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वसंत की बहार के लिए पूस के इन दिनों को अभी माघ का फासला तय करना है। किन्तु दिल्ली में विश्व पुस्तक मेले की दस्तक के साथ कुछ स्मृतियां, कुछ संदर्भ इस शीत में ही अचानक हरे हो उठे हैं। दुनिया के लिए दिल्ली में किताबों की दुनिया का दरवाजा खुलते-खुलते पाञ्चजन्य के लिए कोलकाता के बड़ाबाजार स्थित कुमारसभा पुस्तकालय से जुड़ी यादों का एक झरोखा खुल गया। इस झरोखे में संस्कार, सामाजिकता और साहित्य की त्रिवेणी का एक अक्स झिलमिलाता है। ऊंचा कद, चौड़े कंधे और मारवाड़ी खटके वाली गहरी अनुशासित आवाज यादों में गूंजती है। बात किताबों की, मगर उससे पहले उस अक्स की।
नाम -जुगल किशोर जैथलिया, काम- हिसाब बैठाना.. ज्यादा समझकर कहें तो राष्टÑीय विचारों के प्रसार के लिए समाज की अलग-अलग धाराओं में ‘हिसाब बैठाना।’ जैथलिया जी जैसे साहित्य रसिक के नाम से पहले स्वर्गीय लिखना कचोटता है… शब्द कहां मरा करते हैं! फिर वह तो अक्षर सा खरा जीवन था! जो ऐसा खरापन प्राप्त करता है उसे ‘क्षर’यानी क्षरण से परे तो हो ही जाना है! संस्कारित संपर्क का वह व्याप तो पानी में फेंकी कंकरी से उठी तरंगों की तरह था। एक के बाद दूसरे को घेरते अनगिनत वलयों की शृंखला। 1958 में ‘कलकत्ता लॉ कॉलेज’ में पढ़ रहे उस राजस्थानी युवक ने ऊंघती-अनमनी बंगभूमि पर पाञ्चजन्य से प्राप्त वैचारिकता का एक कंकड़ ही तो उछाला था!
सत्य और तथ्य का यही आग्रह उन्हें साहित्य-सरिता की ओर ले गया। सही पुस्तक-पत्रिकाएं समाज को सही दिशा दे सकती हैं, यह बात तब उनके मन में गहरी बैठ गई। इसके बाद साहित्य आस्वादन की यह यात्रा उन्हें पठन-पाठन और लेखन की उदात्त रुचियां जगाते हुए उस मोड़ तक ले आई जहां से आगे कर्मक्षेत्र और सामाजिकता की विभिन्न राहों के बीच ‘साहित्य’ उनका ‘जंक्शन’ बन गया। खुद खूब पुस्तकें पढ़ना और समाज भी पढ़ सके इसके लिए खूब पुस्तकें जुटाना। राजस्थान की डीडवाना तहसील स्थित अपने गांव में ‘श्री छोटीखाटू हिंदी पुस्तकालय’ की स्थापना के बाद से साहित्य के साथ उनका अनुराग बढ़ता गया।
राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ के संस्कार पाकर, अक्षर-अक्षर साहित्यसेवा की सीढ़ियां चढ़ते जैथलिया जी ‘सेठ सूरजमल जालान पुस्तकालय’ से जुड़े, ‘नेशनल बुक ट्रस्ट’ के निदेशक और न्यासी भी रहे, किन्तु बड़ाबाजार कुमारसभा पुस्तकालय के तो पर्याय और प्रतीक ही हो गए। मन में जमे संघ के संस्कार और पुस्तकों से पुख्ता हुई समझ ने इस व्यक्तित्व के कई आयाम खोल दिए। सामाजिक सहायता, भाषाई गौरव की स्थापना, गो-संवर्धन और सबसे बढ़कर वैचारिक कार्य चलाने के लिए नई कार्यकर्ता पीढ़ी तैयार करना, जैथलिया जी ने सब काम डूबकर-डटकर किए। यह जैथलिया जी की जयंती या पुण्यतिथि नहीं है। तो इस समय यह आयोजन क्यों! -कहते हैं जिंदगी मेला है, फिर जिसकी जिंदगी ही किताब हो, पन्ना-पन्ना पढ़ने लायक हो उसके लिए ‘पुस्तक मेला’ निश्चित ही एक मौका तो उपलब्ध कराता है।
बहरहाल, पाञ्चजन्य का यह आयोजन एक सामान्य अंक को विशिष्ट बनाता है क्योंकि इसमें जहां एक सामान्य से लगते व्यक्तित्व की गहरी, अनमोल अनूठी बातें हैं वहीं पुस्तकों के समुद्र से खोजकर लाए कुछ ऐसे ‘पुराने’ मोती भी हैं जिनकी चमक वर्तमान संदर्भों में भी एकदम ‘नई’ है।
दो बड़े विषयों को छूता यह आयोजन कुछ पाठकों को जरा ज्यादा गंभीर लग सकता है किन्तु विषयों से न्याय और कभी-कभी किंचित बदलाव की आवश्यकता को देखते हुए हमने यह प्रयोग किया है। आपको हमारा प्रयोग कैसा लगा, अपनी प्रतिक्रियाओं के माध्यम से अवगत कराइयेगा।
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