में सामने आया है।

समानता, मानव गरिमा, सामाजिक न्याय, बहुलवाद जैसे कम्युनिस्ट शब्दों का झांसा देने वाले लोगों ने शेख हसीना के बांग्लादेश छोड़ने के बाद जो कुछ भी किया है, वह किसी से छिपा नहीं है। सबसे पहले बात समानता की। तो समानता यदि होनी चाहिए तो मुल्क के सभी लोगों के बीच समानता होनी चाहिए थी, मगर धार्मिक पहचान के आधार पर जिस प्रकार हिंदुओं और बौद्धों के साथ अन्याय किया गया, वह किसी से छिपा नहीं है। समानता की बात करने वाली यूनुस सरकार में हिन्दू प्रोफेसर्स को अपनी नौकरियों से हाथ धोना पड़ा। उनसे जबरन इस्तीफे लिखवाए गए।

मंदिरों पर हमले किये गए, मंदिर जलाए गए और साथ ही उनके व्यापारिक प्रतिष्ठानों पर भी हमले हुए। हालांकि हाल ही में यह रिपोर्ट बांग्लादेश सरकार की ओर से आई थी कि वे सभी हमले धार्मिक पहचान के कारण नहीं, बल्कि राजनीतिक कारणों से हुए थे। मगर समानता क्या राजनीतिक परिदृश्य में नहीं है?

और यदि ये हमले राजनीतिक कारणों से थे तो अवामी लीग के समर्थक तो मुस्लिम ही थे, तो उनके मजहबी स्थलों पर हमले क्यों नहीं हुए? राजनीतिक कारणों से भी यदि हमले होते हैं तो क्या यह समानता, मानव गरिमा, सामाजिक न्याय, बहुलवाद जैसे शब्दों में स्वीकार्य है?

यदि हर नागरिक समान है तो चटगांव जैसे क्षेत्रों में हमले क्यों हुए? यदि हर नागरिक की मानव गरिमा है तो बांग्लादेश में हिन्दू छात्राओं को हिजाब या स्कार्फ पहनने को लेकर क्यों कहा गया? यदि सामाजिक न्याय की बात यूनुस सरकार कर रही है तो सामाजिक न्याय का दायरा क्या है?

दरअसल ये सारे शब्द एक छलावा है, कम्युनिस्ट और इस्लामिस्ट छलावा। इन शब्दों की आड़ में कम्युनिस्ट खेल करते हैं। जब वे सामाजिक न्याय की बात करते हैं, तो सामाजिक न्याय केवल और केवल उनके अपने एजेंडे के अनुसार ही सीमित रहता है। बहुलवाद तो कम्युनिस्ट और इस्लामिस्ट एजेंडे में है ही नहीं। बांग्लादेश में तो बहुलतावाद की लगातार हत्या हो रही है, मगर हर ओर सन्नाटा है।

मुख्य बात तस्लीमा नसरीन ने कह दी है कि बांग्ला पहचान समाप्त हो चुकी है। और नए प्रस्तावित संविधान में 21 वर्ष के लोग भी संसद के सदस्य बन सकेंगे। छात्र नेता बेचैन हैं और वे सत्ता का सुख तत्काल चाहते हैं।

तो सारी लड़ाई सत्ता के सुख और मुल्क की मजहबी पहचान की है। समानता, मानव गरिमा, सामाजिक न्याय, बहुलवाद जैसे शब्द इस्लामिस्ट और कम्युनिस्ट एजेंडे का मुखौटा मात्र हैं और कुछ नहीं।

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