कथाएँ कहती हैं कि कालिया मर्दन से या फिर शिव की डुबकी से यमुना का रंग श्याम हुआ था। कृष्ण के जन्म के समय उफनी, हमारे सारे वैदिक वांग्मय और लोक-कथानकों में जीवित नदी का जो ख़ास रंग था अपना, वो श्याम होते हुए भी मैला नहीं था। उसमें जीवंतता इतनी थी, कि यमुना को मानव संबंध से परिभाषित कर, यम की बहन, सूर्य की बेटी और कृष्ण की भार्या कहा गया। उसे पूजा गया, त्योहारों में, आरती में, सबमें गुणगान किया गया। यमुना आज मटमैली है, झाग से भरी है तो ये हमारी शासन व्यवस्था और नागरिक व्यवहार में आई खोट, दोनों का प्रमाण है। यमुना का दैवीय-स्वरूप खोना, मानव बस्ती में दरक रहे संबंधों और आत्मीय सम्बोधनों की आहट भी है, जो बड़े शहरों और भटके समाज की बड़ी पहचान बन रही है। नदियाँ अपनी स्मृति में नहीं रखती कि उसके किनारे कितने वंश, कितने कुल, कितने लोक पनपे। मगर मानव बसावटों पर लगे ये दाग तो सदियों तक याद रह जाएँगे कि उनके पुरखों को बसाने वाली नदी, देश की राजधानी में किनारे-किनारे खिसक कर अपनी पहचान खोने को है। इस दशक में यमुना भले अपने मूल नहीं, आधे स्वरूप में भी लौट आए, तो इतिहास शायद उतना मलिन नहीं होगा, जिसकी अभी पूरी आशंका दिख रही है।
यमुना के प्रदूषण पर थोड़ी राजनीति होने या अदालतों की फटकार या प्रदूषण की रिपोर्ट आने पर ही इसकी बात साल भर में कभी-कभी होती है। लेकिन पूर्वांचल के सबसे बड़े त्योहार, ‘छठ’ के मौके पर मामला पूरा उफान पर होता है। दिल्ली की यमुना के झाग में उतरकर सूर्य और उनकी बहन छठी मैया का पूजन करना, अपने इलाक़े से दूर अपनी संस्कृति को जीवित रखने के संघर्ष का प्रतीक बन गया है। देश की राजधानी कोने-कोने की फ़िक्र करती है, बड़ी बैठकों में बड़ी बातें करती है, लेकिन सतत विकास की आधारभूत बातों को पग-पग पर दरकिनार करती है। दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण कमेटी बताती है कि बीते तीन-चार सालों में (2017-18 से 2021-22) अलग अलग विभागों को यमुना की सफ़ाई के लिए 6939.5 करोड़ रुपये दिए जा चुके हैं। इसमें इसी काम के लिए पहले तीन चरणों के खर्च और जोड़ कर देखें तो ‘यमुना एक्शन प्लान’ के 1993 से 2003 के एक दशक में करीब करोड़, इसके अगले आठ साल के दूसरे चरण में करीब करोड़ और अब तीसरे चरण में 1656 करोड़ कागजों में दर्ज है। इसमें सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) ही सबसे बड़े खर्चे वाले काम थे। तीस सालों में इतनी भारी भरकम रकम खर्च होने के बाद भी मामला यहाँ तक पहुँचा कि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने 2015 के बाद ‘मैली से निर्मल यमुना’ के लिए हर साल नए-नए निर्देश दे देकर बाढ़ वाले इलाक़ों के बचाव, गंदे पानी की सफ़ाई और उद्योगों का पानी नदी में बहाए जाने की निगरानी करवाई। उच्चतम न्यायालय ने 2019 में साल भर में नए एसटीपी लगाने का काम पूरे करने के लिए कहा था। इसके अलावा यमुना के बहाव वाले राज्यों यानी हरियाणा और उत्तर प्रदेश के बीच समन्वय और सफ़ाई के लिए दिए करोड़ों के फंड के सही इस्तेमाल पर भी ज़ोर दिया था। दिल्ली सरकार ने इस काम के लिए पिछले साल 1850 करोड़ अलग से रखे जिसमें 6 एसटीपी और लगने हैं। सुना है कि लक्ष्य तो दिसंबर 2024 तक दिल्ली के 22 किलोमीटर में बहने वाली यमुना को सौ फ़ीसदी साफ़ कर देने का है। इस बीच, अगस्त माह में ही एनजीटी ने ‘केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड’ की रिपोर्ट पर दिल्ली में लगे 38 एसटीपी के ठीक काम नहीं कर पाने पर ‘दिल्ली जल बोर्ड’ को आड़े हाथ लिया है। जल बोर्ड पर इस बारे में कोई जवाब नहीं देने पर जुर्माना भी लगाया है। दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर तो कई बार यमुना परियोजनाओं, इसके लिए दिए फण्ड और दिल्ली जल बोर्ड के काम-काज, सब पर सवाल उठा चुके हैं। लेकिन दिल्ली पर किसका ज़ोर चला है अब तक?
