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दिल में धधकता गुस्सा और आंखों में उमड़ते आंसू। यह हाल आज हम सबका है। अमरनाथ तीर्थयात्रियों पर आतंकी हमला असहनीय पीड़ा देने वाला है। जख्म पहले भी मिले हैं लेकिन सावन के पहले सोमवार, आतंकी बुरहान की बरसी और केन्द्र व राज्य में बदली सरकारों के बावजूद ऐसी परिस्थितियों ने लोगों के गुस्से को दोहरा-तिहरा कर दिया है। देश आहत है, किन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि वेदना विधान लिख देती है। समस्या निदान के लिए कठोर निर्णय भूमि तैयार कर देती है। सो, हैरानी नहीं कि अमरनाथ यात्रा के दौरान हुई यह घटना कश्मीर में दशकों से जारी समस्या का निर्णायक मोड़ बन जाए। दशकों से रिसते आतंकी कोढ़ के निर्मूलन का रास्ता। ऐसे समय जब हमले के बाद भी अमरनाथ यात्रा जारी है और आतंकियों के सफाए के लिए ‘आॅपरेशन शिवा’ शुरू किया जा चुका है, कुछ बातों को साफ करना और समझना जरूरी है।
अब कोई परदा नहीं : प्रख्यात लेखक चेतन भगत ने ट्विटर पर लिखा – जुनैद की हत्या पर मीडिया का कहना था कि वह मुसलमान होने के कारण मारा गया। इस तरह अब यह क्यों नहीं कहते कि अमरनाथ हमले में लोग हिंदू होने के कारण मारे गए।
‘लुटियन बौद्धिकता’ के दोमुंहेपन को उघाड़ने वाली यह कोई अकेली टिप्पणी नहीं थी। दरअसल वहाबी आतंकवाद की समस्या घाटी में लपलपाती रही, हिंदुओं के अलावा इस्लाम की अन्य धाराओं को भी जलाती रही और दिल्ली में मीडिया और सेकुलर बुद्धिजीवियों के कुछ गिरोह इसे लगातार ढकने-दबाने का काम करते रहे। लेकिन ताजा प्रकरण के बाद खुफिया एजेंसियां और रक्षा मामलों के जानकार मानते हैं कि वहाबी आतंक की सचाई अब उस स्तर पर खुल चुकी है जहां से इसे नकारना कोढ़ को नजरअंदाज करने और बढ़ने देने जैसी बात होगी। अमरनाथ की ऐतिहासिक यात्रा भले छीजे हुए ही सही, किन्तु घाटी के सामाजिक सौहार्द का प्रतीक थी। आतंकियों ने इसे निशाना बनाकर अपनी आखिरी ढाल भी खत्म कर ली है। वैसे, इस हमले से पहले ही जाकिर मूसा जैसे आतंकी यह साफ कर चुके हैं कि
कश्मीर समस्या अलगाव या स्वायत्तता का मामला नहीं बल्कि ‘इस्लामी संघर्ष’ है।
फैसले और फांस : मानवीय गरिमा और अधिकारों की बात अच्छी है किन्तु सिर्फ यही ढपली बजती रहे तो राज्य, व्यवस्था और शेष मानव समाज को रौंदने पर उतारू लोगों का इलाज कैसे होगा? यह बात मानने में हिचक नहीं होनी चाहिए कि विदेशी चंदे पर पलने और मानवाधिकार की जिदभरी, बेशर्म पेशबंदी करने वाले तत्व नक्सलवाद, आतंकवाद से मुकाबला करते भारतीय सैन्यबलों का उत्साह ठंडा करते रहे हैं। इनके आर्थिक स्रोतों पर कड़ाई के बाद छनकर आए तथ्यों और ‘कुख्यात दानवाधिकारवादियों’ की ऐसी करतूतें खुली हैं जहां विदेशी चंदा राज्य सरकार के खिलाफ मीडिया अपप्रचार के लिए ही लिया गया था। अब यह बहस थमनी चाहिए। यदि प्रभुसत्ता, जनसंख्या, भूगोल और शासकीय व्यवस्था किसी देश के घटक हैं तो इसके नागरिकों को बांटने, समाज के विरुद्ध षड्यंत्र और घात करने वालों के मानवाधिकार निलंबित करने का अधिकार निश्चित ही राज्य के पास है। कोई भी नागरिक अन्य नागरिक हितों पर हल्लाबोल के बाद अन्य नागरिकों और देश से बड़ा व क्षमा योग्य नहीं हो सकता, यह बात हमें माननी ही चाहिए।
यह मानवाधिकार का बेकाबू अंधड़ ही है कि राज्य संपत्ति को नुक्सान पहुंचाने निकली भीड़ का हिस्सा रहा पत्थरमार फारुक अहमद डार दस लाख रुपए मुआवजा पाता है और समय रहते जुगत भिड़ाकर उस हिंसक भीड़ के मंसूबे ध्वस्त कर देने वाले, अधिकतम जानोमाल के नुक्सान को टालने वाले 53 राष्टÑीय राइफल्स के मेजर लीतुल गोगोई को मीडिया के एक हिस्से में खलनायक की भांति पेश किया जाता है।
एक ओर मेजर गोगोई का सेना द्वारा सम्मान और दूसरी ओर डार को मुआवजा यह सिर्फ दो प्रकरण नहीं हैं बल्कि राज्य व्यवस्था का दोहरापन और फांक भी प्रकट करते हैं। भारतीय न्यायतंत्र में दोहराव, नागरिकों में अंतर और राष्टÑहित से समझौता हो ही नहीं सकता। यह बात पूरी स्पष्टता से स्थापित करने की जिम्मेदारी इस देश के नियामकों पर है।
बहस कश्मीरियत की : जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने अमरनाथ तीर्थयात्रा पर हमले के बाद कहा है कि इस हमले ने कश्मीरियत पर उनके यकीन को हिलाकर रख दिया है, यह घटना सभी मुसलमानों और कश्मीरियों के लिए धब्बा है। ठीक! लेकिन सवाल यह है कि क्या जनता का कश्मीरियत से भरोसा पहले ही नहीं उठ चुका!
क्या घाटी के हिंदुओं को निगल जाने का दाग पहले से वहां नहीं है? कश्मीरियत क्या है और घाटी से हिंदुओं के निर्वासन, उत्पीड़न और निर्मम छंटाई के बावजूद आज कहां बची हुई है? सचाई यह है कि वहाबी जहर के सामने घाटी में कश्मीरियत अब थोथी बात बनकर रह गई है। इसलिए राजनीति को भी चाहिए कि वह इस्लामी उन्माद को नकारने की बजाय इसे ललकारने का साहस दिखाए। बीमारी को ढकने के चक्कर में राजनेता यह बात भूलते रहे हैं कि उन्होंने सारे मुसलमानों पर चाहे-अनचाहे आतंकी समर्थक होने का ठप्पा लगा दिया है। इस राजनैतिक भूल का प्रायश्चित करते हुए इस्लामी आतंक के विरुद्ध सामाजिक लड़ाई का बिगुल भी घाटी से ही फूंका जाना जरूरी है। कश्मीरियत तभी बची और बनी रह सकती है। सो, फिलहाल यह वहाबी आतंक पर निर्णायक वार करने का वक्त है। हमला बोलो और इसे छांटो, जहर छंटने के बाद कश्मीरियत और कहवे की बात फुर्सत में होती रहेगी, फिलहात तो घाटी कें केसर की बजाय बारूद की गंध है।
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