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गुरु पूर्णिमा पर विशेष : बलिहारी गुर आपणे…

आषाढ़ पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाने की परंपरा इस देश में प्राचीन काल से चली आ रही है। इसे व्यास पूर्णिमा भी कहते हैं

by डॉ. प्रणव पण्ड्या
Jul 20, 2024, 07:45 pm IST
in भारत, विश्लेषण, संघ
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गुरु-शिष्य परंपरा इस देश की गौरवमयी परंपरा रही है। चाणक्य-चंद्रगुप्त, समर्थ गुरु रामदास-शिवाजी, स्वामी रामकृष्ण परमहंस-स्वामी विवेकानंद, स्वामी विरजानंद-दयानंद सरस्वती गुुरु-शिष्य परंपरा के ऐसे अनेक अनूठे उदाहरण हैं। संत कबीरदास जी ने महात्मा रामानंद जी के चरण स्पर्श को ही आधार मानकर उन्हें अपना गुरु मान लिया था। महाभारत के एक पात्र एकलव्य को उच्चकोटि का साधक माना जाता है। गुरु-शिष्य परंपरा भारत में ही नहीं, प्राचीन यूनान में भी प्रचलित थी। सुकरात-प्लूटो, प्लूटो-अरस्तू, अरस्तू-सिकंदर गुरु-शिष्य की परंपरा में काफी विख्यात हैं। सिख पंथ ने गुरु के प्रति समर्पण की मिसाल रखी है।

उपनिषद् में मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, गुरुदेवो भव कहकर गुरु का महत्व माता-पिता के तुल्य बताया है। प्राचीन काल में आध्यात्मिक एवं लौकिक ज्ञान की प्राप्ति के लिए विद्यार्थी को गुरुकुल भेजने की परंपरा थी। कालक्रम से इस परंपरा का लोप होता गया, फिर भी गुरु की महत्ता इस देश में विद्यमान है। किसी जमाने में प्रत्येक व्यक्ति का गुरु से मार्गदर्शन लेना अनिवार्य था और जो बिना गुरु के होता था, उसकी ‘निगुरा’ कहकर सामाजिक भर्त्सना होती थी।

विद्या एवं उच्चस्तरीय ज्ञान के क्षेत्र के अतिरिक्त मानवीय चेतना को जाग्रत एवं झंकृत कर भावभरे आदर्शमय मानवीय जीवन के लिए गुरु का मार्गदर्शन एवं संरक्षण आवश्यक है। यह कार्य सद्गुरु द्वारा ही संपन्न होता है। आध्यात्मिक उन्नति के लिए समर्थ गुरु के शरणागत होना अनिवार्य है।

धार्मिक दृष्टि से गुरु को ब्रह्मा, विष्णु, महेश एवं परब्रह्म कहा जाता है। गुरु-शिष्य को जीवन-लक्ष्य तथा परमात्म-सृष्टि के उद्देश्य से अवगत कराता है एवं दोनों का सामंजस्य करा देता है। परमात्म-सृष्टि क्या है, उसका प्रयोजन क्या है, उस मार्ग का अनुगमन कैसे हो, यह गुरु-प्रदत्त ज्ञान से ही संभव है। गुरु के प्रति श्रद्धा-निष्ठा से ही शिष्य गुरु की कृपा का पात्र बनता है। शिष्य को निखारने में ही गुरु की संतुष्टि व आत्म-तृप्ति होती है।

स्वामी दयानंद सरस्वती अपने गुरु स्वामी विरजानंद से वेद ज्ञान प्राप्त करने के उपरांत एक थाली लौंग लेकर उन्हें गुरु दक्षिणा देने के लिए उपस्थित हुए। स्वामी विरजानंद जी ने उन्हें वेद प्रचार-प्रसार का आदेश दिया। दयानंद सरस्वती इसे स्वीकार कर जीवन-पर्यंत वेदों की शिक्षा का ज्ञान भारतवासियों को देते रहे।

वर्तमान काल में योग्य, दृढ़-चरित्र, विचारवान, ब्रह्मवेत्ता गुरु मिलना प्राचीन काल की तरह संभव नहीं है। फिर भी प्रयास करने से ऐसे ब्रह्मवेत्ता आज भी उपलब्ध हो सकते हैं। पं. श्रीराम शर्मा आचार्य इसी श्रेणी के गुरु हैं, जिन्होंने अपने अनगिनत शिष्यों का सही मार्गदर्शन कर उन्हें परमार्थ के कठिन मार्ग पर सुगमता से चलाया है। गया गुजरा जीवन व्यतीत करने वाले लोगों को अमृतपान कराया है।

जीवन भर जिस स्नेह व आत्मीयता को उन्होंने बांटा है, उससे लाखों परिजनों की जीवन धारा बदली है तथा अध्यात्म के शुष्क होते हुए पथ पर हरियाली लाई है। विचार की महत्ता को जनमानस में बोध कराया है एवं अपने तप से सोई हुई राष्ट्र की कुण्डलिनी को जगाया है।

वे माता-पिता धन्य हैं, वे कुल-गोत्र धन्य हैं, वह धरती धन्य है जहां गुरु के प्रति नमन, वंदन होता है। आदि शंकराचार्य ने गुरु को गायत्री का प्रतिरूप बताया है, जिसके वचनामृत संसार की संगति से उत्पन्न विषों का हनन करने में समर्थ हैं। गुरु पूर्णिमा के पावन पर्व पर अपनी व सभी परिजनों की तरफ से गुरु के चरणों में श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए इन दो पंक्तियों को उद्धृत करते हैं-
गुरु को करिए दण्डवत् कोटि-कोटि प्रणाम।
कीट को पकड़कर भृंग, करिए आप समान।।
(लेखक अखिल विश्व गायत्री परिवार के प्रमुख एवं देव संस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार के कुलाधिपति हैं)

Topics: अरस्तू-सिकंदर गुरु-शिष्य की परंपरागुरु पूर्णिमा के पावन पर्वSpiritual and worldly knowledgeSocrates-PlutoPluto-AristotleSwami Dayanand SaraswatiAristotle-Alexander Guru-disciple traditionस्वामी दयानंद सरस्वतीholy festival of Guru Purnimaपाञ्चजन्य विशेषआध्यात्मिक एवं लौकिक ज्ञानसुकरात-प्लूटोप्लूटो-अरस्तू
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