महात्मा बुद्ध की सरल, सनातन व्यवहारिक और मन को छू लेने वाली शिक्षाएं व्यक्ति के कुंठित व संशयग्रस्त अंतस को समाधान की ओर ले जाती हैं। बुद्ध का सुप्रसिद्ध सूत्र है -“अप्प दीपो भव!” अर्थात अपना दीपक आप बनो। बुद्ध का दर्शन किसी का अनुगामी होना स्वीकार नहीं करता वरन यह कहता है कि किसी मार्गदर्शक की खोज में भटकने से अच्छा है कि अपने विवेक को अपना पथप्रदर्शक चुनो। समस्याओं से मुक्ति का रास्ता, मुश्किलों से हल का रास्ता स्वयं तुम्हारे भीतर है। सोचो, सोचो और खोज निकालो! यदि मेरे विचार भी तुम्हारे विवेक के आड़े आते हैं तो उन्हें भी छोड़ दो। सिर्फ अपनी विवेक बुद्धि का अनुसरण करो। वही करो जो तुम्हारी बुद्धि को जंचे। तथागत गौतम न स्वयं कहीं बंधे और न ही उन्होंने अपने शिष्यों-अनुयायियों को बंधने को कहा। यही कारण है कि बौद्ध धर्म मानवीय संवेदनाओं को सीधे स्पर्श करता है। सामान्यतया बाहरी तौर से देखने पर भगवान बुद्ध का चरित्र एक व्यक्ति विशेष की उपलब्धि मानी जा सकती है किन्तु तात्विक दृष्टि से इसे एक क्रांति कहना अधिक समीचीन होगा।
आज से करीब ढाई हजार वर्ष पूर्व इस युगपुरुष के अवतरण युग में अवांछनीयताओं का बोलबाला था। भारतीय वैदिक धर्म अपना शाश्वत स्वरूप खो चुका था। अंधविश्वासों व रूढ़ियों को ही धर्म का पर्यायवाची माना जाने लगा था। साधना के नाम पर तांत्रिक वामाचार का बोलबाला था। चारों ओर छाये इस सघन अंधकार को देखा तो राजकुमार सिद्धार्थ की आत्मा छटपटा उठी और उन्होंने अपनी आहुति देकर अंधकार से लड़ने का बीड़ा उठा लिया। गृहत्याग कर कठोर तपश्चर्या से “बुद्धत्व” प्राप्त कर वे युग की पुकार को पूरा करने में जुट गये। लोकमानस में छाये अंधकार को निरस्त करने के लिए सद्ज्ञान की ज्योति जलाना जरूरी होता है। इसलिए उन्होंने अनुयायी बनाये, जिन्हें परिपक्व पाया, उन्हें परिव्राजक बनाकर सद्ज्ञान का आलोक चहुंओर फैलाने की जिम्मेदारी सौंपी। यही था बुद्ध का धर्मचक्र प्रवर्तन अभियान जो उन्होंने वाराणसी के निकट सारनाथ से शुरू किया था। बौद्ध धर्म मध्यम मार्ग के अनुसरण का उपदेश देता है। इसमें कट्टरता नहीं है। अपने उपदेशों में बुद्ध ने संतुलन की धारणा को बहुत महत्व दिया है। इस तथ्य को “मझ्झिम निकाय” में नौका की उपमा देकर उन्होंने बेहद खूबसूरती से समझाते हुए कहा है कि यदि कोई मनुष्य नदी पार करने के लिए नौका बनाता है तो नदी पार करने के बाद भी उसे पीठ पर लादे चलने को समझदारी नहीं कहा जा सकता। ज्ञात हो कि बुद्ध के बाद नागसेन, बुद्धघोष, अनिरुद्ध, आचार्य नागार्जुन और मैत्रेयनाथ जैसे बौद्ध विद्वानों और दार्शनिकों ने बुद्ध के दार्शनिक पक्ष को समाज के सामने रखा था। बुद्धवाणी से जुड़ा पालि भाषा का संपूर्ण साहित्य 52,602 पृष्ठों और 74,48,248 शब्दों का माना जाता है। इन सबमें ‘धम्मपद’ को बहुत ऊंचा और विशेष माना गया है। इसकी 423 गाथाओं में बुद्ध के समस्त उपदेशों का सार निहित है। यह ग्रंथ बौद्ध ज्ञान-परंपरा के लिए अमूल्य निधि मानी जाती है।
