एक राह के दो राही
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होम भारत

एक राह के दो राही

by WEB DESK
Apr 14, 2021, 03:52 pm IST
in भारत, दिल्ली
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भि.रा.इदाते

समाज की एकता से जुड़े डॉ. आंबेडकरजी के विचारों को देखकर ही 1973 में आपके 73वें जन्मदिवस पर तत्कालीन सरसंघचालक श्रीगुरुजी ने भीमराव साहित्य संघ मुम्बई के अध्यक्ष श्री शिरीप कडलाक के नाम पत्र लिखकर अपनी भावनाएं व्यक्त की थीं।

श्रीगुरुजी लिखते हैं, ‘वंदनीय डॉ. आंबेडकर की पवित्र स्मृति को नमन करना मेरा स्वाभाविक कर्तव्य है। भारत के संदेश की गर्जना द्वारा जिन्होंने सारी दुनिया में खलबली मचाई, उन्होंने कहा कि दीन, दुर्बल, दरिद्र, अज्ञान में डूबे भारतवासी ही मेरे लिए ईश्वरस्वरूप हैं, उनकी सेवा करना और उनके अंदर के सूक्ष्म चैतन्य को जगाकर उनके ऐहिक जीवन को सुखपूर्ण तथा उन्नत करना, यही सच्ची ईश्वर सेवा है, ऐसा कहते हुए, अपने समाज को छुओ मत, इस अनिष्ट रूढ़ि को देख उस पर तथा उस प्रवृत्ति में संलग्न सभी रूढ़ियों के ऊपर कठोर प्रहार कर समूचे समाज की फिर से नई रचना करने के उद्देश्य से जगाकर आह्वान किया। डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने बड़े जोश से इस आह्वान का समर्थन किया और अज्ञान के दुखों व कर्दम में लोट रहे तथा अपने अपमानित समाज के बड़े और महत्वपूर्ण हिस्से को आत्मसम्मानपूर्वक खड़ा किया। यह उनकी असाधारण करामात है। उन्होंने राष्ट्र के ऊपर असीम उपकार किया है। वे ऐसे श्रेष्ठ व्यक्ति हैं कि उनसे उऋण होना कठिन हैं।

स्वामी विवेकानंद ने सही ही मार्गदर्शन किया है कि श्रीमत शंकराचार्य की कुशाग्र बुद्धि तथा भगवान बुद्ध के परम कारुणिक विशाल हृदय के मिलाप से ही भारत का उद्धार हो सकता हैै। यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि डॉ. आंबेडकर ने बौद्ध मत का स्वीकार और पुरस्कार कर इस मार्गदर्शन के महत्वपूर्ण हिस्से को पूर्ण करने के कार्य को अच्छी गति प्रदान की है। उनकी विवेचक तथा कुशाग्र बुद्धि, दार्शनिक दृष्टि से बौद्ध मत की त्रुटियों को देख रही थी और आपने उनका निर्देश भी किया है। डॉ. आंबेडकर ने इस मत को बड़े आग्रहपूर्वक समर्थन दिया। इस कारण कि व्यवहार में सफलता, शुचिता तथा एक दूसरे के लिए कारुण्यपूर्ण स्नेहमयता आदि सभी गुणों से मानवसेवा की विशुद्ध प्रेरणा प्राप्त होती है। बौद्धमत की श्रद्धा से उत्पन्न ये लाभ राष्ट्र की और साथ ही मानवता की उन्नति के लिए अत्यावश्यक हैं। समाज सुधार के उद्देश्य और धर्म के स्वरूप को विशुद्ध बनाने हेतु भगवान बुद्ध ने तत्कालीन समाजधारणा के ऊपर टिप्पणी की, अलग होने के लिए नहीं और वर्तमान काल में भी डॉ. बाबासाहेब ने भी समाज के भले के लिए, धर्म के हित में, अपना चिरंजीव समाज दोष रहित तथा सुदृढ़ बने, इसी उद्देश्य से कार्य किया- समाज से अलग होकर अपना भिन्न पंथ बनाने के इरादे से नहीं- यही मेरी श्रद्धा है और इस युग में भगवान बुद्ध के उत्तराधिकारी इस नाते आपकी पवित्र स्मृति में मैं अंत:करणपूर्वक अभिवादन कर रहा हूं। (पत्ररूप श्री गुरुजी, पृ. 44)

डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के जन्मशताब्दी वर्ष का प्रारंभ दिनांक 14 अप्रैल, 1990 के दिन हुआ। इस उपलक्ष्य में प्रकाशित निवेदन में सरसंघचालक श्री बालासाहेब देवरस कहते हैं, भारत एक नाजुक हालात से गुजर रहा है और उसी समय महान देशभक्त, सामाजिक समरसता के समर्थक तथा भारतीय संविधान के शिल्पकार पूजनीय डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की जन्मशताब्दी का वर्ष दिनांक 14 अप्रैल, 1990 से आरंभ हो रहा है। आज की कठिन परिस्थितियों में समाज को डॉ. बाबासाहेब के विचारों तथा जीवन से प्रेरणा लेकर भारतीय जनतंत्र, राष्ट्रीय एकात्मता और सामाजिक एकता को मजबूत बनाने का प्रयास करना चाहिए। और निर्मल मन से डॉक्टर साहेब के कार्य का मूल्य मापन करना चाहिए।

दलित बंधुओं के प्रति हो रहे अन्याय को मुखरित कर उन्हें न्याय दिलाने की धारणा और उद्देश्य से किए गए आपके प्रयत्नों की पराकाष्ठता का प्रमुख कारण देश की एकता ही था। उनकी धारणा थी कि यदि देश कुछ अच्छे दिन देखे ऐसा किसी को लगा, तो जातिभेद समाज में से नष्ट होना चाहिए और उसके लिए जाति का उच्चाटन होना चाहिए। आपकी इस धारणा का प्रतिपादन करते हुए श्री दत्तोपंत ठेंगडी जी ने आपके एक कथन का संदर्भ दिया है। डॉ. बाबासाहेब कहा करते थे

So long as castes remain, Hindu religion cannot be made a missionary religion and shuddhi will be both folly and futility. So long as castes remain there would be no Sangathan and so long as there is no Sangathan, the Hindus would remain weak and meek. Caste has made sangathan and co-operation even for a good cause impossible. There is no Hindu consciousness in every Hindu, the consciousness that exists is the consciousness of the castes.

(जब तक जाति रहेगी, हिन्दू धर्म एक मिशनरी धर्म नहीं बनाया जा सकता है और शुद्धि एक नादानी और निरर्थकता ही बनी रहेगी। जब तक जाति रहेगी, तब तक संगठन नहीं हो सकता है, और जब तक संगठन नहीं होगा, हिन्दू कमजोर और दीन बने रहेंगे। जाति ने किसी अच्छे उद्देश्य के लिए भी संगठन और सहयोग को असंभव बना दिया है। प्रत्येक हिन्दू में हिन्दू जागृति नहीं है, जो जागृति है, वह जाति की जागृति है)

(अपने समाज के भविष्य के बारे में अपेक्षाएं- कल की और आज की- पृष्ठ 74)
अगर हम डॉ. बाबासाहेब के राष्ट्रचिंतन को विश्लेषित करें तो हिन्दू समाज पर विचार करना अपरिहार्य लगता है। इतना ही नहीं, हिन्दू समाज में अगर सुधार हो नहीं पाया, आवश्यक परिवर्तन समाज में नहीं हुआ, तो देश कमजोर बना रहेगा, बाबासाहेब को इसका ख्याल था। इसलिए बाबासाहेब हिन्दू समाज में सुधार लाने के अविरल प्रयास कर रहे थे। द्वारका खैरमोडे ने आपके इन प्रयासों का वर्णन नामक चांगदेव खैरमोडे की लिखी पुस्तक डॉ. आंबेडकर और हिन्दू कोड बिल में किया है। वे कहती हैं- अपने आंदोलन के आरंभ से ही माने सन् 1924 से, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के, सामाजिक समता के हित में, जिससे हिन्दू समाज एकात्म होगा, प्रयास जारी थे, वे सीधे उन के जीवन के अंत तक जारी रहे। हिन्दू समाज के कल्याण के लिए आवश्यक एकात्मता की विचार प्रणाली और उसकी पूर्ति हेतु किए जा रहे कार्य को लोगों ने आपके जीवनकाल में ठीक समझा ही नहीं। (पृष्ठ 1) ऐसी स्थिति में पं. नेहरू के लोकसभा में हिंदू कोड बिल को पेश करने के वचन को भंग करने से बाबासाहेब को घोर निराशा हुई और उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। इस अवसर पर दिए गए डॉ. आंबेडकर के भाषण पर रोक लगाकर उपसभापति महोदय ने बाबासाहेब तथा उनकी प्रगाढ़ विद्वता को अपमानित किया। समूचा हिन्दू समाज सम्मानपूर्वक चिरकाल जी सके, भारत की स्वाधीनता अक्षुण्ण रहे, इसके लिए जी तोड़ मेहनत करने वाले और सम्माननीय अवस्था प्राप्त करा देने वाले बाबासाहेब को अपमानित होकर लोकसभा छोड़नी पड़ी। कैसी रही यह दैव की गति!

