इस्लामिस्ट-कम्युनिस्ट गठजोड़ का सच बताता इंडोनेशिया का कम्युनिस्ट सामूहिक हत्याकांड
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इस्लामिस्ट-कम्युनिस्ट गठजोड़ का सच बताता इंडोनेशिया का कम्युनिस्ट सामूहिक हत्याकांड

इंडोनेशिया में वर्ष 1965 में अक्टूबर माह से लेकर मार्च 1966 तक वहाँ की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों और नेताओं का जो कत्लेआम हुआ है, वह न ही साधारण था और न ही ऐसा कि जिसे भुलाया जा सके।

by सोनाली मिश्रा
Jul 9, 2024, 08:27 am IST
in विश्लेषण
Indonesia communist massacre
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फ्रांस के आम चुनावों में कम्युनिस्ट गठबंधन की जीत से इस्लामिस्ट गदगद हैं और कम्युनिस्ट भी इस बात से खुश हैं कि उन्हें मुस्लिमों ने वोट दिया है। विश्व राजनीति में कम्युनिस्ट और इस्लामिस्ट ताकतों की इस एकता की मिसाल दी जाती है। मगर यह एक स्थापित तथ्य है कि यदि कम्युनिस्टों के साथ हिंसा का चरम किसी ने भी पार किया है, उनकी संस्थागत हत्याएं किसी ने की हैं तो वे इस्लामिस्ट ही हैं। कम्युनिस्टों की सबसे सुनियोजित एवं अधिक संख्या में हत्याएं हुई हैं इंडोनेशिया में।

इंडोनेशिया में वर्ष 1965 में अक्टूबर माह से लेकर मार्च 1966 तक वहाँ की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों और नेताओं का जो कत्लेआम हुआ है, वह न ही साधारण था और न ही ऐसा कि जिसे भुलाया जा सके। परंतु दुर्भाग्य से, पूरी दुनिया में और विशेषकर फिलिस्तीन में मुस्लिम जीनोसाइड की बात करने वाले कम्युनिस्ट अपनी ही पार्टी के कैडर्स के साथ हुए इस हत्याकांड पर चुप रहते हैं। इस छह महीने के कालखंड में लगभग 6 लाख कम्युनिस्ट कैडर या उसके समर्थक इंडोनेशिया में मारे गए थे और लगभग 7 लाख लोगों को गिरफ्तार किया गया था।

इस्लामिस्ट सरकार के हाथों हुए इस जघन्य राजनीतिक विचारधारा के विध्वंस का कोई और दूसरा उदाहरण कहीं नहीं मिलता है और कम्युनिस्ट मत का पालन करने वालों के विरुद्ध तो बिल्कुल भी नहीं मिलता है, मगर आज कम्युनिस्ट और इस्लामिस्ट एक साथ होने का दावा करने वाले अपने ही इस विनाश पर चुप रहते हैं।

क्या हुआ था इंडोनेशिया में वर्ष 1965 में

वर्ष 1965 में 30 सितंबर को इंडोनेशिया की कम्युनिस्ट पार्टी (पीकेआई) के कुछ नेताओं और सेना के कुछ कम्युनिस्ट विचार रखने वाले अधिकारियों ने राष्ट्रपति सुकर्णो के खिलाफ विद्रोह कर दिया था और सत्ता पर कब्जा जमाने की कोशिश में सेना के सात वरिष्ठ अधिकारियों की हत्या कर दी थी। जनरत सुहार्तो उस समय सेना के ऐसे वरिष्ठ पदाधिकारियों में से एक थे, जो हत्या से बच गए थे। यह भी कहा जाता है कि राष्ट्रपति सुकर्णो द्वारा चीन और इंडोनेशिया की कम्युनिस्ट पार्टी के साथ अच्छे संबंधों के बाद भी सेना की प्रवृत्ति कम्युनिस्ट विरोध की थी।

यह ध्यान रखने वाली बात है कि इंडोनेशिया की कम्युनिस्ट पार्टी उस समय विश्व की सबसे बड़ी गैर सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी थी।