आजीविका पर असर
करोड़ों के खर्चे के बाद भी यमुना के हाल अब भी वही है। अगर किसी का अपनी नदी, अपने पानी, अपने इलाक़े से जुड़ाव होता, तो असल काम और असर किसी को तो नज़र आता। यमुना पर काम करने वालों में, एक वो भी हैं जो जन-स्वास्थ्य और यमुना किनारे के लोगों की आजीविका पर असर को वैज्ञानिक और पर्यावरण के मायने में आंक कर बार-बार आगाह कर रहे हैं। कोशिशें भी कर रहे हैं कि मामला चर्चा में बना रहे और लोगों से ज़्यादा सरकारों-अधिकारियों की चेतना को छूने में कामयाब रहें। दूसरे किस्म के वो लोग हैं जो सरकारी ढर्रे को अच्छी तरह समझ गए हैं। वो नदी की सफ़ाई के सरकारी ठेके उठाने और अपने काम का बखान करने का हुनर जान गए हैं। सरकार भी इन ‘इवेंटनुमा’ ऊपरी-काग़ज़ी काम की पूछ करती रही है। इनके बहाने यमुना के बारे में भावुक भाषण देने का मौक़ा कोई नेता गण भी हाथ से जाने नहीं देना चाहता। सार्वजनिक मंचों पर दिखे भावनाओं के ज्वार से असल इरादों का कोई ताल्लुक होता तो बात बनती। इसीलिए आने वाले दशकों में भी यमुना की दशा बदल पाएगी, इसकी ख़ास उम्मीद नहीं है। यमुना के किनारे रहने और वहाँ से गुज़रने वाले, उसे देखने से पहले उसकी बदबू से बेहाल होकर निकलते हैं। कितने ही हिस्से हैं यमुना के जहाँ ऑक्सीजन शून्य है, यानी वहाँ सिर्फ़ घुटन ही घुटन है। शुद्ध पानी का हर मानदंड यहाँ विफल है। यमुना किनारे मछली पकड़ने वाले मछुआरे और उनकी बस्तियाँ भी हैं, जिनके अब मुश्किल से हाथ आने वाली मछलियाँ या तो ज़हरीली हैं या बदबू वाली। हर दिन जो असंख्य जल-जीव इसमें घुटकर मर रहे हैं, वो पानी में घुली ऑक्सीजन की कमी, उसमें घुले ज़रूरत से कहीं ज़्यादा जीवाणु, फॉस्फेट, नाइट्रेट, क्रोमियम के ज़हर के प्रति हमें आगाह कर रहे हैं। मछली, साँप, कछुआ, जैसे अनेक मूक प्राणी अपनी व्यथा कथा ख़ुद तो कह नहीं सकते तो उनकी पीड़ा भी वहाँ के मछुआरे ही कह रहे हैं, जिनकी कोई सुनवाई ही नहीं। मछुआरों और छोटे-मोटे काम कर, नाव चलाकर गुज़र चलाने वाले लोगों की पूरी आजीविका ख़त्म करने का कलंक तो दिल्ली के माथे पर लग ही चुका है। ये आर्थिक भार सिर्फ़ परिवारों की खोई रोज़ी रोटी का नहीं है, यमुना का प्रदूषित पानी पीने से उपजे स्वास्थ्य संकट की वजह से भी है, जिसका आकलन कोई सामने नहीं रखता।
कौन श्रेष्ठ, किसका श्रेय
नदी की बारिश सोखने की क्षमता (रिवर स्पोंजिनेस) कम होने से यमुना की बाढ़ भी हर साल जीवन बहा ले जाती है। दिल्ली में जल-प्रबंधन का पूरा ढाँचा ही गड़बड़ाया हुआ है। देश के पाँच राज्यों के भीतर से 1376 किलोमीटर के अपने बहाव में क़रीब 6 करोड़ लोगों के जीवन को सीधा-सीधा छूने वाली यमुना में दिल्ली के घरों और उद्योगों का 55% बिना शोधित किया पानी आज भी बहाया जा रहा है। पिछले सालों में नदी महोत्सव और नदी मंथन करने की जो व्यवस्था बनी है, उससे परे धरातल पर हुए काम की तह में जाना ज़्यादा ज़रूरी है। दिखावे के काम और नदियों को सुधारने का श्रेय लेने वालों को ठीक से जाँचा-परखा जाना चाहिए। केवल पानी पर ही नहीं, सामाजिक क्षेत्र के हर मुद्दे पर काम कर रहे संगठन अपने-अपने खाँचे में काम करते दिखते हैं। सब आपस में प्रतिद्वंद्वी या प्रतिस्पर्धी की तरह काम कर रहे हैं क्योंकि असली क़वायद परियोजना और ठेके हासिल करने की है, न कि सामूहिकता के भाव से काम कर स्थायी समाधान की।
