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मोरुभाऊ मुंजे जैसे असाधारण कार्यकर्ताओं के तप का ही परिणाम है कि आज रा.स्व. संघ एक विशाल वट-वृक्ष की भांति गर्व से समाज संगठन और व्यक्ति निर्माण के कार्य में जुटा है
डॉ़ श्रीरंग गोडबोले
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को आज जो व्यापक जन समर्थन प्राप्त है, वह संयोगवश नहीं मिला है। दरअसल, यह मोरू भाऊ जैसे कार्यर्ताओं के पसीने, कड़े मौन परिश्रम और बेहद विनम्र प्रयासों का परिणाम है। मोरेश्वर राघव उपाख्य मोरुभाऊ मुंजे, जिनकी जन्मशती इस साल मनाई जा रही है, ऐसे ही एक तेजस्वी प्रचारक थे। महाराष्ट्र में वर्धा जिले के पवनार गांव में 18 नवंबर, 1916 को उनका जन्म हुआ था।
1927 में अच्छी शिक्षा ग्रहण करने की इच्छा लिए मोरुभाऊ 11 वर्ष की आयु में नागपुर आ गए। एक दिन शाम को भोंसला वेदशाला जाते समय मोरुभाऊ ने मोहिते वाड़ा में टूटी फूटी इमारत के पास कुछ लड़कों को खेलते हुए देखा। अगले दिन जब मोरुभाऊ मोहिते वाड़ा के पास से गुजरे तो अच्छी कद-काठी वाले 30-35 वर्ष के एक व्यक्ति ने उन्हें लड़कों की टोली में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया। यह व्यक्ति कोई और नहीं, बल्कि स्वयं संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार थे। इस तरह मोरुभाऊ संघ के संपर्क में आए। जल्दी ही वह डॉ. हेडगेवार के प्रिय बन गए। उन्होंने डॉ. हेडगेवार से बहुत कुछ सीखा। धीरे-धीरे, लेकिन निश्चित रूप से युवा मोरुभाऊ पर डॉ. हेडगेवार की विचारों का गहरा असर पड़ा।
संघ का विस्तार
डॉ. हेडगेवार ने नागपुर के बाहर संघ के विस्तार के लिए कुछ नवोदित कार्यकर्ताओं को छात्र के रूप में दूसरे प्रांतों में जाने के लिए प्रेरित किया।1932 में रामभाऊ जामगडे, गोपाल सदाशिव येरकुंटवार, माधवराव मुल्ये और तात्या तेलंग को क्रमश: यवतमाल, सांगली, चिपलूण और कटोल भेजा गया। कुछ स्वयंसेवकों की मौजूदगी में डॉक्टर जी ने स्वयं इन छात्र-कार्यकर्ताओं को विदा किया। युवा मोरुभाऊ को भी लगा कि उन्हें भी छात्र-कार्यकर्ता के रूप में काम करना चाहिए। 10 मई,1932 को महाराष्ट्र के बाहर पहली शाखा कराची में स्वयं डाक्टरजी की उपस्थिति में लगी। उस समय डाक्टरजी अखिल भारतीय तरुण हिन्दू परिषद में भाग लेने गए थे। इसके बाद इसी साल 6 अगस्त से 14 सितंबर तक उन्होंने बाबाराव सावरकर और मार्तंडराव जोग के साथ पहली बार संघ कार्य के लिए पश्चिम महाराष्ट्र का दौरा किया। अक्तूबर 1935 में डॉक्टर जी ने इस बात पर जोर देना शुरू किया कि स्वयंसेवकों को दूसरी भाषाएं सीखनी चाहिए, जिससे विभिन्न प्रांतों में संघ का विस्तार किया जा सके। 18 नवंबर, 1936 की बात है, वसंतराव ओक और बाबासाहेब आप्टे दिल्ली में कार्य शुरू करने के लिए नागपुर से रवाना हुए। एक साल बाद 1937 में डॉक्टर जी ने 10 छात्र-कार्यकर्ताओं को दिल्ली, पंजाब, संयुक्त प्रांत (अब उत्तर प्रदेश) और मध्य भारत में भेजा।
पंजाब में बुनियादी कार्य
