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मध्यकालीन सोच से आगे बढ़ने की जरूरत

हितेश शंकर by हितेश शंकर
Feb 14, 2022, 09:30 pm IST
in भारत, सम्पादकीय, दिल्ली
प्रदर्शन करती मुस्लिम महिलाएं

प्रदर्शन करती मुस्लिम महिलाएं

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काबुल, राजौरी से बढ़ते-बढ़ते स्त्री को मध्यकालीन बेड़ियों में जकड़ने वाला कट्टरपंथी विमर्श कर्नाटक तक आ पहुंचा है। इसके समक्ष सामाजिक एकजुटता और न्यायिक दृढ़ता नए भारत की जरूरत है।

क्या हमें फरखंदा की कहानी याद है? अफगानिस्तान की 27 वर्षीय युवती थी, हिजाब पहनती थी। मुल्लाओं के उकसावे में 19 मार्च, 2015 को काबुल में एक समूह ने उसपर हमला किया। सड़क पर हमलावरों की भारी भीड़ ने घेरा और मार डाला। आरोप लगाया गया कि फरखंदा ने कुरान जलाया है। एक महिला पर आरोप लगाकर, उसकी घेराबंदी करके मारने वाली इस मानसिकता को आप क्या कहेंगे? हालांकि हत्या को कैसे भी आप जायज नहीं ठहरा सकते, कुरान जलाया हो या नहीं। इन्हें किसी व्यक्ति की हत्या का आधार नहीं बनाया जा सकता। और फिर, वे आरोप भी झूठे थे।

मजहब की आड़ लेकर प्रतिबंध और कानून हाथ में लेने का खेल क्या सिर्फ काबुल-कराची तक सीमित है? नहीं।

कुछ साल पहले कश्मीर के राजौरी में मुस्लिम कट्टरवादियों ने एक 43 वर्षीया महिला जान बेगम की हत्या हिजाब न पहनने के कारण कर दी थी। सेकुलर, प्रगतिशील या नारीवादियों के मुंह से हिजाब थोपने और महिला के साथ-साथ नारी अधिकारों की हत्या करने पर भी बोल नहीं फूटे।

 आज कर्नाटक के उडुपी से हिजाब विवाद को जिन मुस्लिम कट्टरवादी जमातों ने शुरू किया है, कुछ नेता और जमातें इसका राजनीतिक लाभ लेने के लिए आगे आई हैं। जो राजौरी से लेकर अफगानिस्तान तक स्त्री गरिमा, मानवाधिकारों की हत्या होने पर तालिबानी अत्याचारों पर कुछ नहीं बोले, वो आज इस बुर्के की पैरोकार तालिबानी सोच का समर्थन कर रहे हैं।

वैसे एक सभ्य समाज में कानून ताक पर रखकर वर्ग विशेष की ओर से प्रतिबंध लगेंगे तो कहां तक लगेंगे। भारत में भी हिजाब के पैरोकार, कट्टरता के पैरोकारों को देखते हुए ये बहस जरूरी हो जाती है। पहली बात ये कि हिजाब को लागू कराकर मुल्ला बिरादरी हासिल क्या करना चाहती है। एक महिला को जो सिर्फ खा जाने वाली नजरों से देखते हैं, वे लोग महिलाओं को कितने कटघरों और पिंजरों में रखना चाहते हैं? दूसरी बात, उनकी तरफदारी करने वाले लोग कौन हैं? प्रगतिशील, सेकुलर!

महिलाओं के शरीर को देखकर हम बहक जाएंगे, इसलिए बजाय हमें सुधरने के उन्हें चादर में लपेट देना चाहिए- क्या यह सोच सभ्य समाज की या कहिए, स्वस्थ समाज की सोच हो सकती है?

जब इस बातों पर बहस होती है तो प्रगतिशीलता कट्टरवादियों के संग दिखाई देती है। हिंदुस्थान को अफगानिस्तान बनाने वाली तालिबानी सोच के पैरोकारों को आप सेकुलर या प्रगतिशील कैसे कह सकते हैं। वास्तव में यह दोमुंहापन है, जहरीली सोच है जो जहर को ही पालती है।

याद कीजिए 2016 में शूटर हिना सिद्धू और 2018 में शतरंज खिलाड़ी सौम्या स्वामीनाथन ने ईरान में हिजाब की अनिवार्यता के चलते टूर्नामेंट से नाम वापस ले लिया था। तब भारत के प्रगतिशील, सेकुलर और नारीवादी कहां थे?

