पूनम नेगी
भारतीय देव परम्परा में प्रथम पूज्य की गरिमामयी उपाधि से विभूषित विघ्नहर्ता गणेश का दस दिवसीय जन्मोत्सव भाद्रपद महीने के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी से समूचे देश ही नहीं, अपितु विश्वभर में भारतीय समुदाय के लोगों के मध्य प्रतिवर्ष अत्यन्त श्रद्धा व भक्ति के साथ मनाया जाता है।
प्रथम पूज्य भगवान गणेश भारतीय जनमानस की आस्था का अटूट केंद्र हैं। आज विश्व का शायद ही कोई कोना हो, जहां हिन्दू धर्मावलम्बी गणेश पूजन न करते हों। हिन्दू समाज का कोई भी शुभ कार्य गणपति को नमन के बिना शुरू नहीं किया जाता। क्योंकि वे सुख-समृद्धि, वैभव एवं आनंद के अधिष्ठाता होने के साथ विघ्नहर्ता भी हैं। विराट विस्तार ने आदिदेव गणपति को न केवल समूचे भारत बल्कि विदेशों तक लोकप्रिय बना दिया है। देशभर में इनके अनेक सुप्रसिद्ध व सिद्ध मंदिर हैं। रिद्धि-सिद्धि के दाता और विघ्नहर्ता गजानन महाराज अपने आप में ज्ञान और विज्ञान के विलक्षण प्रतीक हैं। श्री विनायक की अनूठी काया में मानवीय प्रबंधन के ऐसे अनूठे सूत्र समाये हुए हैं, जो दुनिया की किसी भी पाठशाला में पढ़ाए नहीं जा सकते।
गजानन गणेश की आकृति व भाव भंगिमाएं जितनी सम्मोहक व चित्ताकर्षक हैं, उनका तत्वदर्शन उससे भी अधिक शिक्षाप्रद है। गजानन गणेश की व्याख्या करें तो ज्ञात होगा कि 'गज' शब्द दो व्यंजनों से बना है-'ग' शब्द प्रतीक है गति व और गंतव्य का और 'ज' जन्म अथवा उद्गम का। अर्थात गज का भावार्थ हुआ जहां से आए हो। अंततः वहीं जाना होगा। विघ्नहर्ता गणेश की मनोहारी आकृति का विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि उनका विशाल गज मस्तक सर्वोपरि बुद्धिमत्ता व विवेकशीलता का प्रतीक है। तो सूंड़ रूपी लंबी नाक कुशाग्र घ्राणशक्ति की द्योतक, जो हर विपदा को दूर से ही सूंघ लेती है। उनकी छोटी—छोटी आंखें गहन व अगम्य भावों की परिचायक हैं, जो जीवन में सूक्ष्म लेकिन तीक्ष्ण दृष्टि रखने की प्रेरणा देती हैं। उनका लंबा उदर दूसरों की बातों की गोपनीयता, बुराइयों, कमजोरियों को स्वयं में समाविष्ट कर लेने की शिक्षा देता है। बड़े-बड़े सूपकर्ण कान का कच्चापन न होने की सीख देते हैं। उनकी स्थूल देह में वह गुरुता निहित है जो गणनायक में होनी चाहिए। गणपति का वाहन मूषक चंचलता एवं दूसरों की छिद्रान्वेषण की प्रवृत्ति को नियंत्रित करने का प्रेरक है। अत्यंत छोटे एवं क्षुद्र प्राणी मूषक को अपना वाहन बना कर गणपति ने यह संदेश दिया है कि गणनायक को तुच्छ से तुच्छ व्यक्ति के प्रति भी स्नेहभाव रखना चाहिए। गणेश शौर्य, साहस तथा नेतृत्व के भी प्रतीक हैं। उनके हेरंब रूप में युद्धप्रियता का, विनायक रूप में यक्षों जैसी विकरालता का और विघ्नेश्वर रूप में लोकरंजक एवं परोपकारी स्वरूप का दर्शन होता है। गण का अर्थ है समूह। गणेश समूह के स्वामी हैं। इसीलिए उन्हें गणाध्यक्ष, लोकनायक, गणपति आदि नामों से पुकारा जाता है।