डॉक्टर जी देश के विभिन्न हिस्सों में सामाजिक-राजनीतिक घटनाक्रमों को लेकर बहुत सजग थे। पंजाब में हिंदुओं की स्थिति विकट होती जा रही थी। 1930 में अल्लामा इनायतुल्ला मशरिकी ने लाहौर में खाकसार तहरीक नाम से आंदोलन शुरू कर दिया था। 1930 के उत्तरार्ध तक यह आंदोलन उत्तर भारत में फैल चुका था। इसके अलावा, मुस्लिम लीग भी बढ़ती जा रही थी। लिहाजा उस समय हिंदुओं को संगठित करना और उनमें भरोसा जगाना बेहद जरूरी हो गया था। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि पंजाब डॉक्टर जी की प्राथमिकता में था। उन्होंने पंजाब भेजने के लिए तीन छात्र-कार्यकर्ताओं का चुनाव किया। ये छात्र-कार्यकर्ता थे-कृष्ण धुंडीराज उपाख्य के.डी. जोशी, दिगंबर विश्वनाथ उपाख्य राजाभाऊ पातुरकर और मोरुभाऊ। के.डी. जोशी को सियालकोट और राजाभाऊ पातुरकर को लाहौर, जबकि मोरुभाऊ को रावलपिंडी भेजा गया। इसके बाद पहली बार 1937 में गुरु पूर्णिमा उत्सव बहुत धूमधाम से मनाया गया। इन तीनों के काम से प्रभावित होकर 13 अगस्त, 1937 को डॉ. हेडगेवार ने उन्हें लिखा, ‘‘हमें यह जानकर बहुत प्रसन्नता हुई है कि आप सभी वहां बहुत उत्साह के साथ काम कर रहे हैं। लेकिन किसी अपरिचित स्थान पर व्यक्ति को कठिनाइयों का सामना तो करना ही पड़ता है। यह देखते हुए कि आप में इन कठिनाइयों से पार पाने का सामर्थ्य है, हम (जो नागपुर में हैं) हृदय से आपका आभार व्यक्त करते हैं।’’ इसके कुछ माह बाद अगस्त 1938 में लाहौर के गुरुदत्त भवन में पहला ओ.टी.सी. वर्ग लगा। 40 दिन के इस वर्ग में पंजाब के 14 गांवों और नगरों के 40 स्वयंसेवक शामिल हुए। श्री गुरुजी और बाबासाहेब आप्टे के साथ डॉक्टर जी ने स्वयं इस वर्ग का दौरा किया था।
1937 से 1941 तक मोरुभाऊ रावलपिंडी के विभाग प्रचारक रहे। उन्होंने झेलम, गुजरांवाला और पेशावर के अलावा अन्य स्थानों पर भी संघ की शाखाएं शुरू कीं। मोरुभाऊ के कार्यक्षेत्र में मुसलमानों की आबादी को देखते हुए इस बात अनुमान लग जाता है कि उन्होंने किस तरह की चुनौतियों का सामना किया होगा। आलम यह था कि रावलपिंडी में 80, गुजरांवाला में 70.4, शेखपुरा में 62.6, झेलम में 89.5 और डेरा गाजी खान में 88.9 प्रतिशत मुसलमान थे। पंजाबी युवाओं को संघ की ओर आकर्षित करने के लिए एक बार मोरुभाऊ ने पुल से झेलम के बर्फीले पानी में छलांग लगाई तो तैरकर किनारे पहुंचे। रावलपिंडी में हिन्दू युवाओं की संघ में बढ़ती उपस्थिति से चिढ़कर कुछ कट्टरवादी मुसलमानों ने दो बार मोरुभाऊ पर सशस्त्र हमले किए। हालांकि वह अपनी चतुराई और समझदारी से इन हमलों में बच गए। ऐसे ही एक अन्य हमले के बाद मोरुभाऊ फिल्म अभिनेता दिवंगत बलराज साहनी के पिता के संपर्क में आए। इसके अलावा, उन्हें महान स्वतंत्रता सेनानी और हिन्दू महासभा के नेता भाई परमानंद से मार्गदर्शन प्राप्त करने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ। मोरुभाऊ जैसे कार्यकर्ताओं के असाधारण काम की बदौलत देश विभाजन के वक्त स्वयंसेवकों की संख्या लगभग 47,000 तक पहुंच गई थी, जिसने कुछ हद तक हिन्दू शरणार्थियों की दुर्दशा को कम किया था।
