जयराम शुक्ल
स्वामी विवेकानंद युवाओं के आदर्श हैं। उनकी जयंती पर युवा दिवस मनाया जाता है। उनके बारे में इतना कुछ लिखा पढ़ा जा चुका है कि एक औसत युवा भी कुछ न कुछ तो जानता ही है। स्वामीजी ने भारतीय ज्ञान परंपरा, अध्यात्म और सनातनी संस्कृति की कीर्तिपताका को विश्व में फहराया। अमेरिका धर्म संसद में दिए गए भाषण और फिर विद्वानों द्वारा की गई व्याख्या की वजह से उन्हें विश्वव्यापी ख्याति मिली।
युवाओं के भविष्य की जितनी चिंता स्वामीजी ने की शायद ही किसी मनीषी ने की हो। वे हमेशा यह कहते- सृष्टि में जो कुछ भी श्रेष्ठ है वह तुम्हारे भीतर है उसे पहचानो, उठो, जागो और लक्ष्य तक पहुंचो। विवेकानंद ने धर्म को तर्क की कसौटी पर परखने की सीख दी और कहा- धार्मिक बनो, लेकिन धर्मान्ध नहीं। उनकी प्रसिद्ध उक्ति है- कोई मुझसे पूछे कि गीता पढ़ोगे या फुटबॉल खेलोगे, मैं अवश्य ही पहले फुटबॉल खेलना चाहूंगा क्योंकि कि स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मानस के चलते ही गीता समझ में आएगी। वे युवाओं के नेतृत्व वाले समाज की कल्पना करते और कहते कि 100 विवेकी और सामर्थ्य युवा किसी भी क्षेत्र में क्रांति लाने में सक्षम हैं। वे युग की अच्छाइयों को देशानुकूल ढालने और अपने देश की विशिष्टता को युगानुकूल बनाने की बात करते थे। प्रकारांतर में इसी विचार को पं. दीनदयाल उपाध्याय ने सूत्रवाक्य बना दिया। पंडित उपाध्याय का सार्वजनिक जीवन में जितना कुछ योगदान है वह युवावस्था का ही है। वे लंबा जीवन नहीं जी पाए पर उनके विचारों ने उन्हें चिरप्रासंगिक बना दिया।
स्वामीजी ने यूरोप और अमेरिका में जगह-जगह पहुंचकर व्याख्यान दिए। भारत की पुरातन और सनातन विशिष्टता को जन-जन तक पहुंचाया। वे जीवन पर्यंत भारतीय ग्यान परंपरा और मेधा को वैश्वक क्षितिज देने के लिए प्रयत्नशील रहे। कभी-कभी विचार आता है कि यदि स्वामीजी अमेरिका न गए होते तो क्या उनको इतनी ख्याति मिलती? शायद नहीं। इसलिये ऐसा लगता है कि उनके समकालीन और भी कई ऐसे उद्भट विद्वान रहे होंगे, जिन्हें विदेश जाने का अवसर नहीं मिला इसलिये वे वैश्विक नहीं हो पाए। और यहां अपने देश में उनके गुन के गाहक नहीं मिले। हमारी आज भी यही सबसे बड़ी ग्रंथि है कि हम अपने ही गुन के गाहक नहीं हैं। ..घर का जोगी जोगड़ा आन गांव का सिद्ध..। इस प्रवृत्ति ने भारतीय मेधा का बड़ा नुकसान किया है। समय के साथ कम होने की बजाय आज वह नजरिया और भी मजबूत हो चुका है। कुछ बरस पहले एक वैज्ञानिक वेंकटरमण रामाकृष्णन को रसायन विज्ञान में नोबेल पुरस्कार मिला, संभवतः 2009 में। वे गुजरात के बड़ौदा में पढ़े थे। बाद में विदेश गए और ट्रिनटी यूनिवर्सिटी में पढ़ाई व शोधकार्य पूरा किया। पुरस्कार मिलने के बाद उनके इंटरव्यू का वो कथन याद है, जिसमें उन्होंने यह बताया था कि भारत में प्रतिभाओं को किस तरह हतोत्साहित किया जाता है। आगे बढ़े नहीं कि टांग खींचने के लिए अपने ही लोग तैयार।