भारतीय देव परम्परा में प्रथम पूज्य की गरिमामयी उपाधि से विभूषित विघ्नहर्ता गणेश का दस दिवसीय जन्मोत्सव भाद्रपद महीने के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी से समूचे देश ही नहीं, अपितु विश्वभर में भारतीय समुदाय के लोगों के मध्य प्रतिवर्ष अत्यन्त श्रद्धा व भक्ति के साथ मनाया जाता है। इस अवधि में गिरिजानंदन सुखकारी अतिथि के रूप में सबके घरों में अलग-अलग स्वरूपों में पधारते हैं और आराधकों के दुख-कष्ट दूर कर उनको सुख-समृद्धि के अनुदान वरदान देते हैं। जानना दिलचस्प हो कि जितनी अधिक भाव-भंगिमाएं पार्वती नंदन की हैं, उतनी शायद ही किसी और देवी-देवता की हों। कहीं हाथ में लड्डू है तो कहीं सिर पर सुंदर पगड़ी; किसी प्रतिमा में भव्य सिंहासन पर विराजमान हैं तो कहीं चूहे पर; किसी जगह आराम से पालथी मारे बैठे दिखते हैं तो कहीं मनोहर नृत्य करते। भारतीय कला-संस्कृति में भिन्न-भिन्न गणेश-छवियों के दिग्दर्शन होते हैं। प्रथम पूज्य श्री गणेश ही एकमात्र ऐसे देव हैं, जिनकी विशाल आकृति इतना लचीलापन लिए हुए है कि हर चित्रकार को अपने-अपने नजरिए से उन्हें चित्रित करने का अवसर प्रदान करती है। तत्वरूप में कहें तो भगवान गणेश की सहजता व सरलता ही उन्हें सर्वाधिक जनप्रिय और जनग्राह्य बनाए हुए है।
यूं तो गणेश उत्सव की धूम समूचे देश में दिखती है, मगर महाराष्ट्र के गणेशोत्सव की रौनक अलग ही देखते बनती है। इस दौरान यहां बच्चों से लेकर बूढ़ों तक सभी 'गणपति बप्पा मोरया' के जयकारे लगाते सहज ही देखे जा सकते हैं। स्वतंत्रता आंदोलन से पूर्व गणपति पूजन आज की तरह सार्वजनिक रूप में नहीं होता था। ऐतिहासिक साक्ष्यों के मुताबिक गणेश पूजन की इस परंपरा की शुरुआत महाराष्ट्र में सातवाहन, राष्ट्रकूट व चालुक्य राजवंश के शासकों ने की थी। कालान्तर में छत्रपति शिवाजी महाराज की मां जीजाबाई ने पुणे में ग्राम्यदेवता के रूप में गणपति की स्थापना की थी। बाद में पेशवा शासकों ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया; लेकिन गणेश पूजन को लोक उत्सव का रूप देने का मूल श्रेय लोकमान्य बालगंगाधर तिलक को जाता है। उन्होंने 1893 में जिस तरह गणेशोत्सव को वृहद स्वरूप देकर इसे आजादी की लड़ाई के हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया था, उससे ब्रिटिश साम्राज्य की चूलें हिल गयी थीं।
गणेश के दस दिवसीय जन्मोत्सव की इस पावन बेला में गणेश प्रतिमाओं का दर्शन अपने आपमें एक अनूठा और मन को विभोर कर देने वाला अनुभव होता है। यूं तो मुंबई के सिद्धिविनायक के प्रति समूचे देश के श्रद्धालुओं की भारी आस्था है, मगर महाराष्ट्र के सुप्रसिद्ध अष्ट विनायकों के प्रति भी गणपति के भक्तों श्रद्धा कम नहीं है। ये अष्ट विनायक हैं- मोरगांव के मयूरेश्वर, पाली के बल्लाकेश्वर, ओझर तीर्थ के श्रीविघ्नेश्वर, रांझणगांव के श्री महागणपति, थेऊर के चिंतामणि गणेश, बेण्याद्रि के मिरिजात्मज गणेश, सिद्धटेक स्थान के सिद्धि विनायक तथा महाड़ के वरदविनायक।