सदैव संघ को समर्पित
1941 में मोरुभाऊ को रायपुर का पहला विभाग प्रचारक नियुक्त किया गया। 1943-45 तक वह जबलपुर के विभाग प्रचारक रहे। इसके बाद 1946 में पारिवारिक कारणों से वह गृहस्थ हो गए और जबलपुर के महाराष्ट्र विद्यालय में पढ़ाने लगे। उसी साल कुमुद अभ्यंकर से उनका विवाह हुआ। कुमुद जी आगे चलकर कुमुदिनी मुंजे के नाम से मध्य प्रदेश भारतीय जनसंघ की प्रदेश कार्यकारिणी की पहली महिला सदस्य बनीं और 1965 में कच्छ समझौते के विरुद्ध जबलपुर से महिला सत्याग्रह का नेतृत्व किया।
गांधी जी की हत्या के बाद 4 फरवरी, 1948 को मोरुभाऊ को गिरफ्तार कर सात महीने तक जबलपुर केंद्रीय कारावास में रखा गया। जेल से रिहाई के बाद संघ पर अन्यायपूर्ण प्रतिबंध के खिलाफ उन्होंने 52 स्वयंंसेवकों के एक दल का नेतृत्व करते हुए सत्याग्रह किया। उन्हें तत्काल गिरफ्तार कर लिया गया और 7 जुलाई, 1949 को रिहा किया गया। इसके बाद संघ से प्रतिबंध हटा, पर इस बीच उन्हें गंभीर आर्थिक परेशानियों का सामना करना पड़ा। तब जरूरतें पूरी करने के लिए उन्हें मामूल नौकरी तक करनी पड़ी।
1953 में एक दवा कंपनी में उन्हें दवा बेचने का काम मिल गया, जिसमें उन्होंने 1976 तक काम किया।1982 से 1989 तक मोरुभाऊ प्रांत बौद्धिक प्रमुख रहे और इसके बाद संभाग प्रचारक नियुक्त हुए। 1989 से 1991 तक वह विश्व हिन्दू परिषद के राज्य कोषाध्यक्ष और 1991 से 1994 तक राज्य सचिव के पद पर रहे। इसके बाद अयोध्या आंदोलन के दौरान उन्होंने कार सेवा में हिस्सा लिया और व्यवस्था की देख-रेख के लिए चार माह तक मणिराम छावनी में रहे। इसके अलावा, डॉक्टर जी की स्मृति में उन्होंने जबलपुर में डॉ. हेडगेवार स्मृति मंडल की शुरुआत की और इसका नेतृत्व भी किया। स्मृति मंडल के संरक्षण में उन्होंने एंबुलेंस और शव वाहन सेवा भी शुरू की। दिसंबर 2000 में श्री हो. वे. शेषाद्री के आग्रह पर वह एक सप्ताह के लिए बेंगलुरु के दौरे पर गए और डॉ. हेडगेवार की जीवनी एवं संघ के प्रारंभिक इतिहास पर व्याख्यान भी दिया। 8 दिसंबर, 2007 को 91 वर्ष की आयु में हृदयाघात के कारण उनका निधन हो गया। मोरुभाऊ की स्मृति स्वयंसेवकों की अनेक पीढ़ियों को अनवरत प्रेरित करती रहेगी।
(लेखक पुणे महानगर संघचालक हैं)
मोरुभाई मुंजे जन्मशताब्दी समारोह का समापन
मोरुभाई मुंजे जन्मशताब्दी समारोह का समापन 2 अप्रैल 2017 को सायं 5 बजे, मानस भवन, राइट टाउ, जबलपुर में सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत के मुख्य आतिथ्य तथा महामंडलेश्वर स्वामी अखिलेश्वरानंद जी के सान्निध्य में होने जा रहा है। इसके पूर्व समारोह के संदर्भ में स्वयंसेवकों द्वारा वृक्षारोपण, विद्यालयों-महाविद्यालयों में भारत विभाजन पर व्याख्यान तथा छात्रों के लिए निबंध प्रतियोगिता का आयोजन किया गया। अनेक स्थानों पर अथर्वशीर्ष के पाठ हुए तथा मोरुभाई मुंजे और देश की तत्कालीन परिस्थितियों की जानकारी देने वाले पत्रक वितरित किये गए।
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