इस बार राष्ट्रीय पर्व गणतंत्र दिवस पर 'अबाइड विद मी' की धुन नहीं बजी। जानकारी पहले से ही सभी को मिल गई थी किन्तु चूंकि यह निर्णय प्रधानमंत्री भाजपा की अगुवाई वाली सरकार के दौरान लिया गया तो विरोध होना तय था। हुआ भी यही। कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दलों ने इसे महात्मा गांधी से जोड़कर मुद्दा बनाने की पूरी कोशिश की। भारत के स्व की जब भी बात होती है तब ये राजनीतिक दल उसके विरोध में खड़े हो जाते हैं। एक तरह से वे भारतीयता, भारतीय संस्कृति का विरोध करने लगते हैं। गौर करने वाली बात यह है कि इस मामले में कहीं अहिंसक गांधी जी के अनावश्यक उल्लेख के पीछे समाज को बरगलाने-उकसाने वाली बौद्धिक हिंसा का खेल तो नहीं खेला जा रहा है?
शत्रुओं के हृदय में भय और देशवासियों के मन में सेना के प्रति आश्वस्ति व आदर का भाव राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण है। जरा सोचिए सेना को अनावश्यक मानने वाले गांधी जी का उल्लेख इस सेना के ही बैंड के विषय में क्यों? इसके बजाय सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र के कई ऐसे ज्यादा महत्वपूर्ण विषय हैं जहां गांधी जी की राय वास्तव में दिशा निर्णायक हो सकती है परंतु आश्चर्य कि कोई गांधी प्रेमी, गांधीवादी या गांधी उपनाम को भुनाने वाला कोई भी गांधीजी की उन बातों का जिक्र भूले से भी नहीं करता। कहना जरूरी है कि गांधी जी को गद्दी और गड्डी तक सीमित करने वाली इस सोच के लिए गांधी जेब की चीज हैं। जेब के नीचे, गांधी उनके दिल में हैं ही नहीं।
महात्मा गांधी शायद अपने नाम की ताकत भुनाती और सरोकार के बजाय सत्ता की ओर फिसलती कांग्रेस का भविष्य नेहरू के दौर की शुरूआत में ही भांप चुके थे। उन्होंने तो कांग्रेस को खत्म कर देने का आग्रह किया था। मगर उनकी बात पर किसने ध्यान दिया? खैर, राजनीति से अलग कुछ और मुद्दों और गांधीजी के विचारों की बात करते हैं।
यह तो निश्चित है कि दिखावे के लिए गांधीजी का नाम जपने वाले भारतीयता पर महात्मा गांधी के विचारों से या तो अवगत नहीं हैं या फिर उनके बताए मार्ग पर चलना नहीं चाहते।
ध्यान दीजिए, गांधीजी की पसंद-नापसंद के बारे में इतनी गहरी बात खोदकर निकालने वाले (कि उन्हें हेनरी फ्रांसिस लॉएट रचित चर्च की धुन ‘अबाइड विद मी’ बहुत अच्छी लगती थी) कभी भूले से भी नहीं बताते कि महात्मा गांधी ने भारत के संदर्भ में ईसाइयत का डटकर विरोध किया है।
कन्वर्जन के विरुद्ध थे गांधी जी
असल में अबाइड विद मी पर फर्जी प्रलाप से परे दवा और दीक्षा (शिक्षा) दो ऐसे क्षेत्र हैं जहां गांधी जी के विचार पूरे देश को एक बड़े षड्यंत्र से बचा सकते हैं। चिकित्सा क्षेत्र में कन्वर्जन का कोढ़ गांधीजी ने पहचान लिया था। मिशनरियों ने जब कहा कि स्वतंत्र भारत में क्या उन्हें कन्वर्जन करने की छूट होगी तो इस पर गांधी जी ने उन्हें स्पष्ट ना में जवाब दिया था।
उनका मानना था कि लालच के बल पर कन्वर्जन घोर अनैतिक है। यंग इंडिया पत्रिका में प्रकाशित एक लेख में उन्होंने कहा कि कन्वर्जन पाप है, इसे रोकना जरूरी है। मेरे पास शक्ति है तो सबसे पहले भारत में संगठित कन्वर्जन को रोकना होगा। किसी का मतान्तरण करना घोर पाप है। धर्म मेरी अपनी शक्ति है। यह हमारे हृदय को छूता है। मैं उस डॉक्टर की बात मान कर अपना धर्म क्यों बदलूं जिसने मुझे ठीक किया है। मेरे हाथ में शक्ति हो तो मैं इसे रोकने का प्रयास करूंगा।