30 सितंबर 1965 को कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं द्वारा तख्तापलट के प्रयासों के कारण वहाँ पर कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं के खिलाफ अभियान आरंभ हो गया था। मगर उससे पहले वर्ष 1948 में कम्युनिस्ट पार्टी ने मोहम्मद हत्ता की कैबिनेट के अंतर्गत कुछ कार्यक्रमों से असन्तुष्ट होकर अपना विरोध जताया था और उसमें कम्युनिस्ट पीपल डेमोक्रेटिक फ्रंट के अंतर्गत इंडोनेशिया की कम्युनिस्ट पार्टी अर्थात पीकेआई, इंडोनेशियन सोशलिस्ट पार्टी (पीएसआई) और लेबर पार्टी ऑफ इंडोनेशिया शामिल थी। हालांकि पीएसआई और पीबीआई दोनों ने ही अगस्त 1948 में अपना विलय पीकेआई में कर लिया था।

सितंबर 1948 में एफडीआर ने पूर्वी जावा में मेडियन शहर पर कब्जा कर लिया और उसके नेता मुससो ने इंडोनेशिया की सरकार के खिलाफ अभियान छेड़ दिया। हालांकि, यह विद्रोह इंडोनेशिया की सरकार ने कुचल दिया था और हजारों की संख्या में लेफ़्टिस्ट गिरफ्तार हुए थे और मारे गए थे। इनमें से अधिकांश एफडीआर के नेता थे। फिर भी भारी संख्या में निर्दोष नागरिक भी पीकेआई की हिंसा का शिकार हुए थे।

यह कहा जाता था है कि पीकेआई की लाल सेना उस समय लोगों पर गोलियां चलाती थी और जो असहमत होते थे, उन्हें अपना निशाना बनाती थी।

वर्ष 1965 में जब 30 सितंबर को पीकेआई के नेताओं ने विद्रोह करके सेना के वरिष्ठ अधिकारियों की हत्या की, तो पीकेआई के सदस्यों को मारने का अभियान चलाया गया। कम्युनिस्ट पार्टी के विद्रोह को दबाने वाले लेफ्टिनेंट जनरल सुहार्तो ने हर ओर से कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों को कुचलने की योजना बनाई।  जनरल सुहार्तो ने पीकेआई और उसके प्रति सहानुभूति रखने वाले हर व्यक्ति को सार्वजनिक जीवन और सरकार से पूरी तरह से मिटाने की प्रतिबद्धता व्यक्त की।

सेना ने तत्काल ही कम्युनिस्ट और अन्य लेफ्ट प्रकाशनों को बंद कर दिया और सेना के प्रभुत्व वाले प्रकाशनों को प्रकाशित करना और उनका मीडिया पर प्रभाव डालना आरंभ कर दिया।

इंडोनेशिया की सेना ने पीकेआई के सदस्यों की हत्या के लिए सैन्य इकाइयों की नियुक्ति, उन्हें हथियारों का प्रशिक्षण देने और हथियार देने में भी मुख्य भूमिका निभाई। इन सैन्य इकाइयों में नियुक्ति इंडोनेशिया में सबसे बड़े इस्लामिक संगठन नहदलतुल उलमा की युवा शाखा अनसोर से हुआ करती थी। इससे पहले भी पीकेआई से मोर्चा लेने के लिए यह संगठन बनसेर की स्थापना करके कदम उठा चुका था। और बनसेर के सदस्य पीकेआई से सम्बद्ध किसानों के संगठन से मोर्चा ले चुके थे।

पीकेआई के सदस्यों की हत्या की शुरुआत उत्तरी सुमात्रा में अकाह (Aceh) नामक प्रांत से हुई। यह प्रांत मुस्लिम बाहुल्य प्रांत था और यहाँ पर पीकेआई के सदस्यों की संख्या अपेक्षाकृत कम थी। और यहाँ पर हत्याएं मुस्लिम नेताओं ने की थी।

पीकेआई के सदस्यों की हत्या की शुरुआत कम्युनिस्ट विरोधी विशेष बलों या फिर पैरा कमांडोज द्वारा की जाती थी। देखते ही देखते पीकेआई के सदस्यों को खोजकर मारा जाने लगा। चूंकि अनसोर का संगठन केन्द्रीय एवं पूर्वी जावा के ग्रामीण क्षेत्रों में काफी मजबूत था। ऐसा नहीं है कि केवल एक ही इस्लामिक संगठन ने हत्या का समर्थन किया था। दूसरे सबसे बड़े इस्लामिक संगठन मुहम्मदिया ने भी पीकेआई को कुचलने के लिए अपना समर्थन दिया। इस संगठन के कुछ नेताओं ने इसे अपना मजहबी दायित्व बताया।