महात्मा बुद्ध का दर्शन मानव जीवन को संपूर्ण और परिपक्व बनाने के लिए आग्रहशील है। बोधि वृक्ष के नीचे साधना करते समय बुद्ध को समझ आया था कि जीवन वीणा के तारों की तरह भांति है। ढीला छोड़ने पर सुर नहीं निकलते। अधिक कसने पर तार टूट भी सकते हैं। इसलिए उन्होंने मध्यम मार्ग को अपनाने का आग्रह किया। तत्कालीन समाज में व्याप्त कुरीतियों व विसंगतियों का निदान करते हुए उन्होंने कहा था कि यदि बुद्धि को शुद्ध न किया गया तो परिणाम भयावह होंगे। उन्होंने चेताया कि बुद्धि के दो ही रूप संभव हैं- कुटिल और करुण। बुद्धि यदि कुसंस्कारों में लिपटी है, स्वार्थ के मोहपाश और अहं के उन्माद से पीड़ित है तो उससे केवल कुटिलता ही निकलेगी, परन्तु यदि इसे शुद्ध कर लिया गया तो उसमें करुणा के फूल खिल सकते हैं। बुद्धि अपनी अशुद्ध दशा में इंसान को शैतान बनाती है तो इसकी परम शुद्ध दशा में व्यक्ति “बुद्ध” बन सकता है, उसमें भगवत सत्ता अवतरित हो सकती है। उन्होंने चार सूत्र दिये जो “चार आर्य सत्य” के नाम से जाने जाते हैं। पहला-दुःख है। दूसरा-दुःख का कारण है। तीसरा-दुःख का निदान है। चौथा- वह मार्ग है जिसके द्वारा दुःख का निदान होता है। इसके बाद मानव बुद्धि को शुद्ध करने के लिए भगवान बुद्ध ने इसका विज्ञान विकसित किया। इसके लिए उन्होंने आठ बिंदु सुझाये जो बौद्ध धर्म में ‘अष्टांग मार्ग’ के नाम से जाने जाते हैं। आठ चरणों वाली इस यात्रा का पहला चरण है- सम्यक दृष्टि अर्थात सबसे पहली जरूरत है कि व्यक्ति का दृष्टिकोण सुधरे। हम समझें कि जीवन सृजन के लिए है न कि विनाश के लिए। दूसरा चरण है- सम्यक संकल्प। ऐसा होने पर ही निश्चय करने के योग्य बनते हैं। इसके बाद तीसरा चरण है – सम्यक वाणी यानि हम जो भी बोलें, उससे पूर्व विचार करें। मुंह से निकले शब्द अपने साथ दूसरे या सामने वाले के हितसाधक हों। चौथा चरण है – सम्यक कर्म। यानी मानव कुछ करने से पूर्व परिणाम के बारे में भली भांति विचार कर ले। अगला चरण है-सम्यक आजीविका- यानी कमाई के रास्ते ईमानदारी के हों। छठा चरण है- सम्यक व्यायाम अर्थात शारीरिक श्रम व उचित आहार विहार के द्वारा शरीर को स्वस्थ रखा जाय। सातवां चरण है- सम्यक स्मृति। यानि बुद्धि की परिशुद्धि। आठवां व अंतिम चरण है – सम्यक समाधि। इस अंतिम सोपान पर व्यक्ति बुधत्व की अवस्था प्राप्त कर सकता है। ये आठ चरण मनुष्य के बौद्धिक विकास के अत्यंत महत्वपूर्ण उपादान हैं।
इस ‘अष्टांग मार्ग’ के उपरांत बुद्ध ने दुनिया को पंचशील का सिद्धांत दिया। बौद्धधर्म की आधारशिला उनके यही पंचशील माने जाते हैं। पंचशील अर्थात मनुष्य के आचरण को नैतिक बनाने के लिए बुद्ध द्वारा निर्धारित किये गये पांच नियम। ये पंचशील हैं- 1. प्राणी मात्र की हत्या से दूर रहना , 2. चोरी न करना, 3. व्यभिचार से विरत रहना ,4. झूठ न बोलना, 5. शराब व अन्य मादक द्रव्यों से विरत रहना। त्रिपिटक ग्रंथों में इन पंचशीलों की विस्तृत व्याख्या मिलती है। इन पंचशीलों के द्वारा बुद्ध ने दुनिया को मर्यादित जीवन जीने की सीख दी। उन्होंने कहा कि सिर्फ उतना संजोकर रखो जितनी कि तुम्हें जरूरत है। तृष्णा का नकारो, हिंसा छोड़ो और जीवमात्र से प्यार करो। प्रत्येक प्राणी को अपना जीवन जीने का उतना ही अधिकार है, जितना कि तुम्हें है। वे कहते हैं कि झूठ भी हिंसा है क्योंकि वह सत्य का दमन करती है। सिर्फ उसी वस्तु को अपना समझो जिसको तुमने न्यायपूर्ण ढंग से अर्जित किया है। उनके पांचवें शील ‘मद्यपान निषेध’ के बारे में स्वामी विवेकानन्द ने लिखा है कि बुद्ध वे प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने मद्यनिषेध के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था।
विडंबना है कि हमारे समाज में तथाकथित बुद्धिजीवियों का एक वर्ग हिन्दू व बौद्ध धर्म को एक दूसरे का विरोधी बताकर समाज में वैमनस्य फैलाने में जुटा रहता है। क्षुद्र मानसिकता वाले ऐसे राष्ट्रविरोधी तत्वों को इस तथ्य से अवगत होने की आवश्यकता है कि श्रीमद्भागवत महापुराण में वर्णित भगवान विष्णु के दशावतारों में बौद्ध धर्म के प्रणेता महात्मा बुद्ध को दसवें अवतार के रूप में चित्रित किया गया है। वस्तुतः महात्मा बुद्ध का अवतरण मध्ययुग की एक महत्वपूर्ण क्रांतिकारी घटना है जिसने हिन्दू धर्म की विकृतियों को दूरकर सनातन धर्म के मूल आदर्शों को पुनः प्रतिष्ठित किया था। बुद्ध का मूल प्रतिपादन जिन तीन सूत्रों – ‘बुद्धं शरणं गच्छामि’, ‘संघं शरणं गच्छामि’, ‘धम्मं शरणं गच्छामि’ अर्थात हम बुद्धि व विवेक की शरण में जाते हैं, हम संघबद्ध होकर एकजुट रहने का व्रत लेते हैं, धर्म की नीति निष्ठा का वरण करते हैं में निहित है सनातन धर्म के भी मूल आधार हैं। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का बुद्ध के बारे में कहना था कि गीताकार के शब्दों में वे “स्थितप्रज्ञ” हो चुके थे और उन्हें “ब्रह्म-निर्वाण” का साक्षात्कार हो चुका था, उन्होंने जीते जी देवत्व प्राप्त कर लिया था। देश के पूर्व राष्ट्रपति, सुप्रसिद्ध दार्शनिक व शिक्षाविद डा. राधाकृष्णन ‘द हिन्दू व्यू ऑफ लाइफ’ में लिखते हैं कि महात्मा बुद्ध का मूल लक्ष्य वस्तुतः उपनिषदों के आदर्शवाद को उसके सर्वोत्तम रूप में प्रस्तुत कर उसे मानवता की दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अनुकूल बनाना था। ऐतिहासिक रूप से बौद्ध धर्म के उदय का मुख्य प्रयोजन लोगों के बीच उपनिषदों की सनातन शिक्षाओं का प्रसार करना ही था।
काबिलेगौर हो कि बैसाख माह की पावन पूर्णिमा महात्मा बुद्ध के जीवन के तीन महत्वपूर्ण घटनाओं से अर्थात बुद्ध के जन्म, बोध प्राप्ति और परिनिर्वाण से जुड़ी है। आज से लगभग 2600 वर्ष पहले इस महान विभूति ने महाराज शुद्धोधन के यहां राजकुमार सिद्धार्थ के रूप में जन्म लिया था। फिर इसी बैसाख पूर्णिमा को महातपस्वी सिद्धार्थ की अन्तर्चेतना में बुद्धत्व ने जन्म लिया था और संसार में सद्ज्ञान का आलोक फैलाने के बाद 80 वर्ष की अवस्था में एक अन्य महान बैसाख पूर्णिमा इस महामानव के महापरिनिर्वाण की साक्षी बनी।
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