एक मशहूर फिल्म में एक संवाद था-‘मेरे पास मां है, तुम्हारे पास क्या है?’ अभी तक कुछ ऐसा ही सवाल भारतीय खेल जगत के बारे में उठाया जाता रहा था कि गर्व करने के लिए ‘खेलों में तुम्हारे पास क्या है’। आज हमारे पास इस सवाल का सटीक जवाब है। भारत के दिव्यांग बेटे-बेटियों ने गत 8 सितंबर को सम्पन्न हुए पेरिस पैरालंपिक में ऐतिहासिक सफलताएं अर्जित करके हमें जश्न मनाने का एक अवसर प्रदान किया है। पेरिस पैरालंपिक में हमारे युवा दिव्यांग खिलाड़ियों ने यह दिखा दिया कि उनके पास ऊंची उड़ान भरने की भरपूर क्षमता, पदक जीतने की इच्छाशक्ति और आत्मविश्वास है। देश खेल की दिशा में तेजी से तरक्की कर रहा है, इसके पक्ष-विपक्ष में चर्चाओं का दौर भले जारी हो, लेकिन सच यह है कि पेरिस पैरालंपिक में भारत के खिलाड़ियों का प्रदर्शन देख भारतीय खेलप्रेमियों में अपार आनंद का भाव है।
पैरालंपिक खेलों में भारत के खाते में 1968 से लेकर पेरिस पैरालंपिक 2024 से पहले तक, 9 स्वर्ण पदकों सहित कुल 31 पदक थे, जबकि सिर्फ पेरिस पैरालंपिक में भारत ने 7 स्वर्ण, 9 रजत व 13 कांस्य पदक यानी कुल 29 पदक जीत कर तहलका मचा दिया है। सच है कि भारतीय खिलाड़ियों ने पेरिस पैरालंपिक की थीम ‘गेम्स वाइड ओपन’ को सार्थक करके दिखाया है। भारत ने इस बार इन खेलों में एथलेटिक्स, बैडमिंटन, शूटिंग और तीरंदाजी की स्पर्धाओं में देश को एक खेल महाशक्ति के रूप में भी स्थापित किया है।
पेरिस में देश के 29 पदक विजेताओं में से महिला और पुरुष खिलाड़ियों ने लगभग बराबर सफलताएं हासिल कीं। 84 सदस्यीय एथलीटों के दल में 32 महिला खिलाड़ी थीं जिन्होंने कुल 29 में से 10 पदक जीते। लेकिन उनमें से शीतल देवी की अगुआई में उन महिला खिलाड़ियों की तारीफ तो करनी ही पड़ेगी, जिन्होंने पहली बार इन खेलों में भाग लेते हुए, महिलाओं के कुल 10 पदकों में से 7 पदक जीते। यह खेलों में देश के सुनहरे भविष्य की ओर एक संकेत है कि सीमित संसाधनों के साथ किसी भी देश में 17 से 22 साल की उम्र के खिलाड़ी अगर खेलों के महाकुंभ में पदक जीत रहे हैं। ऐसे में अगले 10-12 वर्ष में पदकों की संख्या तीन से चार गुना तक बढ़ जाए तो आश्चर्य की बात नहीं होगी। दिव्यांगता के कारण जिंदगी की तमाम बाधाओं को पार करते हुए लंबे संघर्ष के बाद पेरिस पैरालंपिक के महामंच पर पहुंचने वाला हमारा हर खिलाड़ी महानायक का दर्जा हासिल कर चुका है। इन सबने संघर्षों से लड़कर साबित किया है कि-हार के आगे जीत है।
अचूक निशाना शीतल का
दोनों हाथ न होने के बाद भी तीरंदाजी में माहिर विश्व की अपनी तरह की इकलौती खिलाड़ी 17 वर्षीया शीतल देवी ने पेरिस में महिलाओं के कम्पाउंड तीरंदाजी रैंकिंग राउंड में पिछले विश्व (698) और पैरालंपिक रिकॉर्ड (694) को पीछे छोड़ते हुए 703 अंक अर्जित किए। हालांकि फाइनल में उनकी किस्मत ने साथ नहीं दिया और वे पदक की दौड़ से बाहर हो गई। लेकिन शीतल को इस बात से बड़ी संतुष्टि मिली कि वे 704 अंकों