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आगरा में आज जूते बेचने वाले छोटे-बड़े दुकानदारों की संख्या 50,000 से ऊपर है और 3 लाख से ज्यादा कारीगर हैं। भारत में तैयार जूतों की कुल मांग में आगरा के जूतों की हिस्सेदारी 65 प्रतिशत है तो निर्यात में 25 प्रतिशत जूतों की पूर्ति आगरा से ही होती है।
आलोक गोस्वामी
उत्तर प्रदेश का बड़ा नामी-गिरामी नगर है आगरा। पुराना, मुगलिया सल्तनत का गवाह रहा आगरा। दिल्ली से ’तकरीबन 175 किमी. दूर मथुरा रोड या शेरशाह सूरी राष्टÑीय राजमार्ग-2 पर मथुरा रिफाइनरी से आगे बढ़ते हुए पं. दीनदयाल उपाध्याय के जन्मस्थान नगला चंद्रभान की जद से और आगे बढ़ने पर खास अकबराबादी अंदाज की बोली-भाषा के साथ ही दीदार होते हैं दुनिया के सात अजूबों में से एक माने जाने वाले ताजमहल के। शाहजहां ने अपनी बेगम मुमताज महल की याद में बनवाया था वे मकबरा, यमुना के ठीक परले मुहाने पर। बताते हैं, अपने आखिरी दिनों में अपने ही बेटे औरंगजेब द्वारा नजरबंद किए जाने के बाद शाहजहां सुबह-शाम एक झरोखे से अपनी बेगम की कब्र पर बने संगमरमर के उस मकबरे को निहारा करता था। शाहजहां की मौत के बाद उसे भी ताज के अंदर उसकी बेगम की बगल में दफना दिया गया। कहने का तात्पर्य है कि ब्रज भूमि के इस हिस्से में मुगलिया सल्तनत का काफी असर रहा। आज भी आगरा में लालकिले का परकोटा नगर के काफी बड़े हिस्से को छूता हुआ गुजरता है।
मुमताज के मकबरे ताज और लालकिले के अलावा जिन खूबियों की वजह से आज का आगरा जाना जाता है उसकी जड़ें कहीं न कहीं उसी मुगल काल तक जाती हैं। बड़े नहीं तो चंद मझौले उद्योग आज आगरा को दुनिया के नक्शे में शुमार कर चुके हैं। न, बात सिर्फ मीठे, रसदार, गुलाब/केवड़े से महकते पेठे या कुरकुरी दाल-मोंठ की नहीं हो रही…बात हो रही है आगरा के जूतों की और यहां बनने वाले अव्वल डीजल जनरेटरों, पम्प सेटों की, जो भारत ही नहीं, दुनिया के बाजारों में भी आगरा की छाप छोड़ रहे हैं। आगरा और जूते का मेल बैठा है मुगलिया जमाने के एक पेशे की बदौलत, जो था सुबह-सवेरे गलियों और सड़कों की धुलाई करना। इस काम को करने वाले भिश्ती अपने साथ मशक रखते थे जिसमें पानी भरकर, उसे कमर से सटाकर उसके मुंह को मुट्ठी से कसकर बौछारें करके गलियां धोते थे। और मशक बनी होती थी चमड़े से। मरे जानवर की पूरी खाल ज्यों की त्यों उतारकर उसे थैलेनुमा आकार देकर गर्दन वाले हिस्से से पानी उड़ेला जाता था। उन्हीं कुनबों द्वारा वक्त के साथ चमड़े को परिष्कृत करके जूते गांठे जाने लगे। और उन्हीं की पीढ़ियां आगरा में जूते बनाने की कारीगिरी में माहिर होती गर्इं, लिहाजा यहां जूता उद्योग की नींव पड़ी। यह तो बात हुई आगरा और जूता कारोबार के मेल की। अब बात मौजूदा दौर में यहां की जूता बनाने वाली इकाइयों की। हैरान न हों, आगरा में आज जूते बेचने वाले छोटे-बड़े दुकानदारों की संख्या 50,000 से ऊपर है और 3 लाख से ज्यादा कारीगर हैं। भारत में तैयार जूतों की कुल मांग में आगरा के जूतों की हिस्सेदारी 65 प्रतिशत है तो निर्यात में 25 प्रतिशत जूतों की पूर्ति आगरा से ही होती है। लेकिन आज यहां ‘टेनरी’ (कच्ची खाल को संशोधित करके चमड़ा तैयार करने वाली इकाई) नहीं हैं, वजह है मुमताज महल के मकबरे की संगमरगरी आभा बनाए रखने की जद्दोजहद। प्रशासन नहीं चाहता कि किसी भी तरह से प्रदूषण फैलाने वाली कोई भी औद्योगिक इकाई आगरा या उसके आसपास पनपे। इससे काम और उत्पाद पर असर पड़ना ही था, सो पड़ा। अब कानपुर, चेन्नै और कोलकाता से चमड़ा मंगाया जाता है।
