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पांडवों द्वारा स्थापित पांच नगरों में से एक है पानीपत। तीन ऐतिहासिक युद्ध के गवाह इस शहर में एशिया की दूसरी सबसे बड़ी रिफाइनरी भी है। देश विभाजन के बाद हैंडलूम से शुरू हुआ कारोबार बढ़कर अब औद्योगिक नगरी का रूप धारण कर चुका है
नगार्जुन
कुलदीप सिंगला ने 38 साल पहले 1979 में हरियाणा की औद्योगिक नगरी पानीपत में चार करघे लगाए थे। उस समय उनकी कंपनी रिवियेरा होम फर्निशिंग्स प्रा. लि. कपड़ा तैयार कर घरेलू निर्यातकों को बेचती थी। धीरे-धीरे उन्होंने खुद विदेशी बाजारों अपने उत्पाद पहुंचाने के लिए दूसरे देशों की यात्राएं शुरू कीं। वहां के बाजारों में बिकने वाले उत्पादों, उनकी निर्माता कंपनियों के साथ बाजार का अध्ययन किया। कुलदीप सिंगला ने व्यापार बढ़ाने के लिए न केवल लगातार नवोन्मेष अपनाते रहे, बल्कि विदेशी बाजार में कारोबार का विस्तार भी करते रहे। वे केवल हैंडलूम के भरोसे ही नहीं रहे और विदेशों से नई-नई मशीनें लेकर आए और उत्पादन बढ़ाया। इस तरह हैंडलूम से शुरू हुआ सफर पावरलूम, शटललेस तकनीक तक पहुंच गया। अभी कंपनी की पानीपत में छह बड़ी इकाइयां हैं, जबकि कुछ छोटी इकाइयां भी काम कर रही हैं। कुलदीप सिंगला का पूरा परिवार इस कार्य में लगा हुआ है। कंपनी के छह निदेशकों में से एक ललित गोयल बताते हैं कि 1995 में टफ्ड मैट बनाने की तकनीक अमेरिका से भारत आई। 1996-97 में उनकी कंपनी ने विदेशों से चार टफ्ड मशीनें मंगार्इं। कुछ मशीनें जापान से भी मंगाई गर्इं। लेकिन बाद में जब 2000 में लुधियाना में इन मशीनों का निर्माण शुरू हुआ तो इन्हें मंगाना आसान हो गया। शुरुआत में कंपनी का सालाना कारोबार 10-20 लाख रुपये का था जो अब बढ़कर 300 करोड़ से अधिक हो गया है। धीरे-धीरे उनकी कंपनी ने बाजार की मांग के अनुरूप हैंडलूम की जगह मशीनों से उत्पादन शुरू किया और होम फर्निशिंग उत्पादों के साथ गलीचे भी बनाने लगी। इस तरह कंपनी 1982 में एक करोड़ के आंकड़े तक पहुंची जो 1985-86 में चार-पांच करोड़ रुपये हो गई। जब कंपनी ने विदेशी बाजार में सीधी पहुंच बना ली तो बिचौलियों को हटा दिया।
करघा उद्योग
6,500 करोड़ रु.
सालाना कारोबार
गोयल कहते हैं, ‘‘शुरुआत में हैंडलूम से जो परदे बनते थे वो थोड़े मोटे होते थे, 1985-87 में नई तकनीक आई। इसे देखते हुए हमने भी पावलूम लगाया। अब मशीनें आने के बाद महीन बुनाई होने लगी। पहले सादे कपड़े बनते थे। बाद में आगे चलकर तरह-तरह के रंगों का इस्तेमाल होने लगा तो हमने भी उसे अपनाया। इसके बाद उत्पाद में डिजाइन का दौर शुरू हुआ तो हमने हैंडलूम में जगार्ड लगाए। इसके बाद पावरलूम में जगार्ड लगाए। फिर एक दौर ऐसा आया कि शटललेस मशीनों की जरूरत महसूस हुई। इसके बाद और भी मशीनें आर्इं जिसे हम अपनाते रहे। इन सब तकनीकों की जानकारी हासिल करने के लिए कंपनी के निदेशक लगातार विदेशों की यात्रा करते रहे। वहां लगने वाले मेलों में मशीनों और उत्पादों का अध्ययन करते रहे।’’
इसके अलावा, उनकी कंपनी ने वालमार्ट जैसी कंपनियों के उत्पादों को देखा और उसे अपनाने की कोशिश की। उन्होंने कहा, ‘‘पहले हैंडलूम पर कोशिश की, लेकिन सफलता नहीं मिली। इसके बाद इसे मशीनों पर आजमाया तो थोड़ी सफलता मिल गई। बाद में पता लगा कि उस उत्पाद विशेष के लिए दूसरे मशीन की जरूरत है तो हमने वैसे लोगों से बात की जिनके पास वो मशीनें थीं। पहले पुरानी मशीनें हासिल करने की कोशिश की, क्योंकि नई मशीनों पर लागत बहुत अधिक थी। इस तरह पहले एक मशीन लेकर आए, उससे उत्पादन बढ़ाया और बाजार में पैठ बनाई। इसके बाद जब कंपनी सक्षम हुई तो नई मशीनें लेकर आई, जिसका नतीजा आज सामने है। ल्ल
विदेशी बाजार ने खोले तरक्की द्वार
