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मूल निवासी दिवस : कन्वर्जन से जुड़ी ताकतों का षड्यंत्र

संयुक्त राष्ट्र ने 9 अगस्त को मूल निवासी दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की थी। यह पश्चिम का इतिहास है कि वहां विभिन्न मूल निवासियों के साथ औपनिवेशिक शक्तियों ने निर्मम व्यवहार किया। भारत में कुछ शक्तियां कन्वर्जन और समाज में विभाजन के उद्देश्य से इस दिवस को मनाने के लिए कुछ समाजों को उकसाती हैं, परंतु भारत के सभी नागरिक यहां के मूल नागरिक हैं, इसलिए भारत में इस दिवस का कोई अर्थ नहीं है

by डॉ. राजकिशोर हांसदा
Aug 9, 2022, 11:42 am IST
in भारत, संस्कृति
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संयुक्त राष्ट्र संघ का प्रस्ताव एक सराहनीय कदम था। सैकड़ों वर्षों से उन राष्ट्रों के मूल निवासियों को निर्ममतापूर्ण व्यवहार झेलना पड़ा था, उससे कुछ राहत तो जरूर मिलेगी ही, भले ही यह थोड़ी मात्रा में ही क्यों न हो। इन देशों के मूल निवासियों पर जिस प्रकार के अत्याचार हुए और उसके चलते उन्हें निरीह सा जीवन व्यतीत करना पड़ा, ये सारी बातें वर्णनातीत हैं। उन्हें अपनी ही जन्मभूमि में एक सम्मानजनक जीवन जीने के अधिकार से वंचित रखा गया।

संयुक्त राष्ट्रसंघ की घोषणा के तहत 1994 से 9 अगस्त के दिन विश्वभर में मूल निवासी दिवस मनाना शुरू हो गया था। 9 अगस्त 1982 को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा मूल निवासियों की स्थिति पर अध्ययन करने के लिए जो समिति गठित हुई थी, उसके स्मारणार्थ इस दिवस को मनाने की घोषणा हुई थी। पर 9 अगस्त अमेरिका के मूल निवासियों के इतिहास में अत्यंत हृदयविदारक दिन भी था। 1610 ईस्वी में इसी दिन ब्रिटिश सेना ने वर्जीनिया के निकट स्थित पौहटन कबीले के 75 पास्पहेघ जाति के मूल निवासियों की निर्मम हत्या की थी। यदि कोई तर्क देता है कि इस घाव पर मरहम-पट्टी बांधने के लिए ही शायद इस दिवस को मूल निवासी दिवस के रूप में घोषित किया तो उसे गलत नहीं ठहराया जा सकता।

पौहटन की घटना एकमात्र ऐसी घटना नहीं थी जिसमें मूल निवासियों को उपनिवेशी ताकत की अमानवीय हिंसा का सामना करना पड़ा है। इस प्रकार की अनेक घटनाएं हुईं जिनमें विश्व भर में लाखों मूल निवासियों का उन्मूलन हुआ। ऐसी अनेक घटनाएं अफ्रीका, अमेरिका, एशिया और आस्ट्रेलिया महाद्वीपों में लगातार हुईं और उपनिवेशी शक्तियां इन महाद्वीपों के कुछेक देशों को छोड़कर अधिकांश देशों की सत्ता पर अपना शिकंजा कसने में कामयाब हुईं। भारत ऐसे देशों में एक था जिसने अपनी क्रांतिकारी गतिविधि और अहिंसात्मक आंदोलन, इन दोनों के बदौलत उपनिवेशी ताकतों को उखाड़ फेंकने में सफलता हासिल की थी।

संयुक्त राष्ट्र संघ का प्रस्ताव एक सराहनीय कदम था। सैकड़ों वर्षों से उन राष्ट्रों के मूल निवासियों को निर्ममतापूर्ण व्यवहार झेलना पड़ा था, उससे कुछ राहत तो जरूर मिलेगी ही, भले ही यह थोड़ी मात्रा में ही क्यों न हो। इन देशों के मूल निवासियों पर जिस प्रकार के अत्याचार हुए और उसके चलते उन्हें निरीह सा जीवन व्यतीत करना पड़ा, ये सारी बातें वर्णनातीत हैं। उन्हें अपनी ही जन्मभूमि में एक सम्मानजनक जीवन जीने के अधिकार से वंचित रखा गया।