गांधीजी ईसाई उपनिवेशवादी शक्तियों द्वारा भारतीय शिक्षा तंत्र को ध्वस्त करने से आहत थे। लंदन के चैथम हाउस में 1931 में उन्होंने एक व्याख्यान दिया था। इसमें उन्होंने कहा था ‘अंग्रेज जब भारत में आए तो उन्होंने यहां की स्थिति को उसी रूप में स्वीकार नहीं किया बल्कि उसका उन्मूलन करने लगे। उन्होंने मिट्टी कुरेदी और जड़ों को बाहर निकालकर खुला ही छोड़ दिया। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि भारत में शिक्षा का रमणीय वृक्ष नष्ट हो गया।’
महात्मा गांधी ने यह बात आज से करीब नब्बे साल पहले कही थी। सेवा और चिकित्सा की आड़ में करोड़ों भारतीयों का धोखे, लालच से कन्वर्जन रुक सकता था। शिक्षा का जो रमणीय वृक्ष नष्ट हुआ, उसे सहेजा जा सकता था यदि स्वतंत्रता के बाद गंभीर प्रयास किए जाते। लेकिन, ऐसा नहीं हुआ।
गांधी जी ने ईसाई मिशनरियों के क्रियाकलापों पर अपने संस्मरणों में लिखा है कि राजकोट में उनके स्कूल के बाहर एक मिशनरी हिंदू देवी-देवताओं के लिए अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करता था। गांधी जी ने कन्वर्जन का जीवन भर विरोध किया। सी.एफ. एंड्रूज ईसाई मिशनरी थे। उनका कहना था कि धर्म के संदर्भ में बापू का स्वदेशी से मतलब था कि सब अपने-अपने संप्रदाय में ही रहें। गांधीजी कन्वर्जन के खिलाफ थे तो इसका एक कारण यह भी था कि अधिकतर मामलों में वनवासी इसमें फंसते थे। उन्हें पेट पालना होता था।
आध्यात्मिक परिवर्तन लक्ष्य नहीं था। हरिजन पत्रिका में उन्होंने लिखा कि हिन्दू परिवारों में किसी ईसाई मिशनरी का प्रवेश उस परिवार का विघटन करना होता है। वे खान-पान, वेश-भूषा और अंग्रेजी शिक्षा व इलाज का प्रलोभन देते हैं। हिन्दू परिवार इससे टूट रहे हैं। यह हिन्दू समाज और देश के लिए बड़ी विपत्ति का कारण बनेगा।
शिक्षा क्षेत्र में ईसाई खिलवाड़
सेना की परेड में अमुक धुन बजने, ना बजने से कोई नुकसान चाहे न हुआ हो मगर शिक्षा क्षेत्र में ईसाई खिलवाड़ की दिल दहलाने वाली कहानियां आए दिन आती रहती हैं। ताजा मामला तमिलनाडु का है। सेक्रेड हार्ट हायर सेकेंडरी स्कूल, तिरुकटटुपाली की नाबालिग छात्रा का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ। ईसाइयत स्वीकारने के दबाव से परेशान होकर उसने आत्महत्या कर ली। (आगे के पन्नों पर पूरी रिपोर्ट)
ऐसा नहीं है कि ईसाई स्कूलों से जुड़ा इस तरह का यह पहला मामला है। इस तरह की कई घटनाएं हो चुकी हैं। त्रिपुरा की घटना भी ज्यादा पुरानी नहीं हुई है, 2019 की ही बात है। एक बच्चे को हॉस्टल के वार्डन ने इतना पीटा कि उसकी सांसें बंद हो गर्इं। उस बच्चे ने भी जबरन कन्वर्जन का विरोध किया था।
जाहिर है, इस क्रूरता की जड़ें बहुत गहरी हैं। यह बौद्धिक और शारीरिक हिंसा कई वर्षों से चल रही है। मामले सिर्फ तमिलनाडु या त्रिपुरा के नहीं हैं, यह समाज की पीड़ा है। नई शिक्षा नीति बन गई है। सभी को सहज- स्वाभाविक शिक्षा नहीं मिल सकती है तो बच्चों पर दबाव बनाने वाले इस तरह के अत्याचार बढ़ाने वाले स्कूल खोलने का क्या मतलब?