अर्थशास्त्र का ‘पब्लिक गुड’ का नियम कहता है – लोगों को उस सुविधा का इस्तेमाल करने से रोक नहीं सकते जो सार्वजनिक है, और एक व्यक्ति के इस्तेमाल से दूसरे के लिए उसकी उपलब्धता पर असर नहीं पड़ता। इसे सरकार और नदी तंत्र के संदर्भ में समझें तो – जहाँ तक यमुना को गंदा होने से रोकने की यानी समस्या के पहले उसकी रोकथाम है, वहाँ सरकार की दखल आसान है। मगर जैसे ही समस्या पैदा होती है, बड़ी होती है समाधान और इलाज ज़रूरी मगर महंगा होता जाता है और फिर बात आती है पूंजी की। और पूंजी जुटाने, लगाने और उसके नतीजों को मापने में सरकारी व्यवस्था में हज़ार अड़चनें हैं। साफ़ नदी ‘पब्लिक गुड’ का मामला है, इससे हर एक का लेना देना है लेकिन इसके लिए व्यक्तिगत प्रयास का कोई मोल नहीं है। उद्योग और लोग दोनों इसे प्रदूषित करते हैं क्योंकि इसकी सफ़ाई की क़ीमत सीधे उनकी जेब से नहीं वसूली जाती। ग़ैर सरकारी संगठन के पास संसाधन सीमित हैं और ये काम बहुत बड़े पैमाने पर और साथ मिलकर करने की ज़रूरत वाला है। जिसकी निगरानी और जवाबदेही दोनों इसलिए मुश्किल हैं क्योंकि प्रदूषित करने वालों पर सरकार का कोई बस नहीं। सरकार के पैसे की, जनता और ठेके पर काम करने वाली एजेंसियों और संगठनों को भी कद्र नहीं। और सरकारी ढर्रे अब ऐसी गंभीर समस्याओं को सुलझाने में पूरी तरह अक्षम हैं। यमुना की सफ़ाई में शामिल कई राज्य सरकारें, कई उद्योग, कई संगठन, के बीच त्वरित संवाद की कड़ी है ही नहीं। ज़रूरी बात ये भी है कि इसके लिए सरकार की बजाय बाज़ार की रुचि कैसे जागेगी और ‘पब्लिक गुड’ के लिए ‘पब्लिक फंडिंग’ का क्या चैनल बनेगा, इस पर नीति निर्माताओं का मंथन हो तो अच्छा हो।
देश पर आर्थिक भार
यूँ, देश के हर हिस्से की मुख्य नदियाँ, जो उनकी पहचान थी, उद्योग के कचरे, सीवेज के पानी और कूड़े कचरे की गिरफ़्त में हैं। सरकार और संगठन, अपने प्रोजेक्ट लागू करते हैं लेकिन उससे समाज की आदतें नहीं बदलती, वहाँ के स्थानीय राजनीतिक और सामाजिक नेतृत्व में नदी-स्वच्छता के प्रति चेतना नहीं जागती। सफ़ाई की आदत डालना, वाक़ई बड़ा अभियान है। लोग जैसा देखते हैं वैसा सीखते हैं। जहाँ लोग साफ़ सफ़ाई देखते हैं, वहाँ ख़ुद भी सफ़ाई का ध्यान रखते हैं। इसीलिए नदियों की साफ़, सिर्फ़ ठेके के काम कर देना भर नहीं है, बल्कि नदी-समाज की आदतों को बदलना और कचरा प्रबंधन के पुख्ता इंतज़ाम करना बड़ा काम है। वन-पर्यावरण-जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने देश में जिन 13 नदियों को सुधारने का ज़िम्मा लिया है, उसमें यमुना सहित, ब्रह्मपुत्र, कृष्णा, कावेरी, गोदावरी, चेनाब, झेलम, नर्मदा, सतलुज, रावी, व्यास, महानदी और लूणी शामिल है। यानी देश के हर हिस्से की बड़ी पहचान वाली नदियाँ इसी हाल में हैं।
आज देश की कुल नदियों में से 46% दूषित हैं। शोध पत्र बताते हैं कि देश में कुल पीने के पानी में से एक चौथाई अशुद्ध है जिसकी क़ीमत हर साल अपनी जीडीपी का 3% सेहत पर खर्च के रूप में चुकानी पड़ती है। यमुना भी बहुत भारी क़ीमत वसूलेगी अगर इस पर अब तक हुए और लगातार हो रहे करोड़ों के खर्च के साथ-साथ असल असर और काम में हुई कोताही का हिसाब नहीं मांगा जाएगा। दिल्ली ने यमुना के साथ जितना अन्याय किया है, उसके लिए तो उसे कठघरे में खड़ा करना ही पड़ेगा, फिर भी यमुना का यमद्वार बनने से इसे कैसे रोका जाए। इस मुद्दे पर काम करने वाले सभी छोटे-बड़े समूहों-संगठनों को इस मुद्दे पर, पार्टियों के राजनीतिक हथियार बनने से बचते-बचाते, ये सामूहिक बीड़ा तो उठाना ही होगा। नेता गण भी तथ्यों और सच पर टिके रहें, सच का साथ दें, तो यमुना के पुनर्जीवन सहित ‘जल-आन्दोलन’ के ढेरों काम यूँ भी आसान हो जायें।
टिप्पणियाँ