डावर फुटवियर इंडस्ट्रीज
यूं तो आगरा में कई जूता निर्माण इकाइयां हैं, लेकिन देश-विदेश में अपने तैयार माल से एक खास मुकाम हासिल किया है डावर फुटवियर इंडस्ट्रीज, ओम एक्सपोर्ट्स, गुप्ता ओवरसीज, सेफ्टी शू मैन्युफैक्चरर्स, जी.जी. फुटवियर, शीतल फुटवियर एक्सपोटर््स आदि ने। इस उद्योग की बारीकियां समझने के लिए हमने डावर फुटवियर इंडस्ट्रीज के स्वामी श्री पूरन डावर से बात की।
पूरन डावर बताते हैं,‘‘1977 में आपातकाल खत्म हुआ ही था और उसी दौरान मैंने आगरा कॉलेज से बी.ए. की पढ़ाई पूरी की थी। छात्र राजनीति में रमे हर नौजवान की तरह मन में बड़े क्रांतिकारी विचार उमड़ रहे थे कि राजनीति में जाया जाए। लेकिन जल्दी ही समझ आ गया कि यह क्षेत्र हमारे बस का नहीं है।’’ पूरन जी के एक मित्र जूता कारोबार से जुड़े थे लिहाजा उनके यहां आते-जाते इस कारोबार की गुत्थियां समझ आने लगीं। 1977 में ही तैयार जूते खुदरा स्तर पर बेचने से शुरुआत की। फिर क्या था, 1982 आते-आते जूते बनाने की अपनी इकाई शुरू कर दी। 1987 तक घरेलू बाजार पर पकड़ बना ली और 1987-92 के दौरान निर्यात में अपनी जगह बनाते गए। 1992 से तो 100 प्रतिशत निर्माण विदेशी बाजारों के लिए होने लगा था। आगरा में जूता निर्माण उद्योग परिसंघ के अध्यक्ष और चमड़ा निर्यात परिषद, उत्तरी क्षेत्र के अध्यक्ष श्री पूरन डावर भारत सरकार के वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय की चमड़ा निर्यात परिषद के सदस्य भी हैं। आज उनकी कंपनी की सालाना आय 150-200 करोड़ रु. तक पहुंच चुकी है। जर्मनी, फ्रांस, इटली, डेनमार्क, स्वीडन, न्यूजीलैंड, आॅस्ट्रेलिया, रूस और अमेरिका के बाजारों में आगरा में बने डावर शूज धूम मचा रहे हैं। भविष्य के बारे में श्री डावर जोश से भरकर कहते हैं, ‘‘मेक इन इंडिया के तहत हम तमाम विदेशी ब्रांड जैसे नाइकी, प्यूमा की टक्कर के डिजाइन और क्वालिटी अपने यहां से तैयार करके देंगे। वह दिन दूर नहीं जब विश्व के बाजार में जूते के लिहाज से नंबर एक पर बैठा चीन हमसे पीछे होगा।’’
प्रकाश डीजल्स
आगरा का एक और उद्योग है जो अपनी गुणवत्ता और कीमत वसूली के लिहाज से दुनिया के बाजारों पर अपनी पकड़ बनाता जा रहा है….यह उद्योग है डीजल जनरेटर और पंपों का। यूं तो आज तमाम डीजल पंप इकाइयां हैं आगरा में, लेकिन भारत और विदेशों में अपनी पकड़ बनाई है प्रकाश जनरेटर और पंपों ने। आगरा से हाथरस की तरफ जाने वाली सड़क पर है प्रकाश डीजल्स प्रा. लिमिटेड की बड़ी- सी इकाई। 1975 में श्री राम प्रकाश गर्ग ने डीजल इंजन और पंप सेट बनाने का काम शुरू किया था। वैसे वे 1960 से ही प्रकाश हार्डवेयर स्टोर नाम से कारोबार करते आ रहे थे। आज उनके चार पुत्रों ने यह काम न सिर्फ बखूबी संभाला हुआ है बल्कि निए नए अनुसंधानों और प्रयोगों की बदौलत डीजल जनेरेटर और पंपों के बाजार पर अपनी छाप छोड़ते जा रहे हैं। आइएसओ 9001-2008 सर्टिफिकेट के साथ कंपनी ने अपनी गुणवत्ता साबित की है।
