राष्टÑ के पुनरुत्थान का राजमार्ग संघ
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राष्टÑ के पुनरुत्थान का राजमार्ग संघ

by
Jan 1, 2018, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 01 Jan 2018 11:11:10

जैथलिया जी ने यह लेख राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ की 75वीं वर्षगांठ पर लिखा था। इसमें वे स्पष्ट कहते  हैं कि संघ कार्य को समझने की जरूरत है, क्योंकि इसी से देश का उद्धार हो सकता है

 

जुगलकिशोर जैथलिया
75 वर्ष में राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ आज एक विशाल वटवृक्ष का रूप धारण कर चुका है, जिसकी शाखाएं, प्रशाखाएं, समाज एवं राष्टÑजीवन के प्रत्येक कर्मक्षेत्र में न केवल विद्यमान हैं, बल्कि इतनी प्रभावशाली हैं कि वटवृक्ष की शाखाओं की तरह कई बार सामान्य व्यक्ति को मूल एवं शाखा की पहचान के बारे में भ्रम हो जाता है।
इसी का परिणाम है कि आज की राजनीति से अतिशय प्रभावित वातावरण में लोग संघ एवं उसके स्वयंसेवकों द्वारा प्रारंभ किए गए अन्य सामाजिक, सांस्कृतिक संगठनों को कांग्रेस सेवादल की तर्ज पर भारतीय जनता पार्टी के अधीन कार्यरत संगठन ही समझते हैं, जबकि वास्तविकता इसके ठीक विपरीत है एवं भाजपा भी उन नानाविद् संगठनों की तरह ही एक संगठन है जिन्हें संघ से प्रेरणा प्राप्त स्वयंसेवकों ने प्रारंभ किया। इस प्रकार ‘संघ परिवार’ कहे जाने वाले संगठनों की संरचना एवं रीति-नीति कांग्रेस या साम्यवादी प्रभृति राजनीतिक दलों के सहयोगी संगठनों की रचना एवं नियंत्रण से सर्वथा भिन्न है।
विद्यार्थी क्षेत्र, मजदूर क्षेत्र, समाज सेवा एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों में प्रमुखत: कांग्रेस एवं साम्यवादी दलों ने अपने-अपने सहयोगी संगठन प्रारंभ किए जो उन्हीं के इशारे पर चलते हैं एवं नियंत्रित होते हैं पर भाजपा के साथ संघ परिवार के अन्य संगठनों का ऐसा रिश्ता नहीं है। भारतीय मजदूर संघ, विद्यार्थी परिषद, विश्व हिन्दू परिषद, वनवासी कल्याण आश्रम, वन बंधु परिषद जैसे पचासों संगठन अपने-अपने क्षेत्र में एक नंबर पर हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों द्वारा ‘परं वैभवंनेतुमेतत् स्वराष्ट्रम्’ के महत उद्देश्य से प्रारंभ किए गए, स्वनिर्भर एवं स्वचालित हैं तथा सर्वोपरि बात यह है कि ये राजनीति निरपेक्ष हैं। अगर ये संगठन या इनके कार्यकर्ता निर्वाचनों में भाजपा का सहयोग करते दिखाई देते हैं तो भाजपा के निर्देश या निमंत्रण के कारण नहीं, बल्कि राष्ट्र के पुनरुत्थान में लक्ष्यों की समानता के कारण एवं अन्य राजनीतिक दलों की संघ के प्रति हठवादी शत्रुता के कारण। इसको हमारे अनेक पत्रकार बंधु सही आंकलन के अभाव में या जान-बूझकर भ्रम निर्माण करने के लिए अपने-अपने ढंग से तोड़-मरोड़कर लिखते रहते हैं।
बड़े पत्र या पत्रकार भी इस बात से इस कदर प्रभावित हैं कि वे इस संबंध में कुछ भी सुनने या समझने को तैयार नहीं। मुझे स्मरण है कि बंगाल की विद्यार्थी परिषद की शाखा को बार-बार भाजपा का विद्यार्थी संगठन लिखने पर परिषद के द्वारा ‘स्टेट्समैन’ को लिखित ज्ञापन देने पर भी उस पत्र के रवैये में इस संबंध में कोई परिवर्तन नहीं आया।
संघ कार्य को ठीक तरह समझने के लिए उसकी स्थापना के समय की परिस्थितियों एवं उसके संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के व्यक्तित्व को गहराई से समझना होगा। यदि इस कार्य को ठीक से समझ लिया तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि संघ न तो किसी तात्कालिक प्रतिक्रिया से प्रभावित हुआ, न सांप्रदायिकता का आधार लेकर खड़ा हुआ।
संघ की नींव में है राष्ट्र एवं समाज के पुनरुत्थान के लिए जात-पात, प्रांतीयता, सांप्रदायिक अहंकार एवं अन्य क्षुद्र स्वार्थों से ऊपर उठकर राष्ट्र के परंवैभव के लिए नित्यसिद्ध शक्ति खड़ी करने का सात्विक विचार। इसी के कारण नागपुर से उठा यह विचार न केवल पूरे भारत में फैला, बल्कि आज तो विश्व के लगभग 107 देशों में प्रवासी भारतीय विभिन्न नाम रूपों में एकत्र होकर धनार्जन की भूख से आगे बढ़कर भारतीय संस्कृति के सच्चे प्रतिनिधि के रूप में प्रयासरत हैं।
