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हिन्दुत्व के गौरव

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Apr 24, 2017, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 24 Apr 2017 14:40:40

 

छत्रपति शिवाजी जैसे आदर्श शासक और संगठक विश्व के इतिहास में दूसरे नहीं मिलते हैं। उन्होंने एक राजा के तौर पर निष्पक्ष शासन किया और एक सेनापति के नाते हर सैनिक का ऐसा मनोबल बढ़ाया कि पलक झपकते ही दुश्मन ढेर हो जाते थे

एफ.सी. भाटिया
भारत की पवित्र माटी में जन्मे छत्रपति शिवाजी महाराज साहस, राजकौशल और कुशल प्रशासक की सनातन प्रतिमूर्ति थे। उन जैसा योजनाकार और संगठनकर्ता कहीं नहीं दिखते हैं। उन्होंने अनेक उतार-चढ़ावों का सामना किया, लेकिन कभी भी मर्यादा का हनन नहीं किया। पूरी निष्पक्षता के साथ उन्होंने राज किया। इन्हीं गुणों के कारण वे आज भी समूचे भारत और भारतवासियों के दिल में बसे हैं। सच कहें तो आधुनिक भारत के निर्माण में उनका अभूतपूर्व योगदान है। वे हमारे नायक हैं।
शिवाजी महाराज की संगठन कुशलता का उदाहरण आज भी दिया जाता है। उस समय मराठा अलग-अलग रहते थे, अलग-अलग ही लड़ाई भी लड़ते थे। शिवाजी महाराज ने अनुभव किया कि मराठों में जोश और स्वदेशाभिमान तो है, पर एकता नहीं होने के कारण वे सफल नहीं हो पा रहे हैं। इसलिए शिवाजी ने उन्हें एक-एक करके संगठित किया। उसके बाद तो मराठों की विजय पताका फहरने लगी। शिवाजी की राजकीय व्यवस्था और सेना खड़ी करने की क्षमता अद्भुत थी। उनकी न्याय व्यवस्था तो ऐसी थी कि दुश्मन भी इस मामले में उनकी तारीफ करते थे।
छत्रपति शिवाजी हर व्यक्ति से कुछ न कुछ सीखने की कोशिश करते थे। उनसे जुड़ा एक प्रसंग बताता है कि वे अपने आलोचकों से भी सीख लेते थे। यह उन दिनों की बात है जब शिवाजी मुगलों के विरुद्ध छापामार युद्ध लड़ रहे थे। एक रात वे थके-हारे एक बुढ़िया की झोपड़ी में जा पहुंचे। उनके चेहरे को देखकर बुढ़िया बोली, ‘‘सिपाही, तेरी सूरत शिवाजी जैसी लगती है। तू भी उसी की तरह मूर्ख है।’’ शिवाजी ने कहा, ‘‘शिवाजी की मूर्खता के साथ-साथ मेरी भी कोई मूर्खता बताएं।’’ बुढ़िया ने उत्तर दिया, ‘‘वह दूर किनारों पर बसे छोटे-मोटे किलों को आसानी से जीतते हुए शक्ति बढ़ाने की बजाए बड़े किलों पर धावा बोल देता है और फिर हार जाता है।’’ बुढ़िया की इस बात से शिवाजी को अपनी रणनीति की विफलता का कारण समझ में आ गया। उन्होंने बुढ़िया से सीख प्राप्त कर पहले छोटे-छोटे लक्ष्य बनाए और उन्हें ही प्राप्त करने के लिए मेहनत करने लगे। छोटे किलों को जीतने में ही उन्होंने ध्यान लगाया और परिणाम जीत के रूप में आने लगा। इससे उनके साथ-साथ उनके सैनिकों का भी मनोबल बढ़ा। इस मनोबल की बदौलत ही वे बड़े किलों को जीत पाए। ज्यों-ज्यों जीत मिलती गई उनकी शक्ति बढ़ती गई।
छत्रपति शिवाजी चाहते थे कि मराठों के साम्राज्य का विस्तार हो और उनका अलग से एक-एक राज्य हो। अपने इसी सपने को साकार करने के लिए उन्होंने 28 वर्ष की आयु में अपनी एक अलग सेना एकत्रित करनी शुरू कर दी और अपनी योग्यता के बल पर मराठों को संगठित किया तथा एक अलग साम्राज्य की स्थापना की। उन्होंने जहाजी बेड़ा बनाकर एक मजबूत नौसेना की स्थापना की। इसलिए उन्हें भारतीय नौसेना का पिता कहा जाता है।
शिवाजी ने राज्य की चिरकालीन दृढ़ता के लिए अनेक संस्थाओं का निर्माण करवाया। औरंगजेब की प्रचंड शक्ति का सामना कर विजय प्राप्त करने में इन संस्थाओं का बहुत उपयोग हुआ। इस कारण स्वसंरक्षण और राज्यवर्धन, ये दोनों काम मराठा कर सके।