वेंकटरमण ने यह भी बताया था कि मेरे साथ पढ़ने वाले कई छात्र तो मुझसे भी तेज थे। उनके वे साथी आज भी होंगे अपने ही भारत में किसी स्कूल व कॉलेज में पढ़ा रहे होंगे या पटवारी-कानूनगो बनकर गृहस्थी चला रहे होंगे। वे नोबल तक इसलिये नहीं पहुंच पाए कि विदेश गए नहीं और देश के लिए देसी के देसी बने रहे। विज्ञान, धर्म आध्यात्म के अलावा अन्य क्षेत्रों में भी देखें तो अपने यहां उसी को प्रतिष्ठा मिली जो 'फारेन रिटर्न' रहा। सत्तर के दशक तक तो 'फारेन रिटर्न' शब्द सभी डिग्रियों में भारी पड़ता था, भले ही कोई विदेश से टैक्सी ड्रायवरी करके लौटा हो। स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई में अगली पंक्ति के प्रायः सभी नेता विदेश के पढ़े हुए थे, यहां तक कि देसज राजनीति करने वाले डॉक्टर राममनोहर लोहिया भी। लोहिया को छोड़कर प्रायः ऐसे सभी इंग्लैण्ड ही पढ़ने गए और लौटकर उसी के खिलाफ संग्राम शुरू किया। (लोहिया ने जर्मनी में पढ़ाई की थी) आप कह सकते हैं कि उन दिनों अपने देश में उच्चस्तरीय शिक्षण संस्थान नहीं थे इसलिए गए। मेरा आग्रह यह है कि विदेश में प्रतिभा की कदर रही होगी और बिना भेदभाव के पढ़ाई होती रही होगी। इसलिए जो वहां से पढ़कर लौटे तो अंग्रेज बनकर नहीं, पक्के राष्ट्रभक्त होकर लौटे विदेश की संस्कृति के रौ में बहे नहीं।
विदेश के लोगों व वहां की शिक्षापद्धति में कुछ ऐसी खास बात तो है कि वहां प्रतिभा का सम्मान होता हैं, इसीलिए भारतीय मूल के न जाने कितनों को नोबेल समेत अन्य सम्मान मिले। आज भी कई वहां की संसद में हैं, मंत्री, गवर्नर और कई देशों के राष्ट्रपति भी। क्या आपको यह नहीं लगता कि हम एक ऐसी हीनग्रंथि के शिकार बन चुके हैं, जिसके चलते खुदपर ही भरोसा नहीं रहा और उसे ही अपनी नियति मान लिया। हमारा चरित्र इतना ईर्षालु हो चुका है कि दूसरे की प्रतिभा को बर्दाश्त नहीं कर पाते। हमारी नजरों में वही बड़ा लेखक, वैज्ञानिक, दार्शनिक, फिल्मकार है, जिसे बुकर, पुलित्जर, नोबेल, आस्कर मिलते हैं। अपने यहां रहके कोई भले ही आसमान के तारों को छूले वह घर के जोगी का जोगी ही बना रहेगा। ऐसा क्यों है? जब इस पर भी विचार करते हैं तो पीछे की ओर लौटना पड़ता है। भारत ने विश्व विज्ञानकोष को जितना भी कुछ दिया है। वह सातवीं शताब्दी के पहले। चरक, कणाद, भाष्कराचार्य, आर्यभट्ट, पणिन,भरतमुनि, नागार्जुन आदि सभी वैज्ञानिक सातवीं सदी के पहले ही हुए हैं। इसके बाद भारत में मौलिक वैज्ञानिक अन्वेषण की परंपरा खत्म सी हो गई। सातवीं सदी के पहले तक भारत की स्थिति वही थी जो इंग्लैंड और अमेरिका की आज है।
नालंदा और तक्षशिला विश्वविद्यालय थे, जहां विश्वभर से छात्र वैसे ही पढ़ने आते थे, जैसे आज कैंमब्रिज,ऑक्सफोर्ड और ट्रिनटी जाते हैं। विदेशी हमलावरों ने धन दौलत और राज्य बाद में लूटा, उनके पहले निशाने पर यहां के शैक्षणिक संस्थान और यहां की ज्ञान परंपरा रही। बख्तियार खिलजी ने जब नालंदा में आग लगाई तो उसके सैनिक महीनों किताबों को तापते रहे। मध्यकाल तक आते-आते सब कुछ लगभग नष्ट हो गया। इसलिये जितने भी ज्ञानी थे सबने खुद को ईश्वर के हवाले कर दिया। साहित्य में भक्तिकाल इसी परिस्थितिजन्य मजबूरी का नाम है। अंग्रेजों ने भारतीय ज्ञान परंपरा की जाजम ही पलट दी। हम पर ऐसी शिक्षा पद्धति थोपी जो हमारे खुद के वजूद पर ही संदेह