डॉ. बाबासाहेब की जन्मशताब्दी के अवसर पर प्रसारित निवेदन में रा.स्व.संघ के सरसंघचालक श्री बालासाहेब देवरस इसी भाव को व्यक्त कर कहते हैं- ‘डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर जिन्हें अपने गुरु मानकर सम्मान देते थे, उन महात्मा फुले का भी अब स्मृति शताब्दी वर्ष है। महात्मा फुले तथा डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने अपने सारे आंदोलन अस्पृश्यों को उनका अधिकार दिलाने के लिए ही छेड़े। इसीलिए जब बाबासाहेब और उनके अनुयायियों के सम्मेलन में हिन्दू समाज से कृतज्ञतापूर्वक धर्मांतरण का अंतिम निर्णय हुआ, तब संघ के प्रचारक श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी बाबासाहेब से मिलने गये थे। चर्चा के दौरान बाबासाहेब ने उनसे कहा, ‘मेरे सामने सवाल यह है कि अपने देहावसान के पहले मुझे समाज के लिए कोई भी डिफिनेट डाइरेक्शन देना चाहिए क्योंकि यह समाज अभी तक दलित, पीड़ित, शोषित बना हुआ है। इसलिए अब उसमें जो नवजागृति आ रही है, उसमें एक प्रकार की चिढ़, जोश का होना सहज है और इस प्रकार का जो समाज होता है वह कम्युनिज्म का भक्ष्य बनता है (It is cannon fodder for communism)और मैं नहीं चाहता कि अपना यह समाज कम्युनिज्म के अधीन आ आए। इसलिए आप राष्टÑीय दृष्टि से उसे सीधा (सही) करने के उद्देश्य से प्रयास कर रहे हैं, लेकिन एक बात समझ लें किscheduled castes and communism Ambedkar is the barrier and between castes Hindus and communism Golwalkar may be a barrier. (अनुसूचित जातियों और कम्युनिज्म के बीच में आंबेडकर एक बाधा है और सवर्ण हिन्दुओं तथा कम्युनिज्म के बीच में गोलवलकर एक बाधा हो सकते हंै) (डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर- द.बा. ठेंगडी – पृष्ठ 16)

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में उनके मन में बहुत जिज्ञासा थी। वे संघ शिविर में गए और अस्पृश्यता का कोई नामोनिशान न देखकर प्रसन्न हुए थे। वे (महाराष्ट्र में) कराड की भवानी शाखा और दापोली की शाखा में भी गए थे। 1948 में जब संघ पर प्रतिबंध लगा हुआ था तो पूज्य श्रीगुरुजी डॉ. आंबेडकर जी को मिले थे। अपनी व्यथा उनके सामने रखी थी और संघ पर से जब प्रतिबंध हटा तो पूज्य श्रीगुरुजी ने उनको कृतज्ञता पत्र भेजा था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के समस्त स्वयंसेवक एकात्मता स्रोत में (ठक्करो भीमरावश्व, फुले नारायणो गुरु:) हर दिन उनका स्मरण करते हैं। उनको प्रात:स्मरणीय मानते हैं।

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