के वर्तमान पैरालंपिक व विश्व रिकॉर्ड से महज एक अंक दूर हैं। जन्म से ही ‘फोको मेलिया’ नामक बीमारी से ग्रसित शीतल जम्मू-कश्मीर के किश्तवाड़ जिले में एक छोटे से किसान परिवार में पैदा हुई थीं। दोनों बांहें न होने के बावजूद शीतल ने हार नहीं मानी और कोई 15 साल की उम्र में पैर से तीरंदाजी करना शुरू किया। जहां चाह वहां राह वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए शीतल ने 16 साल की उम्र में ही एशियाई पैरालंपिक में दो स्वर्ण और एक रजत पदक जीत कर विश्व तीरंदाजी जगत में सनसनी मचा दी थी। शीतल को अब भी भरोसा है कि वे अगले पैरालंपिक में स्वर्ण पदक जीतने में सफल होंगी।
लक्ष्य भेद दिया अवनी ने
लगातार दो पैरालंपिक खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली भारतीय खिलाड़ी अवनी लेखरा ने पेरिस में पैरालंपिक रिकॉर्ड सहित महिलाओं की 10 मीटर एयर राइफल एसएच1 स्पर्धा जीत यह साबित कर दिया कि उनके जैसा कोई नहीं है। वैसे भी निशानेबाजी में भारत का नाम सम्मान के साथ लिया जाता है। इस परंपरा को जयपुर की 19 वर्षीया अवनी लेखरा ने जारी रखा। 2012 में अवनी को एक कार दुर्घटना में रीढ़ की हड्डी में चोट आ गई थी। लेकिन उसने अपने दर्द को कभी भी अपने सपने पर हावी नहीं होने दिया। उसने कड़ी मेहनत करते हुए महिलाओं की 10 मीटर एयर रायफल स्पर्धा में तोक्यो व पेरिस पैरालंपिक में स्वर्ण पदक जीते। अवनी भारत की पहली महिला निशानेबाज हैं जिन्होंने पैरालंपिक में स्वर्ण पदक जीता है।
नवदीप का बढ़ा कद
हरियाणा के पानीपत जिले के नवदीप सिंह के लिए अपने नाटा (4 फीट 4 इंच) होने की वजह से लोगों का उन्हें हैरत भरी निगाहों से देखना, ताने सुनना कोई नई बात नहीं थी। 23 वर्षीय नवदीप शायद हर दिन आत्मसम्मान पाने व अपनी पहचान बनाने के लिए जूझते रहे। लेकिन पेरिस पैरालंपिक खेलों में कदम रखते ही उन्होंने तमाम बाधाओं को भुलाते हुए वह कर दिखाया जो आज तक कोई भारतीय नहीं कर सका था। नवदीप पुरुषों की भाला फेंक एफ41 स्पर्धा में स्वर्ण पदक जीतने वाले पहले भारतीय खिलाड़ी बने। स्टार जेवलिन थ्रोअर नीरज चोपड़ा जैसे अंदाज में भाला फेंकने वाले नवदीप ने 47.32 मी. दूर तक भाला फेंक अचानक अपना कद पहाड़ जैसा ऊंचा कर लिया। स्वर्ण जीतने के बाद नवदीप ने कहा-‘मैं भी किसी सामान्य खिलाड़ी की तरह सम्मान पाने का हकदार बन गया। मैंने भी देश का झंडा बुलंद किया। समाज को समझना चाहिए कि नाटे लोगों का भी इस दुनिया में अस्तित्व है, हमें हर समय मजाक का पात्र नहीं समझना चाहिए।’ महज 10 साल की उम्र से भाला फेंक खेल का अनवरत प्रयास करते हुए ओलंपिक पोडियम पर भारतीय तिरंगा फहराने वाले नवदीप को उम्मीद है कि समाज और खेल जगत से मिलने वाले उलाहनों और उपेक्षाओं का दौर अब खत्म होगा। नि:संदेह आज पूरा देश नवदीप पर गर्व कर रहा है।
मरियप्पन ने लांघी नई ऊंचाई