पैदा करने वाली थी, उसी को आज भी हम ओढ़े-दसाए चल रहे हैं। हमारा सनातनी ज्ञान और कृतियां को जो कैसे भी श्रुति-स्मृति के जरिए चलती चली आईं उन्हें अंग्रेजों ने मिथ करार देकर खारिज करना शुरू कर दिया। अब देसी अंग्रेज उसी परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। आज हालात यह है कि अमेरिका के नासा ने भले ही रामसेतु के अस्तित्व की पुष्टि की हो पर जब हम राम-रामायण, कृष्ण-महाभारत की बात करते हैं और उसे अपने सनातनी गौरव के साथ जोड़ते हैं तो कोई विदेश में रहने वाले नहीं यहां के अपने ही विद्वानलोग चढ़ बैठते हैं, बोलने वाले का गला पकड़ लेते हैं। बहस शुरू हो जाती है कि ये काल्पनिक पात्र हैं इनका हमारे सनातनी इतिहास से कोई वास्ता नहीं। रामायण-महाभारत में दर्ज प्रसंग महज मायथालॉजी हैं, कवियों की कोरी कल्पना।
जिन विद्वानों और अन्वेषकों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे भारत की सनातनी संस्कृति व ज्ञा परंपरा के बिखरे सूत्रों को सहेजकर फिर उसी गौरव को वापस लाने की दिशा में काम करें, वे पूरा वक्त इसी खोज में लगा देते हैं कि हम पूर्वकाल की भारतीय ज्ञान की पूंजी को कैसे पुंगी में बदल दें। अपने देसी बौद्धिकों की इस अधकचरी नस्ल ने देश का सबसे ज्यादा बेड़ा गर्क किया है। इन्हीं के बनाए वातावरण के चलते हमारा आत्मविश्वास इतना खोंखला हो गया है कि जब किसी प्रतिभा को विदेश में सम्मान मिलता है तभी हम उसे स्वीकार करते हैं। इन्हें यह बात भी अच्छे से जान लेना चाहिए कि स्वामी विवेकानंद ने शिकागों में उसी सनातनी दर्शन और इन अधकचरे बौद्धिकों द्वारा घोषित कर दिए गए मिथकों और मायथालॉजी के ही दृष्टांत देकर भारतीय की मेधा की धाक जमाई।
राजनीति ने भी कुछ कम नुकसान नहीं किया। भारत में यह केंद्रीय तत्व बनकर गर्भगृह में प्रतिष्ठित हो गई। अब तो कोई भी बात राजनीति से शुरू होती है और वहीं खत्म भी। राजनीति हमारी रगों में आ गई, वायुमंडल में छा गई,अब ज्ञान की रोशनी उसी से छनकर हम तक पहुंचती है। नजर उठाकर देखें, अपने यहां गली, मोहल्ले, नाले, नरदे से लेकर चौराहे सार्वजनिक इमारतें, यहां तक कि ज्ञान-विज्ञान के संस्थान सभी नेताओं के नाम पर हैं। यूरोप घूमकर आने वाले बताते हैं कि वहां के वैज्ञानिकों, कलाकारों का इतना सम्मान है कि सड़क चौराहों की बात छोड़िए हवाई अड्डे तक वैज्ञानिकों, कलाकारों के नामपर हैं। आज हम यदि विश्वगुरु बनने की बात करते हैं तो प्रतिभाओं के आंकलन का अपना पैमाना बनाएं, उन्हें सम्मान दें यह न ताके बैठे रहें कि जब बुकर मिलेगा तभी बड़ा लेखक मानेंगे। विवेकानंद ने भारतीय स्वाभिमान की वैश्विक प्राणप्रतिष्ठा की। उन्हें युवाओं का आदर्श बनाएं न बनाएं पूजें या न पूजें भारत को हर क्षेत्र में स्वाभिमानी बनाए जैसी कि स्वामी जी की अभिलाषा थी। इस ग्रंथि को हिंद महासागर में विसर्जित कर दें कि जो कुछ विदेश से आ रहा है वही श्रेष्ठ है, यह धारणा बननी चाहिए कि हमारा अपना उससे भी श्रेष्ठ है। लेकिन यह लफ्फाजी नहीं वास्तव में हर मानदंड में श्रेष्ठ रहे इसका भी जतन करें।
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