2007 में संयुक्त राष्ट्र संघ का घोषणापत्र अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मूल निवासियों के अधिकार की दृष्टि से किया गया व्यापक उपाय था। वह मूल निवासियों के अधिकारों के विषय में वैश्विक सहमति का प्रतिनिधित्व करता है। इतना ही नहीं, उनकी सुरक्षा, सम्मान और कल्याण हेतु जो व्यवस्था खड़ी करनी चाहिए, इसको भी स्पष्ट करता है। मूल निवासियों की विषय परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए उनके कल्याण हेतु मानवाधिकार के स्तर और मौलिक स्वतंत्रता आदि बातों का वर्णन यह घोषणापत्र करता है।

मूल निवासी शब्द को सही ढंग से परिभाषित करने में यह प्रस्ताव पूर्णतया विफल रहा है, ऐसा कहना कोई गलत नहीं होगा। प्रस्ताव में मोटे तौर पर इतना कहा गया कि मूल निवासियों की पहचान ऐतिहासिक बातों को ध्यान में रख कर की जाएगी। पर भौगोलिक दृष्टि से ऐतिहासिक अनुभूतियां भिन्न होने के कारण एक मापदण्ड के आधार पर ऐसे जनसमूहों की पहचान करना शायद संभव नहीं होगा।

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) ने अपने 169वें कन्वेंशन में अंतरराष्ट्रीय संधि 1989 किया था। इस संधि के अनुसार अधिकार का विचार करते समय मूल निवासियों की संस्कृति और जीवन शैली को महत्व देने पर बल दिया गया था। यह संधि उन्हें अपनी भूमि, प्राकृतिक सम्पदा पर आधारित अपने विकास की प्राथमिकता को परिभाषित करने का अधिकार भी प्रदान करता है। इस कन्वेंशन में सभी भेदभाव पर आधारित व्यवहारों, जो इनको बाधित करते हैं, से ऊपर उठकर उनके जीवन से जुड़ी सभी निर्णय प्रक्रिया में उनको सहभागी बनाने के लक्ष्य को भी उजागर किया गया था।

भारत में कन्वर्जन के लिए उपयोग
भारत के संदर्भ में कुछेक राष्ट्रविरोधी ताकतें और शरारती तत्वों ने मूल निवासी दिवस का उपयोग कन्वर्जन के जरिए समाज में विभाजन लाने के अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए किया। वे भारत सरकार द्वारा इस विषय पर लिये गए निर्णय को पलटकर इस दिवस को भारत में विश्व आदिवासी दिवस के रूप में मनाने और बहुसंख्यक समाज से जनजाति समाज को दूरी रखने के लिए उपयोग करते हैं।

मूल निवासियों के संदर्भ में इतिहास का हवाला देते हुए भारत की घोषित नीति यह है कि भारत के नागरिक चाहे जनजाति हों या गैरजनजाति, सभी भारत के मूल निवासी हैं। अपने संविधान निमार्ताओं ने अत्यंत स्पष्ट धारणा के आधार पर सभी नागरिकों को बराबरी का अवसर, सुरक्षा और अधिकार प्रदान करने की दिशा में अपना विचार रखा था। इतना ही नहीं, जो जनसमूह राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक कारणों से पिछड़ गया हो, उनके उत्थान हेतु विशेष सुविधा एवं प्रावधानों को लागू करने के लिए ऐसी जनजातियों को संयुक्त राष्ट्रसंघ के 2007 के घोषणा के 5 दशक पूर्व ही 1950 में विशेष अनुसूची में रखा गया था। भारत के सभी नागरिक यहां के मूल निवासी होने, उनकी अपनी विरासत होने और परम्पराएं होने के कारण संयुक्त राष्ट्रसंघ की घोषणा से समाज के किसी एक घटक को विशेष फायदा पहुंचाने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।

ऐसे स्थिति में चर्च और मिशनरियों द्वारा अनुसूचित जनजाति के लोगों को 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस के रूप में मनाने के लिए उकसाया जा रहा है। उस दिवस का भारत के संदर्भ में कोई महत्व नहीं है। यदि उस दिवस का पालन करना भी है तो विश्व के मूल निवासियों के लिए शोक दिवस के रूप में इसका पालन करना ही उचित रहेगा। मूल निवासियों के संबंध में संयुक्त राष्ट्रसंघ के घोषणापत्र में कुछ भी कहा गया हो, यह दृश्य पश्चिम के देशों में हमें देखने को मिलता है। उन देशों में जिन समूहों को कुचलने का प्रयास किया गया था, उनके साथ एकजुटता प्रदर्शित करते हुए हमारा यह कहना है कि उनसे जुड़ी सभी बातों का परिमार्जन करें और उनके कष्ट निवारण हेतु संबंधित सभी सरकारें उचित कदम उठाएं।

संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र भारत के संदर्भ में लागू नहीं
पर संयुक्त राष्ट्रसंघ की यह घोषणा भारत के लिए लागू नहीं होती क्योंकि भारत में सभी लोग यहां के मूल निवासी हैं। भारत के संविधान में यहां के सभी नागरिकों को संयुक्त राष्ट्रसंघ की घोषणा पत्र में दिए गए 46 अनुच्छेदों में से एक-दो विषयों को छोड़कर सभी अधिकारों को प्रदान करने के उपाय किए गए हैं। उनमें से आत्मनिर्णय करने का अधिकार अत्यंत कुटिलतापूर्ण है। भारत के प्रतिनिधि ने इस घोषणापत्र के समर्थन में हस्ताक्षर करते वक्त आत्मनिर्णय के अधिकार को यह कहकर अस्वीकार किया था कि यह देश की एकता और अखंडता के खिलाफ है और देश की सार्वभौमिकता के लिए खतरा है। भारत जैसे देश, जो अपने नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों को विभिन्न माध्यमों से संरक्षण देते हैं, यह अनुच्छेद अत्यंत दुष्परिणति का कारण बनेगा और भारत के लिए यह झूठा साबित होगा। भारत के प्रबुद्ध वर्ग और समाचार माध्यमों से जुड़े लोगों का ध्यान इस ओर शायद ही गया होगा।

भारत में कुछेक ऐसे संगठन हैं जो जनजाति समाज की संस्कृति, पहचान, विश्वास और मूल्यों को बिगाड़ना चाहते हैं। वे कन्वर्जन के कार्य में लगे हैं। कन्वर्जन को रोकने के लिए कठोर से कठोर कार्रवाई करने की आवश्यकता है। वे आर्य आक्रमण सिद्धांत को लाकर जनजातीय लोगों को अपनी तरफ यह कहकर आकर्षित करना चाहते हैं कि जनजातियों को आर्य लोगों द्वारा जंगल में खदेड़ दिया गया था। जिस प्रकार आर्यों ने द्रविड़ लोगों को दक्षिण में सागर के किनारे तक खदेड़ा था, ऐसा बिना कोई सबूत के तर्क देने में वे संकोच नहीं करते। पर कुछ समय पूर्व हड़प्पा क्षेत्र में स्थित राखीगढ़ी में की गई खुदाई ने आर्य आक्रमण सिद्धांत को पूर्णतया यह कहकर ध्वस्त किया है कि यहां कोई आक्रमण उस कालखंड में हुआ है, ऐसा कोई सबूत नहीं मिलता। पुरातत्व विभाग के तथ्य, डीएनए काल गणना, आनुवंशिक तथ्य आदि ने तो इस सिद्धांत को खारिज करने की दिशा में ही संकेत किया है।

जनजातीय गौरव दिवस
भारत की जनजाति के लिए और सभी भारतवासियों के गौरव और स्वाभिमान के संवर्धन के लिए भारत सरकार ने भगवान बिरसा मुंडा जी के जन्मदिन 15 नवंबर को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाने का निर्णय 2021 में किया। बिरसा मुंडा अत्यंत ख्यातिप्राप्त और व्यापक मान्यता प्राप्त क्रांतिकारी नेता थे जिन्होंने साहस के साथ ब्रिटिश अधिकारी और कन्वर्जन में लगे ईसाई मिशनरियों के खिलाफ एक ही समय में लड़ाई लड़ी थी। ब्रिटिश अधिकारी और मिशनरियों की टोपी एक है, ऐसा वे कहते थे। इसका अर्थ है, दोनों का लक्ष्य एक है। यह सत्य बिरसा को जल्दी ही समझ में आया था। समय के साथ बिरसा की क्रांतिकारी गतिविधियों की चर्चा देशव्यापी हो गई है और जनजाति के सामने बिरसा मुंडा की छवि एक जननायक के रूप में आई है। इसलिए भारत सरकार ने बहुत ही सही कदम उठाया और उनके जन्मदिन को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाने का निर्णय किया। अब हम को अपना गौरव दिवस प्राप्त हो गया है, इस लिए 15 नवंबर को ही जनजातीय गौरव दिवस के रूप में धूमधाम से मनायेंगे।

भारत के संदर्भ में 9 अगस्त को कोई विशेष महत्व नहीं है। विश्व के मूल निवासियों के अपने अधिकारों के संघर्ष में उनसे एकजुटता प्रकट करना है इस विषय में अपना कर्तव्य है।
(लेखक जनजाति सुरक्षा मंच के राष्ट्रीय सह संयोजक हैं)

Topics: (Identity)संयुक्त राष्ट्र संघविश्व आदिवासी दिवसभारत में कन्वर्जनCultureBelief of Tribal Society
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