चार भाइयों में से एक श्री राकेश गर्ग बाताते हैं,‘‘पिताजी का कहना था कि गुणवत्ता से कभी समझौता मत करना। भले 10 नहीं, एक ही ग्राहक को माल बेचो, पर वह पूरी तरह खरा होना चाहिए। बस वही बात हमने गांठ बांध के रखी हुई है। इसलिए आज भारत, मध्य एशिया और कुछ अफ्रीकी देशों में प्रकाश अपना नाम प्रकाशित कर रहा है।’’ हालांकि अभी भी 95 प्रतिशत खपत देशी बाजार में ही हो रही है। बायोमास और बायोगैस जनरेटर सेट तो उनकी सफलता की कड़ी में नए जुड़े नाम हैं। राकेश जी बताते हैं,‘‘50 केवी तक के जनरेटरों में दुनिया में उनका कोई सानी नहीं है।’’ कुछ वक्त पहले प्रकाश इंडस्ट्रीज ने दूसरे उत्पादों का रुख करते हुए तिरुपति के पास चित्तूर में प्रकाश फेरस इंडस्ट्रीज की स्थापना भी की, जहां जंग-रोधी टीएमटी सरिया बनाया जाता है। भविष्य में ऊर्जा के विकल्पों के तौर पर सौर ऊर्जा का प्रचलन बढ़ने जा रहा है। इस कंपनी ने उसके लिए अभी से अपनी कमर कस ली है और सौर ऊर्जा पैनल बनाने के क्षेत्र में कदम रख दिया है। गर्ग परिवार की अगली पीढ़ी भी ऊर्जा के नित नए आयामों की तरफ आकर्षित हो रही है और नए अनुसंधानों के साथ इस क्षेत्र में कदम रखने को तैयार है। 500 करोड़ सालाना का कारोबार करने वाली प्रकाश इंडस्ट्रीज के राकेश गर्ग भविष्य को लेकर आशान्वित हैं और केन्द्र सरकार के ऊर्जा के नए विकल्पों की खोज में अपना योगदान देने को तैयार हैं। वे कहते हैं, ‘‘मोदी सरकार की मेक इन इंडिया नीति तो अच्छी है, पर लालफीताशाही अब भी तकलीफ देती है। इसमें सुधार होना चाहिए। हम तो चाहते हैं कि ऊर्जा के क्षेत्र में हमारा भारत आत्मनिर्भर हो।’’
राजधानी दिल्ली से वाया बुलंदशहर होते हुए 3 घंटे तो वाया यमुना एक्सप्रेस वे 2 घंटे दूर प्राचीन नगरी अलीगढ़ के एएमयू के मुस्लिम रिवाजों में पगे माहौल से शायद उतना नहीं जाना जाता जितना इसे अपने तालों से जाना जाता है। ताला बनाने वाले भी यहां कई पुश्तों से इस कारोबार से जुड़े हैं। कहावत भी है कि अलीगढ़ का ताला ऐसा कि काला चोर भी न तोड़ पाए। हां, वक्त के साथ इस कारोबार ने भी कुछ बदलाव देखे हैं। कभी परंपरागत रूप से पीतल के बने तालों की जगह स्टील और लोहे के तालों ने ले ली है। अलीगढ़ में ताला उद्योग का व्याप ऐसा है कि एक ही जगह करीब 600 इकाइयां ताले बना रही हैं और उस औद्योगिक परिसर का नाम भी दिया गया है ताला नगरी। यहां के ताला उद्योग का सालाना कारोबार 4 हजार करोड़ रुपये से अधिक है। एक से एक शक्लो-सूरत के, अलग-अलग जरूरत के हिसाब से तालों की अब ढेरों किस्में देखने में आती हैं। ताला नगरी में ताला बनाने वाली नित नई उभरतीं इकाइयों में कई ऐसी हैं जो पीढ़ियों से यह काम करती आ रही हैं। यहां इस उद्योग की कुछ जानी-मानी इकाइयों में शामिल हैं-बजाज लॉक, रे इंटरनेशनल, स्पाइडर लॉक, ब्रास्टल मैन्युफैक्चरिंग और पालम लॉक।
कोणार्क लॉक
आज ताले भी कितने ही लीवरों के आ रहे हैं और माना जाता है कि जितने ज्यादा लीवर, उतनी पुख्ता सुरक्षा। तो तालों से जुड़ी ऐसी ही गुत्थियों की पड़ताल के लिए हमने बात की ताला नगरी में स्थित कोणार्क लॉक के स्वामी श्री विजय गुप्ता से। हमने उनसे पूछा कि ताले और अलीगढ़ में यह मेल बैठा कैसे? इस पर उनका सीधा-सपाट कहना था, ‘‘पिछली एक सदी से यहां तालों के कारीगर (अधिकतर मुस्लिम) ताले बनाते आ रहे हैं तो ऐसे सब कुनबे यहां अलीगढ़ में पुश्तों से रह रहे हैं और काम कर रहे हैं तो ये जगह तालों के लिए मशहूर हो गई। यहां हाथ से ताले गढ़ने वाले एक से एक कारीगर हुए हैं। अब तो उनकी भी तीसरी-चौथी पीढ़ी ताले बना रही है। हम खुद इस कारोबार में 40 साल से हैं।