इन महिला खिलाड़ियों को सोशल मीडिया पर कट्टरपंथियों ने जी भरकर गालियां दी थीं। एक भी नारीवादी का तब बोल नहीं फूटा था।

हिजाब-बुर्का  पर कई देशों में प्रतिबंध
दूसरी बात, हिजाब को लेकर ये विवाद आधुनिक दुनिया के लिए नया नहीं है। आधुनिक दुनिया इसे नकार रही है। फ्रांस ने 2004 में ही स्कूल-कॉलेज में बुर्के पर प्रतिबंध लगाया था। 2011 से पूर देश में सार्वजनिक स्थानों पर चेहरा ढकने के किसी भी तरह के वस्त्र, उपकरणों पर प्रतिबंध लगाया गया। बेल्जियम ने 2011 में, रूस ने 2012 में, डेनमार्क ने 2018 में, आॅस्ट्रिया ने 2016, बल्गारिया ने 2017 में सार्वजनिक स्थान पर बुर्का व चेहरा ढकने के अन्य वस्त्रों के उपयोग पर प्रतिबंध लगाया था। नीदरलैंड ने 14 वर्षों की बहस के बाद बुर्का पर प्रतिबंध का कानून लागू किया। यहां तक कि सीरिया में 2010 से स्कूल-कॉलेजों में हिजाब पहनने पर प्रतिबंध है। इटली में भी प्रतिबंध है।

सामाजिक नियम निजी स्वतंत्रता से बड़े
सार्वजनिक स्थान पर चेहरा ढकने की, पहचान छिपाने की छूट नहीं दी जा सकती। ये एक विचारशील दुनिया है। एक व्यक्ति जब समाज में आता है तो सामाजिक नियम व्यक्तिगत स्वतंत्रता से बड़े हो जाते हैं। उसी के आधार पर समाज चलता है। गौर करें कि आप सार्वजनिक जगहों पर मास्क पहनते हैं, मास्क चेहरा ढकता है। परंतु जब आप हवाईअड्डे पर प्रमाणीकरण (वेरीफिकेशन) की कतार में जाते हैं तो चाहे हिजाब हो, नकाब हो या मास्क हो, उसे उतारना पड़ता है।

जब कोई व्यवस्था समाज से जुड़ी होती है तो आप ये नहीं कह सकते कि यह आप उसे नहीं मानेंगे क्योंकि वह आपका व्यक्तिगत मामला है। उदाहरण के तौर पर यदि आप अपने साथ लाइटर रखना चाहते हैं तो रख सकते हैं परंतु विमान में लाइटर लेकर नहीं जा सकते क्योंकि इससे बाकियों की सुरक्षा के लिए खतरा हो सकता है, अन्य व्यवस्थाओं के लिए खतरा हो सकता है। विमान में मोबाइल को एरोप्लेन मोड पर डालने को कहते हैं क्योंकि मोबाइल बाकी व्यवस्थाओं को बाधित करता है।

विद्यालय में सभी विद्यार्थियों का समान वेश सबके सामान्यीकरण का सामाजिक अनुशासन है। यह किसी एक के विशिष्टीकरण की विसंगति को रोकता है।

इस प्रकार की व्यवस्थाओं को यदि आप बाधित करते हैं तो आप पर युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाना समाज का अधिकार है। युक्तियुक्त प्रतिबंधों का ही अर्थ है स्वतंत्रता। और स्वतंत्रता एवं स्वछंदता के बीच यही एक फर्क है।

इसी तरह जब हिजाब की बात आती है तो एक तरफ हिजाब है और दूसरी तरफ नंगापन है। यदि बीच की लाइन खींचनी पड़े तो खुलेपन और गरिमा के बीच आपको स्पष्ट विभाजन करना पड़ेगा। किसी भी चीज को बेलगाम होने की छूट सामाजिक व्यवस्था में नहीं दी जा सकती। एक तरफ किसी पर पर्दे लादते जाएं तो दूसरी तरफ कोई और नंगई पर उतारू हो जाए। दोनों ही चीजें सामाजिक नियमन में बाधा उत्पन्न करती हैं और ऐसे में ये कहना कि ये व्यक्तिगत स्वंतत्रता का मामला है, गलत है। ये जेंडर से जुड़ा ऐसा मामला नहीं जिसे महिलाओं की स्वतंत्रता के अधिकार का मामला बताया जाए।  जो पुरुष महिला को शिकार की निगाह से देखते हैं, उन्होंने इसमें अपनी सुविधा का तर्क गढ़ रखा है। जिसमें सुधार की आवश्यकता पुरुष के बजाए महिला पर ही डाल दी गई है।