यह सच है कि सेना की भूमिका पीकेआई के सदस्यों को मारने में मुख्य थी, मगर सेना ने समाज के एक बड़े वर्ग का साथ लिया। जिस समय ये हत्याएं आरंभ हुई थीं, उस समय पीकेआई के अपने 3.5 मिलियन सदस्य थे और उसके संबंधित संगठनों के लगभग 23.5 मिलियन और सदस्य थे। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि जब यह कहा जाता है कि लगभग 5 से 6 लाख पीकेआई समर्थकों और सदस्यों की हत्या हुई तो यह अतिशयोक्ति नहीं है।

हत्याएं कभी गोली मारकर की गईं। कभी तलवारों से तो कभी नदी में डुबोकर। हत्याओं के नए तरीके भी खोजे गए। ऐसा भी हुआ कि जहां पर कट्टर मुस्लिम मजहबी समूह पाए गए थे, वहाँ पर मौजूद पीकेआई के सभी सदस्यों के सिर कलम कर दिए गए। लोगों के सिर सड़कों पर रख दिए जाते थे।

हर प्रकार से डर भरने का प्रयास किया गया। इंडोनेशिया के इस कम्युनिस्ट हत्याकांड पर रॉबर्ट क्रिब ने लिखा है कि आमतौर पर हत्याएं रात को की जाती थीं और आमतौर पर इंडोनेशिया के किसानों द्वारा प्रयोग में ले जाने वाले परंग अर्थात एक तरफा ब्लेड वाले कुल्हाड़े से की जाती थी। कुछ मामलों में तो पीकेआई के साथ संबंध रखने वाले पूरे के पूरे समुदाय ही खत्म कर दिए गए। और ऐसा भी होता था कि सेना की इकाइयां आती थीं और पीड़ितों को उनके गांवों से निकालकर ले जाती थीं। फिर उन्हें एक स्थान पर ले जाकर इकट्ठा मार दिया जाता था। शवों को एक गड्ढे में या तो फेंक दिया जाता था या फिर नदियों में डाल दिया जाता था।

शवों को विकृत भी कर दिया जाता था। उत्तरी सुमात्रा में नदी के तट पर पीड़ितों की एक लंबी पंक्ति बनाई गई और फिर उनका सिर कलम करके शरीर को नदी में बहा दिया गया। क्रिब लिखते हैं कि बाली से ऐसी भी रिपोर्ट्स हैं कि पार्टी के सदस्य खुद ही घर से कफन पहनकर जाते थे।

पाँच से छह लाख तक ऐसे ही लोगों को मारा गया और लाखों की संख्या में पीकेआई के सदस्यों को गिरफ्तार किया गया। उन्हें यातनाएं दी गईं। महिलाओं को भी नहीं छोड़ा गया।

महिला संगठन गेरवानी की महिला सदस्यों का नाम भी 30 सितंबर 1965 के सेना के प्रति विद्रोह में सामने आया था, तो इस संगठन की सदस्य महिलाओं एवं पीकेआई से संबंधित महिलाओं को भी जेल में भयानक यातनाओं का सामना करना पड़ा और उन पर यौनिक हिंसा भी हुई। उनके साथ जेलों मे बलात्कार भी हुए। जो गर्भवती महिलाएं थी या फिर जिनके साथ छोटे बच्चे थे, वे भी अपनी माताओं के साथ जेल ही गए।

जो लोग मारे गए या हिरासत में लिए गए उनके घर और संपत्ति या तो जला दी गईं या फिर सेना कब्जा कर लिया और कई संपत्तियों को स्थाई रूप से हिरासत केंद्र बना दिया गया।

इस हत्याकांड में जो जीवित बच गए थे, उनके अनुभव अत्यंत भयावह हैं। एक पीड़ित के अनुसार केदिरी के पश्चिम की ओर जाने वाली सड़क पर पीकेआई के सदस्यों के सिर सजाए गए थे, और वैश्यालयों के बाहर पुरुषों के जननांग काटकर लटका दिए गए थे। गेरवानी महिलाओं की चीखें भी उसे याद थी, क्योंकि उसके जननांगों को एक बांस के डंडे के साथ छेद दिया गया था।