आबादी के मुकाबले साढ़े छह गुना ईसाई स्कूल
गांधी के देश में इस बात की समीक्षा होनी चाहिए कि ईसाई बच्चों के लिए स्कूल कम हैं या मिशनरियों ने स्कूलों को भी पढ़ाने के बजाय ‘ईसाई बढ़ाने’ का हिंसक औजार बना लिया है। देश में ईसाइयों की आबादी 11.5 प्रतिशत है, जबकि मजहबी अल्पसंख्यक स्कूलों में इनकी हिस्सेदारी करीब 72 प्रतिशत है। ईसाइयों को इतने स्कूल क्यों चाहिए, वह भी तब जबकि हर वर्ष इन स्कूलों पर बाल अत्याचार और उत्पीड़न के इतने आरोप लगते हैं। ध्यान दीजिए, ईसाई मिशनरी स्कूलों में करीब 62.5 प्रतिशत लोग गैर अल्पसंख्यक हैं। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने ऐसे स्कूलों को भी सर्व शिक्षा अभियान के दायरे में लाने की सिफारिश की है। एक रिपोर्ट में बताया गया कि ईसाई मिशनरी स्कूल आर्थिक रूप से कमजोर बच्चों को एडमिशन देने में आनाकानी करते हैं। इन बच्चों को दाखिला न देकर वे 2500 करोड़ रुपये से अधिक की कमाई कर रहे हैं।
कैथोलिक चर्च में बच्चों और महिलाओं के यौन शोषण पर फ्रांस की एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 1950 से 2020 तक 3 लाख 30 हजार बच्चों का यौन शोषण किया गया। ये प्रगतिशील, उन्नत फ्रांस के आंकड़े हैं, अन्य देशों में क्या हाल होगा, इसकी कल्पना आप कर सकते हैं।
चिकित्सा क्षेत्र में मिशनरियों पर आरोप
चिकित्सा क्षेत्र में भी मिशनरियों पर आरोप गहरे हैं। रोगी अस्पताल इस आशा में जाता है कि उसे सही इलाज और दर्द से छुटकारा मिलेगा। लेकिन, मिशनरीज आफ चैरिटी के अस्पतालों में मरीजों ने दर्द भोगा। ब्रिटिश-अमेरिकी लेखक क्रिस्टोफर हिचेन्स ने टेरेसा पर – मिशनरी पोजीशन : टेरेसा इन थ्योरी एंड प्रैक्टिस-नामक पुस्तक लिखी। इसमें वह कहते हैं कि-कल्पना कीजिए किसी मरते हुए कैंसर रोगी को, दर्द में कराहते वृद्ध को, जिसे उसकी तथाकथित सेवा कर रहे लोग ‘पेनकिलस’ से वंचित रखें, या इलाज के बिना तड़पता छोड़ दें, ताकि वह जीसस द्वारा सूली पर भोगे गए दर्द को महसूस करके ईसाइयत में प्रवेश कर सके। ऐसा हजारों अभागों के साथ हुआ है। अस्पतालों में स्वच्छता की कमी, अपर्याप्त भोजन और दर्द निवारक दवाएं न होने पर हिचेंस ने टेरेसा से पूछा तो उनका उत्तर था-‘गरीबों, पीड़ितों द्वारा अपने नसीब को स्वीकार करता देखने में, जीसस की तरह कष्ट उठाने में एक तरह का सौंदर्य है। उन लोगों के कष्ट से दुनिया को बहुत कुछ मिलता है।’ वर्ष 1991 की बात है, जब टेरेसा बीमार पड़ीं तो ये सिद्धांत उन पर लागू नहीं हुए। वह अमेरिका के कैलिफोर्निया स्थित स्क्रिप्स क्लीनिक एंड रिसर्च फाउन्डेशन में भर्ती हुई।
सेवा और समर्पण के मूल भाव और इसके पीछे छिपी कथित मंशा में अंतर करना भी जरूरी है। वर्ष 2018 की ही बात है। झारखंड में मिशनरीज पर बच्चों को बेचने का आरोप लगा था। दो नन गिरफ्तार की गईं। उन्होंने बच्चे बेचने की बात मानी। इसी राज्य में नवजात बच्चों के रजिस्टर की जांच में 280 बच्चे गायब मिले। सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस पर जवाब तलब किया था। और भी कई उदाहरण हैं। दिसंबर 2021 में गुजरात के वड़ोदरा में मिशनरीज आॅफ चैरिटी पर कन्वर्जन का आरोप लगा। बाल गृह में लड़कियों को ईसाई बनने के लिए प्रलोभन दिया गया।
भारत विविधता का देश है और गांधीजी ने पढ़ाई और दवाई के क्षेत्र में विविधता को नष्ट करने वाले कन्वर्जन कुचक्र को पहचाना था। आस्थाएं यदि मानवाधिकार का विषय हैं तो इन्हें चोट पहुंचाना सीधे मानवाधिकार को चोट पहुंचाने के समान है। फुसलाकर या जबरन कन्वर्जन करने वाले व्यक्ति के मानवाधिकार का हनन करते हैं। विविधता को नष्ट करता कन्वर्जन का आक्टोपस इतना विशाल हो गया है कि इसके उपचार की सख्त जरूरत है। समाज के लिए समय मधुर धुन सुनने का नहीं, सेवा और शिक्षा की आड़ में पलते खतरे की आहट पहचानने का है।
@hiteshshankar
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