सार्वजनिक स्थान पर चेहरा ढकने की, पहचान छिपाने की छूट नहीं दी जा सकती। ये एक विचारशील दुनिया है। एक व्यक्ति जब समाज में आता है तो सामाजिक नियम व्यक्तिगत स्वतंत्रता से बड़े हो जाते हैं। उसी के आधार पर समाज चलता है। गौर करें कि आप सार्वजनिक जगहों पर मास्क पहनते हैं, मास्क चेहरा ढकता है। परंतु जब आप हवाईअड्डे पर प्रमाणीकरण (वेरीफिकेशन) की कतार में जाते हैं तो चाहे हिजाब हो, नकाब हो या मास्क हो, उसे उतारना पड़ता है।


हिंसक वृत्तियों पर रोक के लिए प्रतिबंध जरूरी
ये दुनिया इस बहस को जिस तरीके से देख रही है, उसे देखना पड़ेगा। जैसे पश्चिम में हिंसक प्रदर्शनों की संख्या हमारे यहां से कम है। मगर जब बुर्का पर प्रतिबंध की बात आई और स्विटजरलैंड में पिछले वर्ष मार्च में दलीलें रखी गईं तो उसमें यह कहा गया कि सार्वजनिक जगहों पर प्रदर्शन होते हैं और चेहरा ढका होता है, इसलिए चेहरे को ढकना प्रतिबंधित किया गया। भारत में हमने देखा है कि पथराव करने वालों के चेहरे ढके होते हैं, केरल में भी देखे हैं और कश्मीर में भी देखे हैं। वहां जेंडर नहीं है। तो एक तरफ अपनी पशु मानसिकता के आधार पर एक जेंडर को गुलाम बनाने की कोशिशों और दूसरी तरफ, हिंसक वृत्तियों और कट्टरवाद को दबाने के लिए भी नकाब, बुर्का या आड़ के इस्तेमाल, पर रोक लगनी चाहिए।

बुर्के का चलन गैर-मजहबी
एक और बात है। वाशिंगटन पोस्ट में प्रकाशित एक आलेख में भारत की असरा क्यू. नोमानी और मिस्र की हाला अरफा ने बताया है कि कैसे हिजाब और बुर्के को इस्लाम से जोड़ा गया जबकि इसमें मजहबी कुछ नहीं है। 1979 तक मुस्लिम महिलाओं के लिए हिजाब या बुर्के की बाध्यता नहीं थी। वे लिखती हैं कि यह आधुनिक मुस्लिम समाज पर प्रभुत्व जमाने का दकियानूसी मुस्लिमों का अच्छी तरह से वित्तपोषित प्रयास है।

लेखिकाओं ने ये भी लिखा है कि बुर्के का चलन कैसे बढ़ा। एक तो 1979 में ईरानी शिया आंदोलन के कारण और दूसरे, जब सऊदी अरब के धनाढ्य सुन्नी मुल्लाओं का प्रभाव बढ़ा, तो गली-मोहल्लों में लड़कियों-महिलाओं से कहा कि गया कि वे सिर ढक कर रखें, बदचलन औरतें सिर नहीं ढकतीं। इस तरह महिलाओं पर दबाव बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई।

फिर 2013 में एक बांग्लादेशी-अमेरिकी महिला नजमा खान, जो ब्रुकलिन स्थित एक हिजाब कंपनी की मालिक है, और शिया टीवी स्टेशन अहलुल बैत ने विश्व हिजाब दिवस की शुरुआत की। इसे युनिवर्सिटी आॅफ कैलगरी ने समर्थन दिया। उनका तर्क था कि महिलाओं को अवांछित नजरों से बचाने के लिए हिजाब जरूरी है। इसके बाद वर्चुअलमॉस्क्यू.कॉम और अल-इस्लाम आॅर्ग नामक अतिदकियानूसी वेबसाइटों ने हिजाब न पहनने वाली महिलाओं का मजाक उड़ाने वाले आलेख छापने शुरू किए।