तमिलनाडु के सालेम जिले में एक बेहद गरीब और समस्याओं से त्रस्त परिवार में जन्मे मरियप्पन थंगवेलू का सपना था, देश का नाम रोशन करना है। नाटे कद के 26 वर्षीय मरियप्पन ने नित नई ऊंचाइयां लांघते हुए पैरालंपिक खेलों में एक स्वर्ण (रियो 2016), एक रजत (तोक्यो 2020) और एक कांस्य पदक (पेरिस 2024) जीत कर इतिहास रच दिया है। महज 5 साल की उम्र में स्कूल जा रहे मरियप्पन को नशे में धुत एक बस ड्राइवर ने लगभग कुचल ही दिया था। उस दुर्घटना में उनका दायां पैर घुटने के नीचे से हमेशा-हमेशा के लिए कट गया। इधर पिता ने छह बच्चों सहित उनकी मां को छोड़ दिया था। मां ने शुरू में ईंटें ढोने का काम किया। फिर परिवार को चलाने के लिए सड़क किनारे सब्जी बेचने लगीं। तिस पर बेटे मरियप्पन का एक पांव छिन चुका था। मां के अलावा परिवार में कमाई करने वाला कोई नहीं था। ऐसी परिस्थिति में कई बार दो वक्त की रोटी तक नसीब नहीं होती थी। लेकिन मरियप्पन ने हार नहीं मानी। उन्होंने न केवल पढ़ाई-लिखाई जारी रखी, बल्कि एक टांग के सहारे ऐसी ऊंचाई लांघी कि दुनिया में देश का नाम रोशन कर दिया।
होकातो का प्रेरक प्रदर्शन
नागालैंड के 40 वर्षीय होकातो होतोझे सेमा ने पुरुषों की गोला फेंक एफ57 स्पर्धा में कांस्य पदक जीत कर इतिहास रचा है। भारतीय सेना की असम रेजिमेंट में हवलदार के पद पर नियुक्ति के बाद, 2002 में जम्मू-कश्मीर की सीमा पर बारूदी सुरंग धमाके में सेमा ने अपना बायां पैर गंवा दिया था। लेकिन सेना की बहादुरी और त्याग की कहानियों ने उनमें ऐसा जोश भरा कि वे सेना में भर्ती हो गए। पैर गंवाने के बाद भी होकातो सेमा ने हिम्मत नहीं हारी। पैरालंपिक के इतिहास में सेमा ने भारतीय दल के सबसे बड़ी उम्र का पदक विजेता बन अनूठा गौरव हासिल किया है। पेरिस पैरालंपिक में भारतीय खिलाड़ियों के ऐसे शानदार प्रदर्शन को देख जहां हर भारतीय गौरवान्वित महसूस कर रहा है तो वहीं भारतवासियों की ओर से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हर पदक जीतने वाले खिलाड़ी को तत्काल फोन करके बधाई दी और भविष्य के लिए सबकी ओर से शुभकामनाएं प्रेषित कीं। इस सफलता पर उन्होंने एक ट्वीट भी किया। इसमें संदेह नहीं कि भारत की ‘खेलो इंडिया’ योजना इन युवा खिलाड़ियों और छुपी प्रतिभाओं के लिए एक वरदान साबित हो रही है, जिनकी तरफ किसी की नजर तक नहीं जाती थी। पेरिस ओलंपिक में निशानेबाजी में पदक जीतने वाली मनु भाकर ने तो कैमरे के सामने स्वीकार किया था कि उनकी सफलता के पीछे ‘खेलो इंडिया’ का बहुत बड़ा हाथ है।
आज भारत के गांवों, कस्बों, यहां तक कि जनजातीय क्षेत्रों से अनोखी खेल प्रतिभाएं सामने आ रही हैं। केन्द्र सरकार और स्वयं व्यक्तिगत रूप से प्रधानमंत्री मोदी खेलों को पर्याप्त महत्व देते हुए खिलाड़ियों के लिए हर प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध कराने की चिंता कर रहे हैं। यह देखते हुए कहा जा सकता है कि आने वाले समय में भारत खेलों में भी एक ‘महाशक्ति’ बनेगा।
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