एक दिन सूर्यास्त के बाद शिवाजी ने द्वारपाल से द्वार खोलने के लिए कहा। द्वारपाल ने साफ-साफ कहा कि सूर्यास्त के बाद द्वार नहीं खुलेगा। इस कारण शिवाजी को बाहर ही रात गुजारनी पड़ी। सुबह होते ही उन्होंने द्वारपाल को दरबार में बुलाया और द्वार न खोलने का कारण पूछा।  द्वारपाल ने जवाब दिया, ‘‘महाराज जब आप ही अपने आदेश का पालन नहीं करेंगे तो प्रजा क्या करेगी?’’ द्वारपाल की कर्तव्यनिष्ठा और निर्भीकता से शिवाजी बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने उसे अंगरक्षक बना लिया।
समर्थ गुरु रामदास छत्रपति शिवाजी के गुरु थे। एक दिन उन्होंने दरवाजे के बाहर से शिवाजी से भिक्षा की मांग की। शिवाजी ने कहा भिक्षा मांग कर आपने हमें लज्जित किया। गुरु रामदास ने कहा, ‘आज मैं गुरु के रूप में नहीं, बल्कि भिक्षुक के नाते भिक्षा मांगने यहां आया हूं।’ शिवाजी ने एक कागज पर कुछ लिखकर गुरु के कमंडल में डाल दिया। उसमें लिखा था- सारा राज्य गुरुदेव को अर्पित है। गुरु रामदास ने कागज फाड़ दिया और कहा, ‘‘मैं तुम्हारे अंदर का अहंकार निकाल नहीं पाया हूं। तुम राजा नहीं, एक सेवक हो। जो चीज तुम्हारी है ही नहीं उसे तुम मुझे दे रहे हो।’’ गुरुदेव ने आगे कहा, ‘‘वत्स! यह राज-पाट, धन-दौलत सब जनता की मेहनत का फल है। इस पर सबसे पहले उनका अधिकार है। तुम एक समर्थवान सेवक हो। एक सेवक को दूसरे की चीज को दान देना राजधर्म नहीं है।’’ शिवाजी गुरुदेव की भावना को समझ गए और उनसे क्षमा मांग कर बोले, गुरुदेव! अब कभी भूल नहीं होगी।
छत्रपति शिवाजी को उनके गुरु नीति और ज्ञान की बातें समझाते रहते थे। एक बार शिवाजी ने गौरव से भर कर गुरु रामदास जी को कहा- मैं लोगों का रक्षक और प्रजापालक हूं। गुरु रामदास ने अनुमान लगा लिया कि शायद शिवाजी को राजा होने का अभिमान हो गया है। रामदास ने शिवाजी को एक बड़ा-सा पत्थर दिखाकर कहा- वत्स! इस पत्थर को तोड़ कर तो देखो। शिवाजी ने पत्थर को तोड़ा तो देखा कि पत्थर के बीच में एक जीवित मेंढक है। गुरु जी ने कहा कि अब बताओ कि इस पत्थर के बीच में मेंढक को कौन हवा, पानी और खुराक दे रहा है? यह सुनकर शिवाजी गुरु के आगे नतमस्तक हो गए। फिर रामदास जी ने कहा कि हमारे भीतर पालनकर्ता का अभिमान नहीं आना चाहिए।
वामपंथी इतिहासकारों ने शिवाजी महाराज के बारे में अनेक गलत बातें की हैं। उन पर आरोप लगाया जाता है कि वे कट्टर हिंदू थे। यह गलत तथ्य है। शिवाजी हर विचारधारा और मत-पंथ का सम्मान करते थे। उन्होंने अपने शासन काल में सभी मत-पंथों को पूर्ण स्वतंत्रता दे रखी थी, लेकिन उन्होंने जबरन कन्वर्जन का विरोध किया था। इतिहास में कई ऐसे प्रसंग आते हैं जिनसे पता चलता है कि मस्जिदों और मकबरों की सुरक्षा के लिए भी उन्होंने फरमान जारी किया था। वे सूफी परंपरा का बहुत सम्मान करते थे। महान संत बाबा शरीफुद्दीन की दरगाह में वे प्राय: प्रार्थना करने जाया करते थे। इतिहासकार कफी खां और एक फ्रांसीसी पर्यटक बर्नियर ने उनकी धार्मिक नीतियों की प्रशंसा की है।
शिवाजी जैसे देशभक्तों की प्रेरणादायक कथाएं हममें भी त्याग की चेतना पैदा करती हैं, शौर्य की भावना जाग्रत करती हैं तथा खुशहाल भारत की ज्योति प्रदीप्त करती हैं। शिवाजी ने भारत निर्माण के लिए ढेरों कार्य किए। वे महान देशभक्त थे और देश के लिए जीवन तक न्योछावर करने को तत्पर रहते थे। ऐसी महान विभूतियों को किसी देश की भौगोलिक सीमाओं में नहीं बांधा  जा सकता। वे समस्त मानवता के लिए आदर्श और प्रेरणा के स्रोत होते हैं। उनकी अद्वितीय प्रतिभा, अदम्य साहस और समर्पित सेवा से आने वाली पीढ़ियां भी मानवता का भविष्य उज्ज्वल करती हैं।     ल्ल

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