विसर्जन का विलक्षण तत्वदर्शन
गणेशोत्सव के दौरान गणपति की स्थापना, पूजन व विर्सजन की परम्परा है। कुछ लोग जिज्ञासा व्यक्त करते हैं कि इतने स्वागत–वंदन के बाद उस प्रतिमा का विसर्जन क्यूं कर दिया जाता है। वस्तुत: इसके पीछे हमारी सनातन संस्कृति का आत्मा की अनश्वरता का गूढ़ तत्वदर्शन निहित है। जो यह संदेश देता है कि पुनः नए रूप स्वरूप में प्रकट होने के लिए मोह-माया को छोड़कर हमें भी एक दिन प्रकृति में ही विलीन होना पड़ेगा। इस विसर्जन के लिए निर्धारित तिथि अनंत चतुर्दशी भी विशिष्ट है। अनंत अर्थात जिसका न कोई आदि हो, न अंत; जो चिरंतन हो, अक्षत हो। इसीलिए इस शुभ दिवस पर प्रतिमा विसर्जन के साथ गौरी नंदन के दस दिवसीय जन्मोत्सव समारोह का समापन किया जाता है। गणपति बप्पा का यह दस दिवसीय पूजनोत्सव अनंत चतुर्दशी पर ही क्यों सम्पन्न होता है, इस बाबत श्रीमद्भागवत में उल्लेख मिलता है कि महर्षि वेदव्यास ने गणेश चतुर्थी से भागवत शुरू की। आंख बंद कर वे कथा सुनाते रहे और श्री गणेश अपने एक दांत को कलम बनाकर उसे लिपिबद्ध करते रहे। दस दिन बाद जब कथा पूरी कर महर्षि व्यास ने अपनी आंखें खोलीं तो पाया कि दस दिन के अनथक श्रम से गणेश जी के शरीर का तापमान अत्यधिक बढ़ गया। तब वेद व्यास जी ने तत्काल गणेश जी को निकट के जलकुंड में बैठाकर उनके शरीर का ताप शांत किया, वह तिथि अनंत चतुर्दशी की थी। तभी से अनंत चतुर्दशी को उनकी प्रतिमा के जल विसर्जन की परम्परा शुरू हो गयी। अनंत चतुर्दशी पर गणेश प्रतिमाओं के विसर्जन के पीछे जीवन की अनंतता व सांसारिक नश्वरता का अत्यन्त शिक्षाप्रद तत्वदर्शन निहित है। प्रतिमा विसर्जन की परम्परा वस्तुत: हमारे जीवन व मृत्यु के चक्र की प्रतीक है। गणेश की मूर्ति बनायी जाती है, उसकी पूजा की जाती है एवं फिर उसे अगले साल वापस पाने के लिए प्रकृति को सौंप दिया जाता है। इसी तरह, हम भी इस संसार में आते हैं, अपने जीवन की जिम्मेदारियों को पूरा करते हैं एवं समय समाप्त होने पर पुन: एक नये जीवन की उम्मीद के साथ मृत्यु की गोद में समा जाते हैं। विसर्जन हमें तटस्थता के पाठ को सिखाता है। यह सिखाता है कि सांसारिक वस्तुएं व लौकिक सुख केवल शरीर को तृप्त करती हैं न कि आत्मा को। इस जीवन में मनुष्य को कई चीज़ों से लगाव हो जाता है, लेकिन जब मृत्यु आती है, तब हमें इन सारे बंधनों को तोड़ कर जाना पड़ता है। गणपति बप्पा भी हमारे घर में स्थान ग्रहण करते हैं और हमें उनसे लगाव हो जाता है परंतु समय पूरा होते ही हमें उन्हें विसर्जित करना पड़ता है।
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