संघ का काम ‘शब्द’ के द्वारा नहीं, जीवित संपर्क से फैला। इसके कार्यकर्ताओं ने अपने त्याग एवं तपस्या के बल पर दसों दिशाओं में जाकर स्वयं को बीज बनाकर बो दिया। ऐसे हजारों-हजार कार्यकर्ताओं के नाम आज कौन जानता है? ध्येयनिष्ठा एवं आदर्शवाद को उपदेश या खोखले शब्दों के द्वारा दूसरों के जीवन में नहीं उतारा जा सकता। किसी ध्येयनिष्ठ एवं आदर्शवादी जीवन का संपर्क मिलने पर ही यह दूसरे में संक्रमित होता है- ‘एक दीप से जले दूसरा’- यही संघ का सूत्र वाक्य रहा है।
संघ का कार्य-असंगठित हिंदू समाज को संगठित करके नित्यसिद्ध शक्ति के रूप में खड़ा करना तथा लक्ष्य-इस प्राचीन राष्ट्र को पुन परमवैभव पर पहुंचाना।
पौराणिक आख्यानों की तरह जहां कहीं शक्ति-संचय या तपस्या का बल बढ़ेगा, इंद्र या राजा की चिंता बढ़ेगी। या तो वह उसके अनुकूल चले, नहीं तो उसे नष्ट करने के प्रयत्न होंगे। स्वाधीन भारत में भी संघ की भूमिका के विस्तार के साथ-साथ इसे कुचलने के तीन-तीन बार बड़े प्रयत्न हुए परंतु हर बार संघ अधिक प्रभावशाली होकर उभरा। 1975 के आपातकाल के समय की तो याद अधिकांश लोगों को ताजा होगी। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के समान राजनीति भी संघ के लिए राष्ट्रसेवा का साधन है, साध्य नहीं।
हां, अन्य सांस्कृतिक संगठनों की तरह यह क्षेत्र इसके कार्यकर्ताओं के लिए अस्पृश्य भी नहीं है, किंतु जो लोग राजनीति को ही जीवन का केंद्र बिंदु समझ बैठे हैं, उनके लिए संघ की इस स्थिति को सहज ही समझ पाना कठिन है, क्योंकि इसके केंद्र में राजनीति नहीं, संस्कृति है। भारत का चिंतन राजनीति या शासन केंद्रित नहीं, दर्शन एवं संस्कृति केंद्रित है। हिंदू विचार संकीर्ण या सांप्रदायिक नहीं, उदार एवं सर्वग्राही है। हिंदू या हिंदू संगठन को सांप्रदायिक कहना सत्य से आंखें मूंद लेना है। ऐसा होता तो स्वामी विवेकानंद क्यों कहते- ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं।’
अति उच्च तत्वज्ञान एवं सर्वाधिक सहिष्णु जीवन पद्धति तथा प्रत्येक पद्धति की पूजा एक ही प्रभु के पास जाती है ऐसा विचार होने के बावजूद एवं लाखों वर्षों का ऐसा ही इतिहास साक्षी होने के उपरांत हिंदू क्यों सांप्रदायिक कह कर दुत्कारा जाता है? इस प्रश्न का एक ही उत्तर है विभिन्न रूढ़ियों से ग्रस्त असंगठित हिंदू समाज।
इसी को पहचान कर स्वामी विवेकानंद ने कहा था, ‘‘निष्क्रिय होकर गीता पढ़ने से फुटबॉल खेलना अच्छा है।’’ इसी सूत्र को पहचानकर संघ संस्थापक डॉ़ हेडगेवार ने सुधारक एवं संगठक दोनों की भूमिका पर उतर कर संघ की दैनिक शाखा की पद्धति प्रारंभ की। 75 वर्ष की यह साधना कितनी सार्थक रही है, यह आज विभिन्न क्षेत्रों में कार्य विस्तार से प्रकट है। संघ परिवार इस समय केवल भारत में ही नहीं, बल्कि समूचे विश्व में सबसे बड़ा कर्म आंदोलन है।
संघ संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार जन्मजात क्रांतिकारी थे, तत्कालीन राजनीति पर भी उनकी गहरी पकड़ थी, वे एक दैनिक पत्र के सम्पादक भी रहे थे एवं देश के प्रबुद्ध विचारकों, चिंतकों एवं चोटी के राजनेताओं से भी उनके आत्मीय संपर्क थे। इन सबके बावजूद उन्हें लगा कि प्रचलित पद्धतियों से व्यक्ति निर्माण का काम नहीं किया जा सकता तो गहरे विचार के उपरांत उन्हें दैनिक शाखा के रूप में एकत्रीकरण एवं संस्कार देने की नई पद्धति प्रारंभ की। मालवीय जी, सावरकर बंधु, महात्मा गांधी सभी ने इस कार्य को देखा एवं सराहा पर ओछी राजनीति इसमें सदैव बाधक बनती रही।
किसी भी देश के आगे बढ़ने में राज एवं समाज दोनों का ही ठीक होना आवश्यक है। देश के नागरिक यदि समाज एवं राष्ट्र के लिए समर्पण के संस्कारों से युक्त नहीं बने तो राष्ट्र का उत्थान कभी संभव नहीं है। संघ लोक संग्रह एवं लोक संस्कार के द्वारा यह काम बखूबी कर रहा है। आवश्यकता है इस काम के मर्म को भलीभांति समझ कर अपने-अपने स्तर पर इसके मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने की।     ल्ल

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