इंडोनेशिया की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों के साथ अत्याचारों की हर सीमा पार की गई थी। वे छह महीने लाखों लोगों के लिए काल के समान थे।

इस राजनीतिक विध्वंस पर पूरे कम्युनिस्ट जगत में चुप्पी

यह बहुत ही हैरानी की बात है कि न ही कोई इस्लामिस्ट सत्ता और न ही कम्युनिस्ट सत्ता अपने लाखों लोगों की जघन्य हत्याओं पर मुंह खोलती है। इंडोनेशिया में हुआ यह जीनोसाइड कहीं गुमनामी में छिपा हुआ है, जबकि इसमें कम्युनिस्टों की हत्याएं शामिल हैं। इनमें शिक्षकों से लेकर किसानों और महिलाओं की हत्या और असंख्य अत्याचार शामिल हैं।

इतना ही नहीं, जब उन लोगों को जिन्हें कम्युनिस्ट संबंधों के आधार पर गिरफ्तार किया था, उन्हें रिहा किए जाने पर भी सरकारी नौकरी से प्रतिबंधित किया गया और उन्हें दैनिक जीवन में भी तमाम कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था।

फिर भी यह प्रश्न अनुत्तरित है कि गाजा में मुस्लिमों के जीनोसाइड की बात करने वाले तमाम लेफ्ट दल अपने ही लाखों सदस्यों के साथ हुए इस जीनोसाइड पर मौन क्यों हैं? इंडोनेशिया में कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों के साथ जो भी हुआ, वह बीसवीं शताब्दी के सबसे जघन्य हत्याकांडों में से एक माना जा सकता है। यह नाज़ियों द्वारा यहूदी जीनोसाइड से कैसे भिन्न था, जबकि इसमें भी उसे प्रकार चिन्हित करके लोगों को मारा गया। मारने के और महिलाओं के साथ अत्याचार के नए-नए तरीके खोजे गए।

लेफ्ट लिबरल्स जगत में भी अपने ही विचारों के लोगों के साथ लगातार छह माह तक हुए सामूहिक हत्याकांड को लेकर खामोशी क्यों है? क्या उन्हें ऐसा लगता है कि यदि वे अपने साथियों के लिए आवाज उठाएंगे तो उनके कट्टर इस्लामिस्ट साथी नाराज हो जाएंगे? आखिर वह क्या कारण है जो अभी कुछ ही दशकों पूर्व हुए इस जीनोसाइड को विस्मृत किया जा रहा है, और वह भी उनके द्वारा जो खुद पीड़ित हैं और एक ऐसे गठबंधन की बात की जा रही है, जो परस्पर एक-दूसरे को निगलने वाली शक्तियां हैं।

कम्युनिस्ट देशों में कट्टर इस्लामिस्ट नहीं होते और कट्टर इस्लामिस्ट देशों मे कम्युनिस्ट नहीं पाए जाते। मगर हर लोकतान्त्रिक देश में ये दोनों ही एक-दूसरे से हाथ मिलाकर राष्ट्रवादी पार्टी को पराजित करते हैं। जैसा अभी फ्रांस में देखा गया कि गाजा के प्रति सबसे बड़े गठबंधन के नेता ने अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त कर दी है, मगर 1965-66 में इंडोनेशिया में अपने ही दल के सदस्यों के राजनीतिक जीनोसाइड पर सन्नाटा रहता है।

प्रश्न यही उठता है कि क्या कम्युनिस्टों के लिए उनके समर्थक मात्र सत्ता प्राप्ति का साधन हैं और फिर उनके साथ कुछ भी हो इससे उन्हें कुछ अंतर नहीं पड़ता? और आखिर उन लाखों लोगों के जीनोसाइड पर बात क्यों नहीं होती है?

सोनाली मिश्रा
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लेखिका और अनुवादक, दिल्ली फिल्म सेंसर बोर्ड की सलाहकार सदस्य, पुस्तकें- महानायक शिवाजी, नेहा की लव स्टोरी

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