पंछी पेठा
आगरा की बात चले और मुंह में पेठे का चसकदार स्वाद याद करके पानी न आए तो बात अधूरी सी लगती है…नहीं? तो जनाब हरि पर्वत के मुख्य चौराहे पर जो बड़ा सा ‘पंछी’ लिखा दिखता है न, वही है पंछी पेठा का खास ठिकाना। दिलचस्प बात यह है कि यह पंछी नाम किसी पक्षी से नहीं आया है बल्कि उन श्री पंचम लाल गोयल के प्यार से पुकारने के नाम ‘पंछी’ से आया है जिन्होंने चाशनी में पगे कद्दू की इस मशहूर मिठाई को ‘आगरे की शान’ का ओहदा दिलवाया है। इस मिष्ठान्न की सबसे बड़ी विशेषता है इसे जीभ पर रखते ही घुल जाना। और इनका पान की गिलौरी सा दिखता पान पेठा तो भई कमाल है। आज शहर में कुल 7 दुकानें हैं पंछी पेठा की, जहां की 9 किस्मों के रसभरे पेठों के अलावा काजू-बादाम की दाल-बीजी और दाल-मोठ नमकीन भी अपने कुरकुरे स्वाद में अच्छे-अच्छों को पानी पिला देती है। जैसे मथुरा की पहचान है पेड़ा वैसे ही आगरा की पहचान बन गया है पेठा। नक्कालों से परेशानी का आलम यह है कि हमारे यह पूछने पर कि ‘आगरा के बाहर भी जाता है क्या पंछी पेठा’, गोयल परिवार के मोहित फौरन बोले, ‘‘आगरा के बाहर हमारी कोई दुकान नहीं है।’’
आज भी हाथ से ताले बनाने में कुछ कारीगर माहिर हैं, पर अब ज्यादातर काम मशीनों से होने लगा है।’’ वे बताते हैं कि उनके बनाए ताले दक्षिण भारत के कई राज्यों के अलावा गुजरात और बिहार में बहुत पसंद किए जाते हैं। काम लगातार बढ़ रहा है और शायद इसीलिए विजय गुप्ता मुनाफे में हर साल 10 प्रतिशत का इजाफा लेकर चलते हैं। जैसे विजय अलीगढ़ के इस परंपरागत उद्योग से अपने परिवार के संस्कारों के चलते जुड़े, वैसे ही आज उनकी अगली पीढ़ी भी इसी काम को आगे बढ़ाने का मन बना चुकी है।
ताला उद्योग
4,000 करोड़ रु.
सालाना कारोबार
नोवा लॉक
नोवा लॉक कंपनी के स्वामी अशोक कुमार भी अपने पिता के नक्शेकदम पर चलते हुए ताला उद्योग से जुड़े हैं। इतना जरूर है कि उनके पिता हाथ से ताला बनाने में माहिर थे तो अशोक अब मशीनों से ताले बनवाते हैं। 1999 में शुरू किया उनका ब्रांड विनर लॉक काफी मशहूर हो चुका है। 2009 में उन्होंने नोवा नाम से ताले बाजार में उतारे। स्टील की चादर वगैरह वे गाजियाबाद से भले लेते हों, पर कारीगर अलीगढ़ के और मुहरबंद तालानवीस होते हैं। उनका भी ज्यादातर माल दक्षिण भारत के राज्यों में जाता है। नेपाल के बाजार में भी उन्होंने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। यह अलीगढ़ के तालानवीसों के बनाए ताले ही हैं जो इस छोटी- सी औद्योगिक नगरी को एक खास पहचान देते हैं। इस इलाके की पुरानी कहावत है तालों में आला, अलीगढ़ का ताला।
1832 में पड़ी थी बुनियाद
अलीगढ़ को पहले कोल या कोइल नाम से भी जाना जाता था। आज भी कोल तहसील इस इतिहास को जिंदा रखे हुए है। शहर के पास ही अलीगढ़ नाम का एक किला भी है। इतिहासकारों के मुताबिक अलीगढ़ को यह नाम ‘नजफ खां’ ने दिया था। 1717 में ‘साबित खां’ ने इसका नाम ‘साबितगढ़’ और1757 में जाट समुदाय ने ‘रामगढ़’ रखा था। अलीगढ़ में ताले, कैंचियां, छुरियां, सरौते आदि बनाने के कारखाने हैं। यह नगर घोड़े पालने के लिए भी प्रसिद्ध है। बेशक भारत में ताला उद्योग काफी पुराना है, लेकिन आज हम तालों के जिस रूप को देखते हैं उसकी बुनियाद 1832 में अलीगढ़ में ही पड़ी थी।
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