राजस्थान के बांसवाड़ा जिले में मानगढ़ पहाड़ी पर 1913 में ब्रिटिश सेना द्वारा किए गए नरसंहार में 1,500 से अधिक वनवासियों ने अपने प्राण त्यागे थे। उनकी याद में हर साल 17 नवंबर को मानगढ़ बलिदान दिवस मनाया जाता है
राजस्थान के बांसवाड़ा में जलियांवाला बाग से बड़ा नरसंहार हुआ था। 1913 में ब्रिटिश सेना द्वारा जिले की मानगढ़ पहाड़ी पर किए गए नरसंहार में 1,500 से अधिक वनवासियों ने प्राण त्यागे थे। मानगढ़ धाम में आजादी के अमृत महोत्सव के अंतर्गत गत 1 नवंबर को इन अमर बलिदानियों की याद में धूलिवंदन कार्यक्रम का आयोजन किया गया। इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और गुजरात के मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल, राज्यपाल मंगूभाई पटेल और केंद्रीय मंत्री अर्जुनराम मेघवाल सहित भील और वनवासी समुदाय के संत मौजूद रहे।
इस अवसर पर प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि जब भारत में विदेशी हुकूमत के खिलाफ आवाज बुलंद हो रही थी, तब भील वनवासियों के बीच गोविंद गुरु शिक्षा की अलख जगा रहे थे और उनमें देशभक्ति की ऊर्जा भर रहे थे। मानगढ़ धाम गोविंद गुरु और मातृभूमि के लिए प्राण न्योछावर करने वाले सैकड़ों वनवासियों के बलिदान का प्रतीक है। उन्होंने कहा कि मानगढ़ धाम राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र की साझी विरासत है।
चारों राज्यों को इसके लिए मिलकर काम करना चाहिए। उन्होंने चारों राज्यों से आपस में बातचीत कर मानगढ़ के विकास के लिए रोडमैप तैयार करने की अपील की ताकि गोविंद गुरु का स्मृति स्थल दुनियाभर में अपनी पहचान बनाए। मानगढ़ नरसंहार को याद करते हुए उन्होंने कहा कि यह भारत में ब्रिटिश शासन द्वारा अत्यधिक क्रूरता का एक उदाहरण था। दुर्भाग्य से स्वतंत्रता संग्राम की इतनी महत्वपूर्ण और प्रभावशाली घटना को इतिहास में जगह नहीं मिल पाई। आजादी के अमृत महोत्सव में भारत उस कमी को पूरा कर रहा है और दशकों पहले की गई गलतियों को सुधार रहा है।
80 हजार परिवारों से संपर्क
पश्चिम भारत का यह भील बहुल क्षेत्र आज वागड़ कहलाता है। राजस्थान और गुजरात की सीमा से सटे वागड़ क्षेत्र का मानगढ़ धाम गोविंद गुरु के अनुयायियों के बलिदान का साक्षी है। वनवासी कल्याण आश्रम के प्रदेश संगठन मंत्री जगदीश कुल्मी बताते हैं, ‘‘कल्याण आश्रम बीते 20 वर्ष से मानगढ़ को लेकर समाज जागरण कर रहा है।
धूलि पूजन कार्यक्रम की तैयारियां बीते छह माह से की जा रही थीं। इस कार्यक्रम में शामिल होने के लिए राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात के छह जिलों के करीब 80,000 परिवारों से संपर्क कर निमंत्रण दिया गया। अब लोगों को मानगढ़ का महत्व समझ में आ रहा है। बीते 16 वर्ष से हर वर्ष 20 दिसंबर को गोविंद गुरु की जयंती पर उनके पैतृक गांव बांसिया में भी कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं, जिसमें बड़ी संख्या में वनवासी बंधु शामिल होते हैं।’’
कौन थे गोविंद गुरु?