अशोक नागपाल की कंपनी ‘इंटरनेशनल निर्यात’ होम फर्निशिंग उत्पाद जैसे बेड कवर, बाथ मैट्स, रग्स (कंबल), कुशन कवर, डोर मैट, परदे आदि बनाती है। कंपनी 75 फीसदी निर्यात अमेरिका में करती है, जबकि 25 फीसदी निर्यात आॅस्ट्रेलिया, दक्षिण अमेरिका और जर्मनी में होता है। नागपाल बताते हैं, ‘‘यह हमारा पुश्तैनी कारोबार है। पानीपत में कंबल निर्माण सबसे पहले हमारे पिताजी ने शुरू किया। हमारा परिवार पहले पाकिस्तान रहता था। देश विभाजन से पहले 1939 में पिताजी और चाचाजी पाकिस्तान से पानीपत आ गए और यहां हैंडलूम लगाया। हालांकि बाद में वे अमृतसर नौकरी करने चले गए। कुछ साल काम करने के बाद वापस लौटे और 1949 में उन्होंने फिर से हैंडलूम लगाया। उस समय हमारी कंपनी कंबल तथा खेस बनाती थी। कंपनी का उत्पाद कानपुर, कोलकाता और मुंबई तक जाता था। उन दिनों पानीपत में 12-13 इकाइयां ही थी, जो कंबल बनाती थी। पानीपत बैरक कंबल के लिए ही जाना जाता था। धागा बनाने से लेकर बुनाई और कंबल फिनिशिंग, पैकिंग और इसे बाजार तक खुद ही पहुंचाते थे। 1961 से कंपनी भारतीय सेना के लिए बैरक कंबल की आपूर्ति करने लगी। कंपनी ने 20 साल तक सरकार के साथ काम किया।’’
नागपाल कहते हैं कि कंबल के अलावा उनकी कंपनी सियाचिन जैसी बर्फीली चोटियों पर तैनात भारतीय सैनिकों के लिए ऊनी कपड़े भी बनाती थी। लेकिन कच्चा माल खरीद से लेकर इसकी आपूर्ति तक हर स्तर पर बहुत भ्रष्टाचार था। इसलिए तंग आकार 1980 में कंबल बनाना ही छोड़ दिया और विदेशी बाजार का रुख किया। शुरुआत में 8-10 हथकरघे लगाए। उत्पादों को विदेशी बाजारों में पहुंचाने के लिए उन्होंने अमेरिका और अन्य देशों की यात्राएं कीं, जिसमें उन्हें सफलता मिलती गई। अभी उनकी कंपनी का सालाना निर्यात 12 करोड़ का है और इसमें करीब 200 लोग काम करते हैं।
नागपाल 70 फीसदी उत्पाद अपनी कंपनी में तैयार करते हैं, जबकि 30 फीसदी उत्पादन बाहर होता है। इसके बाद वे नमूने अमेरिका और दूसरे देशों में ले जाते हैं। वह कहते हैं कि एक करोड़ का आंकड़ा पार करने में कंपनी को काफी साल लग गए। 1980 से 90 तक कंपनी का निर्यात 50 से 70 लाख के बीच रहा। 1994 में पहली बार कंपनी ने एक करोड़ का आंकड़ा छुआ। कठिन दौर को याद करते हुए नागपाल बताते हैं, ‘‘2007 के उत्तरार्द्ध से 2010 के उत्तरार्द्ध तक, तीन साल का दौर बेहद कठिन था। कंपनी का निर्यात, जो एक करोड़ से ऊपर चला गया था, गिर कर एक करोड़ से नीचे आ गया था। इसके बाद लगातार प्रयासों से न केवल पुराना लक्ष्य हासिल किया, बल्कि कंपनी का कारोबार नए मुकाम तक ले जाने में सफलता मिली।’’
बुनियादी सुविधाएं मिलें तो तेज होगी विकास की रफ्तार
रिवियेरा होम फर्निशिंग्स के चेयरमैन कुलदीप सिंगला कहते हैं कि स्वदेशी की राह में आने वाली बाधाओं को दूर किया जाना चाहिए, ताकि उद्योगों का विकास हो और रोजगार के अवसर बढ़ें। इसके लिए सरकार शहर के कुछ कारोबारियों की समिति बनाए और उनकी समस्याओं का समाधान करे। व्यापार में बुनियादी ढांचा सबसे बड़ी जरूरत है। लेकिन शहर के औद्योगिक इलाकों में प्राथमिक चिकित्सा सुविधाएं तक उपलब्ध नहीं है। लोगों को स्वास्थ्य सेवाओं के लिए शहर के दूसरे छोर पर जाना पड़ता है। पानीपत एक्पोर्टर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष ललित गोयल बताते हैं कि पानीपत में बुनियादी सुविधाओं का घोर अभाव है। आद्योगिक क्षेत्रों की सड़कें धूल भरी है और इसमें जगह-जगह गड्ढे हैं जिसमें नालों का पानी जमा रहता है। इस कारण विदेशी खरीदार यहां नहीं आते हैं। अधिकांश कंपनियां खरीदारों को दिल्ली-एनसीआर में ठहराती हैं। पानीपत से बाथ मैट का सालाना निर्यात ही करीब 3-4 हजार करोड़, जबकि कुल निर्यात 6,000 करोड़ से अधिक का है। इसके अलावा, घरेलू कारोबार भी 20,000 करोड़ से अधिक का है। साथ ही, गोयल कहते हैं कि जीएसटी कानून की पूरी व्याख्या नहीं की गई, जिससे कारोबारियों में भ्रम की स्थिति है। अधिकारियों को भी इसकी पूरी जानकारी नहीं है। तकिया कवर, कुशन आदि पर 28 फीसदी कर बहुत अधिक है। 1000 रुपये तक के उत्पाद पर पांच फीसदी या बहुत ज्यादा 12 फीसदी जीएसटी होनी चाहिए। सरकार को इस पर दोबारा विचार करना चाहिए।
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