हालांकि 7वीं सदी से अब तक मोरक्को की फातिमा मरनिसी से यूसीएलए के खालिद अबु अल अदल, और हार्वर्ड की लैला अहमद, मिस्र के जकी बदवई, इराक के अब्दुल्ला अल जुदाई और पाकिस्तान के जावेद घामिदी जैसे मुस्लिम विद्वानों ने स्पष्ट रूप से स्थापित किया है कि मुस्लिम महिलाओं को अपने बालों को ठकने की कोई जरूरत नहीं है।

हेडस्कार्फ और बुर्का  समानार्थी नहीं
दूसरी बात, एक बड़ी दिलचस्प बात है कि दरअसल जिसे कट्टरवादी हेडस्कार्फ बता रहे हैं, हिजाब और बुर्के का अंतर बता रहे हैं, वैसा कुछ है ही नहीं। बुर्के का अर्थ ही है बैरियर या प्रतिबंध, अरबी में कहीं बुर्के का अर्थ हेडस्कार्फ होता ही नहीं। अरबी में ‘हिजाब’ का शाब्दिक अर्थ है ‘पर्दा’। इसका अर्थ ‘छिपाना,’ ‘बाधित करना’ और किसी को या किसी चीज को ‘अलग-थलग करना’ भी है। किसी भी व्याकरण से हिजाब या बुर्का को हेडस्कॉर्फ साबित नहीं किया जा सकता। दूसरे, कुरान या किसी अन्य मजहबी किताब में कहीं भी उल्लेख नहीं है कि ये चीजें मुस्लिम महिलाओं की मजहबी पहचान से जुड़ी हैं। ये एक कठमुल्ला सोच है, कट्टरता की सोच है, समाज की विभाजनकारी सोच है और महिलाओं को दबाने वाली सोच है। कुछ महिलाएं इसकी गिरफ्त में दिखती हैं जो हिजाब की पैरोकारी करती हुई दिख रही हैं। दरअसल उनके घर, परिवार, समाज में ऐसा दबाव बना दिया गया है।

दरअसल पूरे मुस्लिम समाज को जब हम कहते हैं कि पिछड़ा है, गरीबी है, अशिक्षा है तो वह इस कारण से है कि उनके जो नेता बने बैठे हैं, वह मध्यकालीन सोच के हैं। मध्यकालीन सोच से निकले बिना न सामाजिक विकास हो सकता है, न मुस्लिम समाज का विकास हो सकता है, न मुस्लिम समाज के भीतर महिलाओं का विकास हो सकता है। इसलिए आवश्यकता उन शिक्षण संस्थानों को भी ठीक करने की है जहां समान व्यवहार नहीं किया जाता और भारत के संविधान के अनुसार सभी नागरिकों को बराबर नहीं समझा जाता। यह उपचार किया जाना समय की जरूरत है।

और अंत में बात न्यायालय की। उडुपी के हिजाब प्रकरण का मामला गरमाने पर कर्नाटक उच्च न्यायालय की एकल बेंच से लेकर यह मामला जिस तरह बड़ी बेंच के पास गया, उससे कुछ गंभीर सवाल उठ खड़े हुए हैं। क्या सामाजिक विमर्श के ऐसे सीधे सरल मुद्दों पर, जहां विद्यालय का अनुशासन भी कुछ लोग अपनी हेकड़ी से तोड़ना चाहते हैं, भी क्या सीधे दृढ़ साफ फैसले त्वरित गति से नहीं दिए जा सकते। मामला गरमाने वालों की भीड़ देखकर उच्च न्यायालय की बेंच का आकार बड़ा करना न्यायिक दृढ़ता के प्रति अनावश्यक सामाजिक चर्चाओं को जन्म दे सकता है।

काबुल, राजौरी से बढ़ते-बढ़ते स्त्री को मध्यकालीन बेड़ियों में जकड़ने वाला कट्टरपंथी विमर्श कर्नाटक तक आ पहुंचा है। इसके समक्ष सामाजिक एकजुटता और न्यायिक दृढ़ता नए भारत की जरूरत है।

@hiteshshankar

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