न भूलने वाला पल
घर से भागने के बाद हम जब शिविर में आए तो जिहादी यहां भी हिन्दुओं को निशाना बना रहे थे। जो भी शिविर के बाहर जाता, मुसलमान उसे मार डालते थे
जगत राम कुकरेजा
कोहाट, पाकिस्तान
बचपन की बहुत सारी यादें आज भी उस समय आंखों के सामने तैर जाती हैं, जब कोई मेरी माटी की बात मुझसे करता है। कैसे कोई अपना घर, गलियां, मंदिर-गुरुद्वारे, मेला, रामलीला, खेत-खलिहान और वहां के रहन-सहन को भूल सकता है। सब कुछ याद है। महसूस करता हूं इतने दिन बाद भी इस सबको। लेकिन दूसरी तरफ विभाजन की पीड़ा है। एक अजीब सी कसक है मन में, जिसे सिर्फ वही महसूस कर सकता है, जिसने इसे भुगता है। जिसने अपना घर छोड़ा होगा, उसे कितना दुख हुआ होगा ? उफ्फ…
मैं उन दिनों सात-आठ साल का रहा होऊंगा। मेरे पिताजी का कपड़े और सूखे मेवों का व्यापार था। सब कुछ अच्छा चल रहा था। यूं कहें तो बंटवारे के पहले हमारे इलाके में रामराज्य था। मुझे याद है कि पिताजी प्रतिदिन भोर के तीन-चार बजे उठ जाते थे और फिर अपने काम पर निकल जाते थे। जब निकलने लगते थे तो मैं उनसे चवन्नी मांगता था।
जब मुझे यह पैसा मिलता था तो मैं बहुत खुश हो जाता था। लेकिन धीरे-धीरे हमारे इलाके की स्थितियां बिगड़ने लगीं। माहौल में एक अजीब-सा डर नजर आने लगा। जो दोस्त हुआ करते थे, वह दुश्मन जैसा व्यवहार करने लगे थे।
विभाजन शुरू होते ही इलाके के हिन्दुओं के घरों को मुसलमान निशाना बनाने लगे थे। हमारे कई परिवार के सदस्य मुसलमानों द्वारा मारे गये। मुसलमानों का जब हमारे घर पर हमला हुआ तो परिजन सभी चीजें छोड़कर घर से भाग खड़े हुए। पिताजी परिवार को एक शिविर में लेकर आए। लेकिन यहां भी खतरा बरकरार था।
मुसलमान शिविर को भी निशाना बना रहे थे। जो कोई भी शिविर के बाहर जाता, जिहादी उसे मार डालते थे। यानी हालात बदतर होते जा रहे थे। सबको अपनी जान की चिंता थी। उस समय यह नहीं पता था कि कौन कहां जा रहा है। जिसको जैसा मौका मिलता, वह अपनी जान बचाने के लिए उस ओर भाग खड़ा होता। इन्हीं में जो लोग बच गये वह बाद में हिन्दुस्थान आने में सफल हुए। लेकिन इस दौरान सारा परिवार तितर-बितर हो गया। खासकर हमारे समाज के साथ बहुत ही गलत हुआ।
बहन-बेटियों को लूटा गया, बलात्कार किया गया और फिर मार डाला गया। आज भी जब इस बारे में सोचने बैठता हूं तो मन बेचैन हो उठता है। आज जो मेरी पत्नी हैं उनकी तो हैरान करने वाली कहानी है। कुछ मुसलमान उन्हें अगवा करने के इरादे से बोरी में बांधकर ले जा रहे थे। लेकिन जब वह बहुत जोर से चिल्लाई तो जिहादी उन्हें छोड़कर भाग गए और उनकी जान बच सकी।
खैर, हिन्दुस्थान आने के बाद हम परिवार के साथ हरिद्वार और फिर देहरादून आकर बस गए। दर-दर की ठोकरें खाईं। कहां अपने घर में सब कुछ था, ठीक-ठाक संपत्ति के मालिक थे पर बंटवारे के बाद एक-एक चीज के लिए संघर्ष करना पड़ा। आज भी जब उन दिनों को याद करता हूं तो मन में टीस होती है। लेकिन इसके बावजूद अपनी माटी को आज भी याद करता हूं।
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