गोविंद गुरु (गोविंद गिरि) स्वाधीनता आंदोलन में भील क्रांति के नायक एवं सामाजिक-धार्मिक सुधारक थे। उनका जन्म 20 दिसंबर,1858 में मानगढ़ पहाड़ी से 30 किलोमीटर दूर बांसिया गांव में हुआ था। बचपन से ही अध्यात्म में रुचि रखने वाले गोविंद गुरु की भेंट 1882 में उदयपुर में महर्षि दयानंद सरस्वती से हुई। इसके बाद उन्होंने अपना जीवन देश, धर्म और समाज की सेवा में समर्पित कर दिया।
उन्होंने भक्ति के माध्यम से समाज में स्वाभिमान जागरण की धूणी परंपरा शुरू की और राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश के जनजातीय इलाकों में 1890 के दशक में भगत आंदोलन चलाया। उनकी प्रेरणा से वनवासी समाज में स्वतंत्रता के प्रति जागृति आई और हजारों धूणियां स्थापित होने लगीं। उन्होंने स्कूली शिक्षा नहीं ली, लेकिन भीलों के बीच शिक्षा और आजादी की अलख जगाई।
1903 में गोविंद गुरु ने कुरिया महाराज, ज्योति महाराज, बाला भगत, लिम्बा भगत, कालजी भगत, भीमा जोरजी भगत, थावरा और पूजा भगत आदि के साथ मिलकर ‘संप सभा’ नामक संगठन बनाया। इसके जरिये भीलों का ‘संप’ अर्थात् मेल-मिलाप शुरू किया। ‘संप’ में उन्होंने एकता स्थापित करने, व्यसनों, बुराइयों, कुप्रथाओं का परित्याग व विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने, शिक्षा, सदाचार, सादगी अपनाने, अपराधों से दूर रहने, बेगार प्रथा तथा अन्याय का बहादुरी से सामना करने और अंग्रेजों के अत्याचार का मुकाबला करने के प्रति लोगों को जागरूक किया। इससे अंग्रेज घबरा गए। अंग्रेज सरकार ने गोविंद गुरु और उनके साथियों को चेताया, धमकाया लेकिन वे भयभीत नहीं हुए।
मानगढ़ की बलिदान गाथा
बांसवाड़ा जिला मुख्यालय से करीब 80 किलोमीटर दूर, करीब 800 मीटर ऊंची मानगढ़ पहाड़ी पर 17 नवंबर, 1913 (मार्गशीर्ष पूर्णिमा) को वार्षिक मेला लगा था। गोविंद गुरु ‘भूरेटिया नई मानू रे नई मानू’ गाते हुए हजारों अनुयायियों के साथ पहाड़ी पर यज्ञ करने के लिए एकत्र हुए थे। तभी ब्रिटिश फौज ने पहाड़ी को घेर कर तोपों और बंदूकों से हमला किया, जिसमें युवा, महिला, बच्चे, वृद्ध सहित सैकड़ों लोग मारे गए।
ब्रिटिश हुकूमत ने गोविंद गुरु को गिरफ्तार कर लिया। उन्हें पहले फांसी की सजा सुनाई गई थी, जिसे बाद में उम्र कैद में बदल दिया गया। वे 1923 तक जेल में रहे। जेल से छूटने के बाद वे भील सेवा सदन के माध्यम से जनसेवा करते रहे। 30 अक्तूबर, 1931 को गुजरात के कम्बोई गांव में उनका निधन हो गया। वहां उनकी समाधि है, जिस पर हर साल लोग श्रद्धासुमन अर्पित करने आते हैं।
सम्पूर्ण समुदाय के सामूहिक आत्मोत्सर्ग का ऐसा अनूठा उदाहरण इतिहास में कहीं नहीं मिलता। मानगढ़ और इसके आस-पास रहने वाले लोग अपने पुरखों की बलिदानी गाथा आज भी लोककथा के रूप में संजोए हुए हैं। गोविंद गुरु और उनके शिष्यों द्वारा स्थापित धूणियां आज भी उस बलिदान की गाथाएं, वनवासी भगतों की वाणियां सुनाती हैं।
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